Wednesday, July 26, 2017

आर.के. लक्ष्मण का एक कार्टून और तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन

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यह टिप्पणी भी मूलतः द वायरपर भाषा समस्या से सम्बंधित लेखों की श्रृंखला में 26.07.2017 को प्रकाशित एक लेख की प्रतिक्रिया में इसी दिन लिखी गयी मेरी फेसबुक टिप्पणियों को जोड़कर तैयार की गयी है । थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए इसे यहाँ लगा रहा हूँ ।
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आर.के. लक्ष्मण का एक कार्टून और तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन

'द वायर' ने भाषा समस्या से सम्बंधित लेखों की श्रृंखला में आज (26.07.2017) मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज, चेन्नई के एस.आनंदी और एम.विजय भास्कर के लिखे एक लेख का हिन्दी अनुवाद लगाया है । इस लेख को पढ़ना चाहिए । तमिलानाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों के पक्ष को इसमें स्पष्ट करने की कोशिश की गयी है । मुझे तमिलनाडु में हुए हिन्दी विरोधी आंदोलन कई अर्थों में सकारात्मक लगते हैं । भाषा या भाषाएँ थोपने का विचार घोर अलोकतांत्रिक विचार है । लेकिन मैं तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों के कई अन्य पक्षों और परिणामों को भी समझने में रूचि रखता हूँ ।
'तमिलनाडु में विरोध हिंदी का नहीं एक देश, एक संस्कृतिथोपने का है' शीर्षक से लिखे गये, जिस लेख का ऊपर जिक्र हुआ है, उस लेख में भी तमिलनाडु हिन्दी विरोधी आंदोलनों के उस स्वर को पहचाना जा सकता है, जो एक स्तर पर तमिल अस्मिता का उच्चताबोध और दूसरे स्तर पर हीनताबोध का शिकार होने की बात को सामने लाता है । यह बोध क्रमशः हिन्दी और अंग्रेजी के मामले में है ।
तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों की कई परतें हैं । उनमें से एक यह भी है कि इस आंदोलन के कई नेता हिन्दी ही नहीं तमिल को भी अंग्रेजी के आगे न्यून और कम क्षमता वाला समझते थे । यह धारणा ग़लत थी, ग़लत है और रहेगी । यह इच्छा शक्ति का मसला है, दरअसल सभी मातृभाषाएँ क्षमतावान होती हैं । तमिलनाडु के हिन्दी विरोध ने उसे अंग्रेजी वर्चस्व की परिस्थिति तैयार करने का अगुवा बनाया । नेताओं के इस अंग्रेजी मोह के कारण ख़ुद वंचित और ग्रामीण तमिलों को बहुत अधिक प्रताड़ित होना पड़ा ।
आर.के.लक्ष्मण का एक कार्टून* यहाँ लगा रहा हूँ । इस कार्टून में तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों का एक बहुत संवेदनशील और महत्वपूर्ण पक्ष उभारा गया है । तमिलनाडु के नेताओं के दबाव में आकर इस कार्टून को एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की बारहवीं की किताब से 2012 में हटा दिया गया था । आश्चर्यजनक तौर पर इस कार्टून के विरोध के पीछे का विचार यह था कि इस कार्टून के माध्यम से तमिल भाषी छात्रों के अंग्रेजी ज्ञान पर सवाल उठाया गया है, जो तमिल भाषी छात्रों को अपमानित करने वाला और हीनतर साबित करने वाला कृत्य है!
जो तमिलानाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों की पृष्ठभूमि से परिचित नहीं हैं, उन्हें इस कार्टून के समझने में दिक्कत हो सकती है । इस कार्टून को लेकर मेरी जितनी समझ है, वह बताने की कोशिश कर रहा हूँ ।

संविधान में 15 वर्ष की अवधि तक अंग्रेजी को वैकल्पिक राजभाषा का स्थान दिया गया था । संविधान बनने से पहले तक राज-काज के जो भी काम अंग्रेजी में होते थे, उसे अगले पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी में ही चलाए जाने का प्रस्ताव था । यह 'सैद्धांतिक आशा' व्यक्त की गया थी कि इस अवधि तक दक्षिण भारत सहित हिन्दी के प्रति अन्य असहज प्रांतों तक हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो जाएगा । इस अवधि के पूरा होने तक, इस आशा के ठीक विपरीत यह हुआ कि हिन्दी को राजकाज की भाषा बनाए जाने के विरूद्ध तमिलनाडु में तीव्र विरोध आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन कहने को तमिल अस्मिता का पक्षधर आंदोलन था लेकिन इसकी तात्कालिक मांग यही थी कि अंग्रेजी को जो दर्जा पंद्रह वर्ष के लिए मिला था, उसे खत्म नहीं किया जाए, बल्कि अंग्रजी को हमेशा के लिए यह दर्जा दे दिया जाए । यह आंदोलन बहुत हद तक अपने उद्देश्यों में सफल रहा ।

आर.के. लक्ष्मण के इस कार्टून में हिन्दी का राजभाषा के रूप में नकार और अंग्रेजी को लगातार और हमेशा के लिए बनाए रखने के लिए 1965 में हो रहे आंदोलन के समानांतर और उसके विरोध में एक ऐसे आंदोलन की परिकल्पना की गयी है, जो उन छात्रों के द्वारा की जा रही है, जो हिन्दी ही नहीं अंग्रेजी को लेकर भी असहज हैं । इस कार्टून में एक ऐसे ही छात्र को हाथ में पत्थर लिए दिखाया गया है । यह कार्टून संवेदनशीलता के साथ उन तमिलों की पीड़ा को सामने लाती है, जो अंग्रेजी नहीं जानते थे । तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन, एक ओर हिन्दी थोपे जाने से तमिल जनता को बचा रहे थे वहीं दूसरी ओर जाने-अनजाने पिछड़े, वंचित और ग्रामीण तमिलों पर अंग्रेजी थोपे जाने का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । क्या इसे हिन्दी थोपे जाने से कमतर प्रताड़ना देने वाला काम माना जा सकता है?

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[*चित्र साभार : द हिंदू.कॉम]
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हिन्दी और उसकी तथाकथित बोलियों से सम्बद्ध दो लेखों पर टिप्पणियाँ

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इस ब्लॉग पोस्ट के पहले खंड में ‘द वायर’ पर 21.07.2017 प्रकाशित डा. अमरनाथ के लेख बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध क्यों हो रहा है?’ को पढ़कर इसी दिन फेसबुक कमेंट और पोस्ट के माध्यम से की गयी मेरी टिप्पणी है । इसके दूसरे खंड में- ‘द वायर’ पर ही इसी श्रृंखला में अगले दिन 22.07.2017 को प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के लेख बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जानेकी मांग बिल्कुल जायज़ है’ पर इसी दिन फेसबुक पर की गयी मेरी टिप्पणी है । ये दोनों ही लेख विचार और भावना एक स्तर पर परस्पर विरोधी हैं । लेकिन चूँकि दोनों ही लेख एक ही तरह की भाषा समस्या से सम्बंधित हैंऔर दोनों में ही तर्क के स्तर पर मुझे आलोचना की गुंजाइश दिखीइसलिए इन दोनों पर की गयी अलग-अलग टिप्पणियों को एक जगह लाकर नाम मात्र संशोधनों के साथ यहाँ लगा रहा हूँ ।
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 हिन्दी और उसकी तथाकथित बोलियों से सम्बद्ध दो लेखों पर टिप्पणियाँ 

[1]
[कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक डा. अमरनाथ की छात्रोपयोगी किताब- 'हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली' से मुझे अपने एम.ए. और बाद के कोर्स वर्क पाठ्यक्रम के कुछ जटिल विषयों को समझने में मदद मिली थी । इसलिए उनके प्रति मेरे मन में आदर है । वे लम्बे समय से हिन्दी के पक्ष में बोलते और लिखते रहे हैं, मैं इस भावना का भी सम्मान करता हूँ । लेकिन इस संदर्भ में उनकी विचार पद्धति मुझे आधारहीन काल्पनिक समस्याओं और तर्कों पर आधारित, दुष्प्रचार की भावना से प्रेरित, अपमानजनक (इसे हिंसक भी कह सकते हैं) और शून्य बल्कि नकारात्मक परिणाम देने वाली लगती रही है । आज पहली बार बहुत ज़रूरी लगने पर डा. अमरनाथ के विचारों पर कोई सार्वजनिक टिप्पणी कर रहा हूँ । 'द वायर' पर छपे उनके एक लेख पर की गयी मेरी टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है ।]

डा.अमरनाथ को लम्बे समय से हिन्दी के पक्ष में बोलते और लिखते हुए देख रहा हूँ। उनके प्रति सम्मान रखते हुए भी कहूँगा कि वे बड़े भ्रम के शिकार हैं, और हिन्दी को बचाने का जो रास्ता उन्होंने चुन रखा है, वह भटका हुआ रास्ता है । इस कारण से उनकी वैचारिकी को पसंद करने वाले लोग भी भारी भ्रम और भटकाव के शिकार रहे हैं ।
हिन्दी संख्या बल पर राजभाषा बनी यह सच है, लेकिन इसी तर्क के रहते हुए भी वह देश के कई हिस्सों में स्वीकृति नहीं पा सकी : क्या इस सच की उपेक्षा की जा सकती है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु के प्रभावशाली हिन्दी विरोधी आंदोलनों ने हिन्दी के संख्या बल के तर्कों की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी थी ।
हिन्दी को नाम के लिए राजभाषा बनाए रखने से किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी । समय के साथ-साथ देश की व्यावहारिक राजभाषा अंग्रेजी ही होती चली गयी है । और यदि अब राजभाषा के संदर्भ में कोई आपत्ति है या होगी तो वह अंग्रेजी के इस संवैधानिक दर्जे को कम करने या ख़त्म करने को लेकर होगी ।
जिन्हें हिन्दी की बोलियाँ कह कर डा.अमरनाथ बेहद अपमानजनक तरीके से अपना मत रखते हैं- एक तो उन्हें बोलियाँ कहना अतार्किक और अवैज्ञानिक है । यह एक अपुष्ट मान्यता है, जिसे स्वयंसिद्ध मान्यता की तरह हिन्दी अकादमिक जगत ने पठन-पाठन का हिस्सा बनाए रखा है । दूसरी यह कि इनकी भाषिक मान्यता से मातृभाषियों की हिन्दी द्विभाषिकता ख़त्म नहीं हो जाएगी! बल्कि यह न्यायसंगत है कि उन्हें स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिले ।
डा. अमरनाथ के हिन्दी बचाओ मंच को यदि ईमानदारी से चुनौतियाँ चुनने में दिलचस्पी हों तो वे अंग्रेजी वर्चस्व के खिलाफ अपनी उर्जा लगाएँ । जिससे हिन्दी का संख्या बल नहीं मातृभाषाओं से प्रेम करने वाले लोग ही जूझ सकते हैं!

[2]
['द वायर' ने आज इस तरह के लेखों की श्रृंखला में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का एक लेख प्रकाशित किया है। भोजपुरी,मगही आदि को अष्टम अनुसूची में प्रवेश देने का विरोध किये जाने को ग़लत बताते हुए राजेन्द्र जी ने यह लेख लेख लिखा है। नीचे इस लेख पर की गयी अपनी टिप्पणी लगा रहा हूँ ।]

इस प्रसंग में राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भावना से सहमत हूँ, लेकिन विचार के स्तर पर यह लेख बहुत मजबूत और बहुत तार्किक नहीं है।
नदियों-नहर या स्रोत वाली रूपक- तर्क-पद्धति बहुत पुरानी, और कम से कम सम्बंधित समस्या की हल करने की दृष्टि से बहुत अप्रभावी साबित होती रही है । इसका उपयोग वे लोग भी करते रहे हैं, जो हिन्दी की पहचान उसकी कथित बोलियों के साथ करते रहे हैं और इस पहचान के घोर पक्षधर रहे हैं ।
इस तरह की तर्क पद्धति से यह मान्यता स्थापित की जाती है कि हिन्दी अपनी तथाकथित बोलियों से कई स्तरों पर उर्जा और बल पाती है, इसलिए इन बोलियों का बचा रहना आवश्यक है । जबकि व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह बात अब महत्वहीन हो गयी है । यथार्थ यह है कि जिन तथाकथित बोलियों से हिन्दी ने शब्द संपदा और व्याकरणिक प्रेरणा ग्रहण की है : उनकी विकास प्रक्रिया या तो अब लगभग स्थिर हो चुकी है या क्षय की ओर है !* इस कारण से हिन्दी की भाषिक समृद्धि के लिए अब वे संभावनाशील स्रोत नहीं रह गये हैं । ऐसे में हिन्दी का मातृभाषा के रूप में विस्तार चाहने वाले लोग आखिर फिर क्यों इन कथित बोलियों की एक भाषिक अस्मिता के रूप में मौजूदगी चाहेंगे?
ऐसे लोग यह ज़रूर चाहेंगे कि इन कथित बोलियों की शब्द संपदा, व्याकरणिक रूप, विशेषताओं और विविधताओं को अच्छी तरह संकलित कर लिया जाए, और भविष्य में यह संग्रहालय और पुस्तकालयों में एक ऐतिहासिक लुप्त भाषिक विरासत के रूप में संरक्षित रहे और, भविष्य में जहाँ कहीं इसके दोहन की आवश्यकता हो, भरपूर दोहन किया जाए!

[स्पष्टीकरण: *जब तक किसी भाषा का प्रयोग करने वाले लोग बचे रहते हैं, उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । भाषिक विकास की प्रक्रिया के लगभग स्थिर हो जाने या क्षय होते जाने से मेरा मतलब यह है कि इन भाषाओं और इनके विविध रूपों के मानक लगभग सुनिश्चित हो चुके हैं, और यह भी कि अधिक प्रभावशाली भाषाओं के सम्पर्क में आने के बाद इन में से कई भाषाओं की अपनी भाषिक संपदा और विशेषताएँ भी लुप्त होने लगी हैं! इससे इन भाषाओं में मौलिक नव निर्माण की संभावना बहुत क्षीण हो गयी है ।]

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कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग और बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी विरोध

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दो खंडों में प्रस्तुत की जा रही यह टिप्पणी मूलतः 19.07.2017 को किये गये मेरे एक फेसबुक पोस्ट और  ‘द वायरपर प्रसारित होने वाले विनोद दुआ के कार्यक्रम जन गण मन की बात’ के एपिसोड-86 को देख कर इसके फेसबुक पेज पर 20.07.2017 को दी गयी मेरी प्रतिक्रिया को जोड़ कर तैयार की गयी है । कहीं-कहीं नाम मात्र का संशोधन है ।
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कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग और बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी विरोध

[1]
मेरा मानना है कि कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग की तरह ही बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी में लिखे नामों या हिन्दी उद्घोषणा को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन, अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर क्षेत्रीय और भाषाई उन्माद के सहारे वोट बैंक तैयार करने की कोशिश का हिस्सा भर हैं । इनमें कोई सद्भावना नहीं है । यह सब सुनियोजित एजेंडे के तहत हो रहा है । कांग्रेस की सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली सरकार बीजेपी लहर में भी फिर से बने रहने की तैयारी में उसी तरह के हथकंडे अपनाने की ओर ध्यान लगा रही है, जिसमें बीजेपी को महारथ हासिल है ।
कन्नड़ को प्राथमिक भाषा का स्थान देकर, यदि अंग्रेजी के साथ हिन्दी का भी सूचनापट्ट, निर्देशों और उद्घोषणा की एक भाषा के बतौर उपयोग किया जाता है, तो यह 'हिन्दी इंपोजिशन' है, या इस देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा के प्रति व्यावहारिक रूप से ज़रूरी सम्मान? : इस पर पूर्वाग्रहमुक्त होकर अवश्य विचार करना चाहिए!
यह कर्नाटक की चुनी हुई सरकार का अधिकार है कि वह अपने अधिकृत क्षेत्र में हिन्दी को प्रवेश नहीं करने दे, लेकिन आखिर क्यों? स्वतंत्रता आंदोलन में देश की साझी और उपनिवेशवाद से संघर्ष की भाषा बनकर उभरी और आज देश की सर्वाधिक स्वीकृत भाषा हिन्दी के प्रति इस तरह की घृणा और अपमानजनक रवैये का प्रदर्शन क्या किसी भी दृष्टिकोण से सकारात्मक परिणाम देने वाला रह गया है?
संविधान निर्माण के लगभग सात दशकों के बाद तो यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है, कि विभिन्न प्रांतों के हिन्दी विरोध ने इन प्रांतों की मातृभाषाओं को सुदृढ़ करने की अपेक्षा अंग्रेजी का मार्ग अधिक प्रशस्त किया है  । ये प्रांत अपनी मातृभाषाओं के बजाय अंग्रेजी के अधिक आश्रित होते चले गये हैं  । इन प्रांतों के लिए भी अब यह पुनर्विचार का अनिवार्य विषय है, कि इतने वर्षों में उनका हासिल क्या है !
जिन क्षेत्रों में हिन्दी समझी जाती है,या जहाँ हिन्दी विरोध नहीं है, यदि अपनी चेतना हीनता से निजात पा लें, और वहाँ की सामान्य जनता अपने ऊपर लादी गयी अंग्रेजी को पूरी तरह खदेड़ने का मन बना ले तो अंग्रेजी पर आश्रित होते जा रहे राज्यों को इसका क्या खामियाजा भुगतना पड़ेगा क्या कभी इसकी कल्पना भी की गयी है? हिन्दी विरोधी राज्यों और देश के नेता इतिहास के अनुभवों से निश्चिंत हैं कि ऐसा सिर्फ कलपनाओं में ही हो सकता है । इसलिए भाषा के नाम पर इस देश में जितना जो बुरा हो सकता है, वह हो रहा है ।
हिन्दी वर्चस्व अस्तित्वहीन शब्द नहीं है, लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि इसके पीड़ित तथाकथित हिन्दी पट्टी के ही विभिन्न मातृभाषी क्षेत्र रहे हैं, दक्षिण भारतीय या कोई अन्य हिन्दी विरोधी राज्य नहीं ! इसके बावज़ूद यह तथाकथित हिन्दी पट्टी, हिन्दी की साझी विरासत के प्रति घृणा के बजाय सम्मान रखती है । वर्तमान में इस देश में भाषा के सर्वाधिक वास्तविक पीड़ित, अंग्रेजी वर्चस्व के ही हैं, और भाषा समस्या के दृष्टिकोण से अंग्रेजी वर्चस्व ही इस समय हमारे देश की सबसे बड़ी चुनौती है!

[2]
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'द वायर' के जन गण मन कार्यक्रम में विनोद दुआ ने कर्नाटक के अलग झंडे की मांग को भारत की विविधता से जोड़ कर इसे उचित माना है । इस पर मेरी प्रतिक्रिया ।
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इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि विविधता का सम्मान करना बहुत जरूरी है । सभी क्षेत्रों, समुदायों, भाषाओं, संस्कृतियों आदि के प्रति आदर रख कर ही इस देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है ।
राज्य के लिए अलग झंडे की मांग में साधारणतया कोई बुराई तो नहीं है, लेकिन इसकी उपयोगिता और इस मांग में निहित भावना पर अधिक सूक्ष्मता से विचार किये जाने की आवश्यकता है । राजनीति का प्रतीकों पर केन्द्रित होने लगना, सकारात्मक लक्षण नहीं है । एक कमजोर क्षेत्रियता इस दिशा में भावुक पहल कदमी करे तो समझा जा सकता है, लेकिन कन्नड़ जैसी मजबूत क्षेत्रियता के लिए इतने वर्षों बाद अलग औपचारिक झंडे की क्या आवश्यकता आन पड़ी है!
कर्नाटक में अगले वर्ष चुनाव है, और मेरा मानना है कि यह मांग बहुत हद तक क्षेत्रीय उन्माद को प्रोत्साहित करके वोट बैंक तैयार करने की कोशिश है । सरकार को जब राज्य में रोजगार, विकास, किसानों की दशा, कन्नड़ भाषा-संस्कृति के विकास में दिये गये अपने योगदान आदि महत्वपूर्ण व्यावहारिक मुद्दे पर अपनी उपलब्धियों और योजनाओं पर बात करनी चाहिए, वह झंडे का उन्माद पैदा कर, इन जरूरी मसलों से ध्यान भटकाना चाहती है ।
मेरा मानना है कि झंडे आदि प्रतीकों का नये समय में निर्माण प्रतिगामी और अनावश्यक कार्य है ।
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- कुछ सम्बंधित खबरों के लिंक -


Tuesday, July 25, 2017

‘वागर्थ’ के एकांत

फेसबुक पर पिछले दिनों मेरी नज़र कुछ ऐसे पोस्ट और प्रतिक्रियायों पर गयीजिसमें प्रो. शंभुनाथ के भारतीय भाषा परिषदकलकत्ता के निदेशक और 'वागर्थके संपादक चुने जाने पर हर्ष प्रकट किया गया था । इस तरह का आशय और विश्वास व्यक्त करते हुए लोगों ने आदरणीय गुरूजी को बधाई पेश की थी कि 'वागर्थके दिन तो अब अच्छे होंगेअब तक 'वागर्थपतनशीलता के रास्ते पर था! 
'वागर्थका क्या होगाऔर भारतीय भाषा परिषद का क्या हो रहा हैयह तो वे लोग अच्छे से बताएँगे जो बिना किसी जान-पहचान के एक लेखक की हैसियत से यहाँ अपनी रचनाएँ भेजते हैं! मैं सिर्फ यह कहना चाहूँगा कि एक प्रोफेसर संपादक को प्रसन्न करने के लिए पूर्व के किसी रचनाकार संपादक से श्रेय छीनने का प्रयास करना, महज एक दृष्टिकोण नहीं हैबेइमानी है, बेहयायी है, और हद दर्ज़े की धूर्तता भी है ।

वागर्थके एकांत
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एकांत श्रीवास्तव

2007 में 'वागर्थ' ने एक कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया था । संभवतः यह प्रतियोगिता 35 वर्ष तक के कवियों के लिए आयोजित की गयी थी । इस प्रतियोगिता में बहुत उत्साह के साथ मैंने भी दो कविताएँ भेजी थी । तब मैं बी.ए. में एड्मीशन के उद्देश्य से दिल्ली आया हुआ था । मुझे याद है कि किंग्सवे कैंप के एक साइबर कैफे वाले को 20 या 25 रुपये प्रति पृष्ठ की दर से देकर, दो पृष्ठों में इन कविताओं को कम्पोज करवाया था । इस प्रतियोगिता में कोई पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन 'वागर्थ' के नवंबर-2007 अंक में अपनी दोनों कविताओं के प्रकाशित होने की सूचना एक परिचित के माध्यम से मिली । यह मेरे लिए अप्रत्याशित खुशी की बात थी !
हुआ यह था कि तब के संपादक एकांत श्रीवास्तव ने पुरस्कृत कविताओं के साथ, प्रतियोगिता के लिए आयी अधिकांश नव लेखकों की कविताओं और कुछ अन्य युवाओं की कविताओं को शामिल कर इस अंक को नवलेखन कविता अंकका रूप दे दिया था ! इस अंक में न सिर्फ कविताएँ छापी गयी थीं बल्कि एकांत जी ने अपने संपादकीय में लगभग सभी कविताओं पर संक्षिप्त ही सही टिप्पणी भी की थी । पहली बार मेरी कविताएँ किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी । इस प्रकाशन से और मिल रही छिटपुट प्रतिक्रियायों से मेरा मनोबल काफी बढ़ा था । निश्चित रूप से ऐसा कई अन्य नव लेखकों के साथ भी हुआ होगा । उस अंक में छपे कई कवि/कवयित्री आज भी सक्रिय हैं । उनकी अपनी एक पहचान है,और अच्छा लिख रहे हैं । नवलेखन कविता अंककी तर्ज पर ही संपादक ने अगला अंक नवलेखन कहानी अंकके रूप में प्रकाशित किया था । इस अंक ने भी निस्संदेह कई नव लेखकों का मनोबल बढ़ाने में अपना योगदान दिया होगा ।
एकांत जी के संपादन में ही वागर्थने जुलाई 2008 अंक को नवलेखन आलोचना पर केन्द्रित करने की घोषणा की थी और इसके लिए रचनाएँ आमंत्रित की थी । इसकी सूचना मुझे बाबूजी ने फ़ोन पर देते हुए ज़ोर देकर कहा था कि इस अंक के लिए मुझे एक लेख तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए । लेख तैयार करने का मन बना पाने में मुझसे देरी हुई । वे मेरे बी.ए. के शुरूआती दिन थे । लिखने-पढ़ने का उत्साह तो बहुत था, लेकिन तब मुझे संदर्भों का उल्लेख करने की पद्धति या आवश्यकता तक के विषय में कुछ पता नहीं था । समीक्षात्मक लेख लिखने का कोई अनुभव भी नहीं था । कुछ सम्बंधित किताबें पढ़कर और अपनी तब की समझ का जितना उपयोग कर सकता था, करके मैंने रेणु की कहानी पंचलाइटका एक पुनर्पाठ तैयार किया था । आलोचनात्मक तो क्या ही कहेंगे, उसे लेखक और उसकी रचना से प्रभावित होकर किया गया विश्लेषण और व्याख्या कहना उचित होगा ।
अपेक्षाकृत देर हो जाने के कारण मुझे संपादक को फ़ोन कर के पूछ लेना उचित लगा था । एकांत जी फ़ोन पर सहज उपलब्ध हो गये थे, और बहुत ही विनम्रता से उन्होंने बात की थी । नवलेखन कविता अंकमें मेरी छपी रचना का संदर्भ देने पर उन्होंने मुझे पहचान लिया और कहा कि आपकी कविता पर तो अच्छी प्रतिक्रियायें आ रही हैं ! मैंने उन्हें नवलेखन आलोचना अंक के लिए तैयार अपने पुनर्पाठ के बारे में बताया । उन्होंने कहा कि रेणु जी की कहानी पर तो एक पुनर्पाठ पहले ही स्वीकृत हो चुका है । मैंने उन्हें बताया कि बहुत मन से और मेहनत से यह लेख तैयार किया था ! वे शायद एक नव लेखक को मायूस नहीं करना चाहते थे, उन्होंने कहा कि अच्छा, आप भेज दीजिए । रेणु तो बड़े रचनाकार हैं, उन पर दो लेख भी आ सकते हैं । अब हिचक मेरी ओर से थी और वह यह थी कि रेणु की कहानी पर एक अच्छा पुनर्पाठ यदि पहले ही स्वीकृत हो चुका है, तो पता नहीं मेरा पुनर्पाठ स्तरहीन न लगे । मैंने उन्हें संकोच के साथ कहा कि ठीक है, भेज देता हूँ, लेकिन पता नहीं छपने लायक लिख पाया हूँ या नहीं! एकांत जी ने कहा कि- आप भेजिए, आपने मन से लिखा है, तो छपेगा ही ! उसी बात-चीत में उन्होंने मुझसे कहा कि- आप उसी क्लास में हैं, न जो बारहवीं के ठीक बाद आता है! एकांत जी की बातों से उस दिन मैं कितना अधिक प्रोत्साहित हुआ था, उसे ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर सकता । आज लगभग एक दशक बाद भी मैं उस प्रोत्साहन की सकारात्मकता को महसूस कर पाता हूँ । उस नवलेखन आलोचना अंकमें मेरे किये एक पुनर्पाठ सहित रेणु की दो कहानियों पर कुल दो पुनर्पाठ प्रकाशित हुए थे। इस प्रकाशन के बाद प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रियायें भी मिलती रहीं, और मुझे स्वीकार करना चाहिए कि इस प्रकाशन के बाद मेरा यह आत्मविश्वास विकसित हुआ कि मैं भी आलोचनात्मक लेखन कर सकता हूँ । इसी प्रकाशन के बाद मिली प्रतिक्रियायों से मुझे ऐसा लगा और मैने तय किया कि आलोचनात्मक लेखन दायित्वबोध के साथ करूँगा और छपने की जल्दबाजी नहीं करूँगा । मुझे लगता है कि मैं आज तक अपने इस संकल्प को निभा पाने में कामयाब रहा हूँ । 
इसके बाद मैंने वागर्थमें कभी कोई रचना प्रकाशनार्थ नहीं भेजी और एकांत जी से फिर कोई सम्पर्क भी नहीं रहा, लेकिन उनके संपादन में आने वाले बाद के अंक भी मैं देखता रहता था । उनके संपादन में प्रकाशित हुए अन्य गद्य विधाओं पर केन्द्रित नवलेखन अंक के माध्यम से भी कई नव लेखकों की प्रतिभाओं से परिचित होने का अवसर मिला था । वह भी एक संग्रहणीय अंक था । उनके संपादन में आने वाले सामान्य अंकों में भी युवा और ताजे चेहरे दिखते रहते थे । इन अंकों की एक खूबसूरती यह भी हुआ करती थी कि इनमें विचारों और प्रतिबद्धताओं की विविधता दिखाई देती थी ।
कुछ महीनों बाद पता चला कि एकांत जी की जगह विजय बहादुर सिंह ने ले ली है । कई कारणों से धीरे-धीरे साहित्यिक पत्रिकाओं से एक पाठक के बतौर मेरा नियमित जुड़ाव कम होने लगा था ।  कुछ वर्षों बाद एक बार फिर एकांत जी के संपादक बनने की ख़बर सुनी । अब शंभुनाथ जी के संपादक बनने की ख़बर सुन रहा हूँ !
यह सही है कि एकांत जी के प्रति मेरे मन में अपने व्यक्तिगत अनुभवों के कारण सम्मान है । एक स्थापित लेखक/संपादक का मुझ बिल्कुल अपरिचित, बिल्कुल नये और एक कम उम्र रचनाकार को गंभीरतापूर्वक फ़ोन पर सुनने, विनम्रता से जवाब देने और प्रोत्साहित करने के सहज तरीके की छाप मेरे मन पर है । लेकिन उनके योगदान के मूल्यांकन का आधार मात्र मेरा अनुभव नहीं है । मैं निजी बातचीत से जानता हूँ कि मेरे कई अन्य लेखक मित्रों का भी मुझसे मिलता-जुलता अनुभव रहा है । मुझे आशा है कि कुछ मित्र इस बात की पुष्टि भी करेंगे ।
भयावह संपादकीय अहंकार के दौर में क्या एक संपादक को इसलिए विशिष्ट नहीं माना जाना चाहिए कि उसने कई नव लेखकों को बिना भेद-भाव, बिना जान-पहचान के अवसर दिया, और जिससे उनकी प्रतिभा पर्याप्त प्रोत्साहित हुई ? बहुत अधिक ऐतिहासिक-साहित्यिक महत्व के विशेषांकों के प्रकाशन के बजाय भविष्य एक संपादक के योगदान का मूल्यांकन इस संदर्भ में भी करेगा कि उसने संभावना से भरे कितने नये लेखकों को सामने लाने और प्रोत्साहित करने का काम किया । मैं मानता हूँ कि इस दिशा में एकांत जी का योगदान महत्वपूर्ण है । बहुत प्रयास करके भी कोई उनसे यह श्रेय नहीं छीन सकता । हिन्दी के संपादकों को इस मामले में एकांत जी से सीखने की जरूरत है । 

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[स्पष्टीकरण: इस लेख में लगभग एक दशक पहले की बातों का जहाँ उल्लेख हुआ है, मैंने अपने स्मरण और अपने विश्वास में जो सच है, उसे लिखा है । संभव है कुछ त्रुटियाँ रह गयी हों, घटनाओं के क्रम में थोड़ा-बहुत अंतर रह गया हो, और संवाद में ठीक-ठीक वही बातें नहीं आ पायी हों, जो हुई होंगी । लेकिन इस लेख में भावनाओं और आशय को ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर पाने का मैंने पूरा प्रयास किया है । यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह लेख व्यक्ति एकांत श्रीवास्तव के बजाय संपादक एकांत श्रीवास्तव पर केन्द्रित है । एकांत जी की विचारधारा, भाषा परिषद के साथ उनके सम्बंध, सहमति-असहमति जैसे पहलुओं की न तो मुझे जानकारी है और न तो उस पर बात करना इस लेख का अभिष्ट है।] 

Friday, July 14, 2017

अतिथि संपादक के अहंकार और अभद्रता के विरूद्ध

मैंने यह पत्र आज अलग-अलग ई-मेल से क्रमशः साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव को भेजा है । पत्र पढ़कर पूरा मसला समझा जा सकता है । विरोध का पत्र लिखना ही नहीं, इसे सार्वजनिक करना भी आवश्यक लगा, ब्लॉग के माध्यम से वही कर रहा हूँ । जनता के पैसों से चलने वाली संस्था साहित्य अकादमी को अहंकारी और अभद्र लोगों के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता है । इसके लिए निरंतर प्रतिरोध की आवश्यकता बनी रहेगी । 


प्रति,
अध्यक्ष/ उपाध्यक्ष/ सचिव
साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली-110001

विषय : ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के अतिथि संपादक रणजीत साहा द्वारा फ़ोन पर मेरे साथ किये गये अभद्र व्यवहार और अपमानजनक टिप्पणी के बारे में ।

महोदय,
यह पत्र मैं बहुत आहत मन से लिख रहा हूँ । 8 जून 2017 को मैंने देश की भाषा समस्या के एक महत्वपूर्ण पक्ष से सम्बंधित अपना एक शोध आलेख समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशन के उद्देश्य से भेजा था । यह आलेख पत्रिका में संपादकीय संपर्क के लिए दिये गये दो ई-मेल पतों : sbseditor@gmail.com और samkaleensbs@sahitya-akademi.gov.in पर भेजा गया था । एक महीना बीत जाने के बाद भी कोई ज़वाब नहीं मिलने पर मैंने निर्णय की सूचना देने का अनुरोध करते हुए- 08.07.2017 से 13.07.2017 तक कुल चार ई-मेल किये । इनके भी कोई उत्तर नहीं मिले । संपादकीय कार्यों में दख़ल न देने के इरादे से मैं प्रायः एक महीने की अवधि तक फोन या पत्र व्यवहार कर अपनी रचना की स्थिति के बारे में जानने की चेष्टा करने से बचता हूँ । एक महीना बाद तक कोई सूचना नहीं मिलने और बाद के भी कई ई-मेल के अनुत्तरित रह जाने के कारण, मुझे यह शंका हुई कि संभव है कि मेरा आलेख पढ़ा ही नहीं गया हो । इसके बाद मैंने संपादकीय सम्पर्क के लिए दिये गये फ़ोन नं. पर फ़ोन किया और अपने आलेख – ‘मैथिली भाषा अस्मिता के संदर्भ में लिपि का प्रश्न’ के बारे में पूछताछ की । मुझे बताया गया कि यह आलेख नहीं पढ़ा गया है, लेकिन शीर्षक सुन कर ही मुझे बता दिया गया कि भाषा और लिपि विमर्श से जुड़े आलेख इस पत्रिका में नहीं छापे जाते । (यह बात भी भ्रामक है । मैं ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ का नियमित ग्राहक रहा हूँ, और इसमें प्रकाशित हुए भाषा विषयक कम से कम कुछ लेखों की तो मुझे जानकारी है ।)
मेरे आलेख को छापना या नहीं छापना संपादकीय विवेक के अधीन है, और मैं इसका सम्मान करता हूँ । मेरी आपत्ति दो बातों से थी- एक यह कि मेरे कई ई-मेल अनुरोध के बाद भी मुझे समय से सूचना नहीं दी गयी । दूसरी यह कि मेरी रचना पढ़ी ही नहीं गयी । मैंने जब यह कहा कि कि ई-मेल का नहीं पढ़ा जाना और बार-बार के अनुरोध के बाद भी समय से निर्णय की सूचना नहीं देने की परंपरा ग़लत है, और यह ग़ैरजिम्मेदारी भरा काम है, तो फ़ोन पर बात कर रहे व्यक्ति को यह बात बेहद बुरी लगी और वे मुझ पर भड़क उठे । इसी क्रम में उन्होंने मुझे कहा कि – आप जैसे लोग साहित्य अकादमी में आकर घास चरकर चले जाते हैं । यह बात मुझे बहुत भीतर तक बेध गयी । मेरे द्वारा आपत्ति जताने के बावज़ूद वे अपनी इस बात पर अडिग रहे और मनगढ़ंत बातों के सहारे इसे तर्कसंगत ठहराते रहे । इसका उन्हें खेद तक नहीं हुआ । परिचय के लिए उनसे यह पूछने पर कि –‘आप कौन बोल रहे हैं’ भी उन्हें बुरा लगा और उन्होंने अपना नाम- रणजीत साहा बताते हुए, आगे यह आशय भी जोड़ दिया, कि मेरा यह पूछना उनकी शान में गुस्ताख़ी थी । मैं समझता हूँ, कि यह उनके अहंकार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था । चूँकि भाषा और लिपियों से सम्बंधित आलेख नहीं छापे जाने की उनकी बात मुझे भ्रामक लगी थी, इसलिए बाद में मैंने संदेहवश यह पूछ लिया कि - क्या मैथिली भाषा अस्मिता से जुड़ा आलेख होने के कारण ऐसा रवैया है, तो इस बात से भी अतिथि संपादक महोदय भड़क गये और अपने मैथिली प्रेम के कई दृष्टांत सुनाने लगे । संभव है, मेरी इस बात पर उनका भड़कना सही हो सकता है, और यह मुझे बुरा भी नहीं लगा, लेकिन साहित्य अकादमी में आकर घास चरने वाली उनकी बात से मुझे अत्यधिक कष्ट पहुँचा है । यह मेरे उस स्वाभिमान पर आघात है, जिसे कभी किसी संपादक या साहित्य अकादमी तो क्या किसी के भी आगे हत होना मंजूर नहीं है ।
आखिर किस मानसिकता, किस हैसियत और किन आधारों पर उन्होंने यह टिप्पणी की? क्या उन्हें यह भ्रम है कि साहित्य अकादमी उनकी निजी संस्था है? लेखकों को पशुवत और घास चरने वाला समझने की उनकी मानसिकता की मैं भर्त्सना करता हूँ । मैंने उन्हें एक ज़वाबी ई-मेल के माध्यम से इस बात के लिए माफ़ी मांगने को कहा है, लेकिन अब तक कोई ज़वाब नहीं मिला है ।
यह पूरी बातचीत- 13.07.2017 को फ़ोन नं.- 01123073312 पर 11:39 (पूर्वा.) से अगले 5 मिनट 31 सकेंड तक हुई है । इस दौरान इस फ़ोन पर हुए संवाद को मेरी रखी गयी बातों का प्रमाण समझा जा सकता है । यदि अतिथि संपादक मेरे आरोपों से इंकार करते हैं, अथवा बातों को तोड़-मरोड़ कर या भ्रामक तरीके से रखते हैं तो, मुझे इसकी सूचना दी जाए, इसके बाद अपनी बातों को प्रामाणित करने का दायित्व मेरे ऊपर होगा ।
·  आपसे अनुरोध है कि इस अहंकारी और अमर्यादित बर्ताव के लिए अतिथि संपादक रणजीत साहा को नोटिस जारी करें और उनसे इस बर्ताव के लिए लिखित में (और गंभीरतापूर्वक) माफ़ी मांगने के लिए कहें । साथ ही भविष्य में लेखकों के साथ वे ऐसा बर्ताव नहीं करेंगे, इस आशय का संकल्प-पत्र भी उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कहें । यदि अतिथि संपादक ऐसा करने से इंक़ार करते हैं, तो साहित्य अकादमी का यह दायित्व है कि वह एक लेखक से इस तरह के अहंकारी और अमर्यादित व्यवहार करने वाले अतिथि संपादक को पदमुक्त कर दे । यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य अकादमी पदाधिकारियों की निजी संस्था नहीं है, बल्कि भाषा और साहित्य के संवर्धन को समर्पित व लेखकों और देश की जनता के प्रति प्रतिबद्ध संस्था है । इस प्रतिबद्धता से खिलवाड़ की छूट किसी को नहीं दी जा सकती है ।
·   आपसे यह भी अनुरोध है कि पत्रिका के संपादकीय कार्यालय में दृढ़तापूर्वक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करें । इस दौर में ई-मेल से प्राप्त रचनाओं की उपेक्षा दुखद है । यह तय करें कि प्राप्त रचनाओं की प्रिंट कॉपी निकाल कर उसे सुरक्षित रख लिया जाए, और इसकी सूचना लेखकों को तत्काल दे दी जाए । रचनाएँ डाक से आएँ अथवा ई-मेल से, इनकी स्वीकृति या अस्वीकृति की सूचनाओं के लिए लेखकों को अत्यधिक प्रतीक्षा नहीं करायी जाए, या उन्हें फ़ोन करने के लिए बाध्य नहीं किया जाए । उन्हें तय अवधि में ज़वाब भेज दिया जाए । ई-मेल से ज़वाब भेजने पर तो समय और धन का व्यय भी न्यूनतम होता है ।
·  इस प्रसंग से मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस पत्रिका का संपादकीय कार्यालय बिना रचनाएँ पढ़े, और इनके गुण दोषों पर विचार किये बिना भी, मन ही मन निर्णय ले लेता है । यह दुर्भाग्यपूर्ण   है । यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अनिवार्यतः सभी रचनाओं को पढ़ा जाए, और एकाधिक लोगों की एक योग्य समीक्षा समिति इनके गुणों और दोषों पर विचार व टिप्पणी करते हुए, यह निर्णय ले कि रचना प्रकाशन योग्य है, अथवा नहीं । इसके अभाव में दुर्भावनापूर्ण पक्षपात की संभावना बनी रहेगी । इस पारदर्शी व्यवस्था के होने से लेखकों को अपनी रचनाओं के गुणों और दोषों का पता भी चल सकेगा और यह साहित्य की बेहतरी में मददगार ही होगा । मेरे खयाल से यह साहित्य अकादमी का एक उद्देश्य भी है ।

मैं आशा करता हूँ कि इस पत्र में मैंने जिन मुद्दों को उठाया है, उन पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए ठोस निर्णय लिया जाएगा । मैं यह भी आशा करता हूँ, कि मेरे साथ हुए अपमानजनक और अभद्र व्यवहार के प्रसंग में न्याय सुनिश्चित करने के लिए मुझे न्यायालयों तक नहीं जाना पड़ेगा ।
आपको लिखा गया मेरा यह पत्र सार्वजनिक रहेगा । मैं चाहूँगा कि देश की जनता, लेखक और लेखक संगठनों तक इस प्रसंग की जानकारी पहुँचे । वे भी अपने मत रखें और जरूरी हस्तक्षेप करें । साहित्य अकादमी इस पत्र पर किस तरह की प्रतिक्रिया देता है, अथवा क्या निर्णय करता है, यह भी सभी जानें । इस बात की निगरानी बहुत ज़रूरी है कि जनता के पैसों से चलने वाला साहित्य अकादमी सही दिशा में जा रहा है अथवा नहीं । धन्यवाद ।

कुमार सौरभ
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय
प्रो. सी.आर. राव रोड
हैदराबाद-500046                                                              

(14.07.2017 / हैदराबाद)