यह खबर जनसत्ता(12 अगस्त 2012) के मुखपृष्ठ पर छपी है. 8 अगस्त को पश्चिम बंगाल के बेलपहाड़ी में मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी एक जनसभा को संबोधित करने आयी थीं. शिलादित्य चौधरी नामक एक युवक ने उठकर
उनसे सवाल पूछने की गुस्ताख़ी कर दी. सवाल था-किसान मर रहे हैं ; ऐसे में राज्य सरकार उनके लिए क्या कर रही है? आगे उसने टिपण्णी भी जोड़ दी कि सिर्फ झूठे वादे करना
पर्याप्त नहीं है. मुख्यमंत्री को युवक का यह सवाल पूछना पसंद नहीं आया. गुस्से
में आकार सरेआम उन्होंने उस युवक को माओवादी कहा और उसे गिरफ्तार करने का निर्देश
दिया. पुलिस ने ग़ैरजमानती धारा लगाकर उसे अदालत में पेश किया. अदालत ने उसे चौदह
दिनों के पुलिस हिरासत में भेज दिया. रेलमंत्री और ममता के ख़ास मुकुल राय ने ममता
के बचाव की कोशिश की है. उनके अनुसार वह युवक सवाल करने के बजाय धमकी भरे अंदाज़
में चिल्ला रहा था. मुख्यमंत्री के जेड प्लस सुरक्षा बेड़े में उसने सेंध लगाई
थी.* मुकुल की यह बात मान भी ली जाय तो 19 मई के सीएनएन.-आईबीएन के उस टीवी शो के लिए क्या सफाई दी
जा सकती है; जिसका
सीधा प्रसारण लाखों लोगों ने देखा था. एक छात्रा ने ममता से महिलाओं की लचर
सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल पूछा था. आवेश में ममता ने उसे माओवादी कहा और
कार्यक्रम छोड़ कर चली गयी थीं.** ममता से जुड़े कार्टून विवाद का ज़िक्र भी इस क्रम
में होना चाहिए. जाधवपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर अम्बिकेश महापात्रा ने ममता
विरोधी कुछ कार्टून ईमेल के माध्यम से अपने मित्रो से शेयर किया था. गत अप्रैल
महीने में तृणमूल कांग्रेस समर्थकों ने उन्हें बुरी तरह पीटा. इसे पर्याप्त नहीं
समझा गया तो बाद में पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर ले गयी.***
दूसरी खबर उत्तर प्रदेश
से है. यह 12 अगस्त
2012 के दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण के पृष्ठ 11 पर छपी है. चुनाव प्रचार के दौरान वर्तमान मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव ने दसवीं और बारहवीं पास करने वाले छात्रों को टेबलेट और लैपटॉप देने
का वादा किया था. लेकिन उनकी ताजपोशी के लगभग चार महीने बीत जाने के बावज़ूद भी
उनका यह वादा पूरा नहीं हो सका है. ऐसे में दसवीं पास करने वाले एक ही गाँव के दो
छात्रों धर्मेन्द्र यादव और मित्रसेन यादव को किसी श्रोत से अखिलेश का मोबाइल नंबर
मिल गया. उत्साह से लवरेज इन छात्रों ने सीधे मुख्यमंत्री को फोन लगा दिया.
मुख्यमंत्री ने फोन उठाया तो पूछा की ये दोनों चीजें कब तक मिलेंगी ? संभवतः फोन एकाधिक बार किया गया. इन छात्रों को मुख्यमंत्री
से कोई संतोषप्रद ज़वाब या फोन कहाँ करना है सम्बन्धी सुझाव भले ही नहीं मिला हो; लेकिन एसटीएफ की कस्टडी ज़रूर मिल गयी. एसटीएफ की एक टीम
संत कबीर नगर जिले के इनके गाँव चिलौना पहुँच गयी. अपराधियों को पकड़ने के अंदाज़
में इन दोनों को इनके घरों से उठा लिया गया. मुख्यमंत्री को सीधे फोन करना उनकी
सुरक्षा में सेंध माना गया. पंद्रह घंटे की पूछताछ व दुबारा फोन न करने की हिदायत
के बाद ही दोनों को छोड़ा गया.****
ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं; जिन्हें मीडिया कवरेज मिला है. ऐसी ही अन्य सभी घटनाओं के
साथ ऐसा ही नहीं होता है.
रामलीला मैदान में 9 अगस्त की सुबह से बाबा रामदेव डट गए थे. मीडिया को इस बात
की परवाह कैसे हो सकती थी की जनता कहीं और भी आंदोलित हो सकती है. हिन्दू जैसे
कुछेक समाचार पत्रों को छोड़कर यह खबर कहीं नहीं दिखी. 9 अगस्त को आइसा और इनौस से जुड़े अठारह राज्यों से आए हजारों
छात्रों-युवाओं ने पूर्व निर्धारित संसद मार्च को अंज़ाम देने की कोशिश की. जंतर
मंतर से निकल कर संसद मार्ग पर बढ़ रहे युवाओं की संख्या इतनी ज्यादा थी की संसद
मार्ग कुछ घंटों केलिए पूरी तरह से जाम हो गया था. इन लोगों की तीन मांगें थी.
पहली की सामान शिक्षा को हमारा अधिकार बनाया जाय. दूसरी सम्मान के साथ सभी केलिए
रोजगार सुनिश्चित किया जाय. तीसरी मांग थी भ्रष्टाचार और कोरपोरेट लूट को रोकने
केलिए कारगर कदम उठाये जाय. यह जत्था अहिंसक ढंग से विरोध प्रदर्शन करते हुए संसद
की ओर बढ़ रहा था. दो बेरिकेड इन युवाओं ने पार कर लिया. जोश भरे नारे लगाये जा
रहे थे. तभी दिल्ली पुलिस और एसएसबी के जवानों ने बिना किसी चेतावनी के ताबड़तोड़
लाठी चार्ज शुरू कर दिया. इसमें कई युवा गंभीर रूप से चोटिल हुए; जिनमें कई छात्राएं भी शामिल थीं.***** क्या देश भर से आए
इन छात्रों-नौज़बनों की इन जायज़ मांगों पर सरकार का कोई नुमाइंदा आकर उनकी मांगों
पर गंभीरता पूर्वक विचार करने का आश्वासन नहीं दे सकता था ? हक़ मांगने वालों से क्या सिर्फ सरकार की लाठियाँ ही बात कर
सकती है ?
अन्ना आन्दोलन के क्रम
में मंत्रियों,सांसदों,विधायकों के घर के बाहर धरना पर बैठे लोगों को भी लाठियां
ही मिली थी. अपवाद ही कहीं कोई नेता घर से बहार निकला हो और लोगों से बात करने की
दिलेरी दिखाई हो.
यह जनचेतना और
जनआकांक्षाओं की हत्यायों का दौर है. स्थितियां ऐसी निर्मित की जा रही हैं कि पढ़ाई;नौकरी व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त किसी को कुछ
और नहीं सूझे. कहीं अपवादस्वरूप जनचेतना या जनाकांक्षा उभर कर सामने आए तो उसे
कुचल देना; सरकारी
नीति का अहम हिस्सा बन चुका है. कोई नेता या नौकरशाह जनता की जरुरत जानने इस आशंका
से बाहर नहीं निकलता कि ऐसे तो रोज-रोज कई मांगें उठने लगेंगी. शासन और प्रशासन के
लोगों ने सार्वजनिक जिम्मेदारी कंधे पर लेने के बावज़ूद सार्वजानिक जीवन जीना छोड़
देने का अपराध किया है. ये दोनों कुनबे ऐसे लोगों के द्वारा संचालित हो रहे हैं; जो नितांत रूप से व्यक्तिगत,स्वार्थी और अहंकारी हैं. आश्चर्यजनक रूप से जनतंत्र उनकी
इन प्रवृतियों को फलने-फूलने की सुविधाएँ उपलब्ध करा रहा है. जनता और जनता के हित
के मुद्दे सिर्फ़ चुनावी विषय बन कर रह गए हैं. बाद में संसद सर्वोच्च होता है.
इतना कि जनता कि आवाज़ वहां तक पहुँचे तो उसकी मर्यादा भंग होती है. हक़ का एक
सवाल इसकी इयत्ता का संकट खड़ा कर देता है. एक आम आदमी के द्वारा की गयी आलोचना पर
यह सर्वोच्च संस्था विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव पर तल्लीनता से बहस करता है. हम
इस ख़ुशफ़हमी में नहीं जी सकते कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं.
हमारे यहाँ लोकतंत्र की सीढ़ियाँ चढ़ सत्ता तक पहुँची ताक़तें अपना पूरा ज़ोर
लोकतान्त्रिक संस्कृति को बर्बाद करने में लगा रही हैं. प्रशासन इसमें हमेशा से
सहयोग करता रहा है. लोकतान्त्रिक मूल्यों की लगातार हत्याएं हो रही हैं. बचे
मूल्यों की हत्या की ख़तरनाक साज़िशें रची जा रही है. हत्यारे निश्चिन्त हैं कि कोई
कानून कोई जनांदोलन उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
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