Friday, August 10, 2012

आत्मसाक्षी संकल्प

गुरु जी ने नवागंतुक विद्यार्थियों को एक-एक सुग्गा दिया. सुग्गे पिंजरे में बंद थे.गुरु जी ने कहा- तुम लोग आश्रम से बहार जाओ. सुग्गे को ऐसी स्थिति में मुक्त कर देना जब ऐसा करते हुए कोई न देख रहा हो. इस कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न कर आओ ; तब अध्ययन-अध्यापन का कार्य शुरू होगा.
एक विद्यार्थी को छोड़कर बाँकी एक-आध-दो दिनों में आश्रम लौट आये. सबने गुरु जी से उस क्षण का ब्यौरा सुनाया; जब उसने सुग्गे को मुक्त किया था. कइयों ने कहा- गुरु जी ऐसा एकांत बहुत मुश्किल से मिल सका; तभी तो एक से ज्यादा दिन लग गये. जो विद्यार्थी नहीं लौटा था; महीनों नहीं लौटा. आश्रम में पढ़ने पढ़ाने का कार्य शुरू हो गया. लौट कर नहीं आने वाले विद्यार्थी को प्रायः भुला ही दिया गया.
वह भादो की एक सुबह थी . मेघ छाये हुए थे. ठंडी हवा बह रही थी. हल्की बूंदा-बाँदी हो रही थी. गुरु जी की अगुआई में सारे विद्यार्थी आश्रम की खेत में काम कर रहे थे. कुछ घंटे बीते होंगे. एक फटेहाल किशोर उन्हीं की और बढ़ा आ रहा था. केश बेतरतीब ढंग से कंधे तक झूल रहे थे. उसके हाथ में एक पिंजरा था. पिंजरे में कोई पंछी. जिन विद्यार्थियों का ध्यान उधर गया; उन्होंने सोचा; कोई बहेलिया होगा. गुरु जी का ध्यान भी उस ओर गया. जैसे अचानक कुछ याद आ गया हो. विद्यार्थियों से कहा- तुम लोग काम में जुटे रहना; मैं अभी आया. गुरु जी उसी ओर लपके जिस ओर से वह किशोर चला आ रहा था. पास आते ही वह किशोर गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ा. आंसू की बुँदे गुरू जी ने अपने पैरों पर महसूस की. बाजू से पकड़ कर उसे उठाया; पहचाना और छाती से लगा लिया. किशोर ने रुंधे गले से कहा- गुरु जी मैं सुग्गा को मुक्त नहीं कर सका ! अध्ययन के सौभग्य से वंचित ही रहूँगा अब !! आंसू थम नहीं रहे थे. गुरु जी ने स्नेह से कंधे थपथपाए . माथे पर हाथ फेरा. बोले- बहुत थके मालूम पड़ते हो. अच्छे से नहा-धो लो. भोजन का समय होने वाला है. खाकर आराम करना. शाम में हम बातें करेंगे.
शाम में बूंदा-बाँदी रुक चुकी थी. लेकिन मेघ अब भी तैर रहे थे. ठंडी हवा अब भी बह रही थी. मिट्टी की गंध हवा में घुल मिल गयी थी. गुरु जी बरगद के नीचे बने चबूतरे पर बैठे थे. विद्यार्थी नीचे दरी बिछाकर. वह विद्यार्थी जो आज आश्रम लौटा था; सबसे पीछे गुमसुम बैठा था. गुरु जी ने उसे बुलाया. स्नेह से अपने पास चबूतरे पर बैठाया. बोले- अब सुनाओ वत्स; तुम सुग्गा को क्यों नहीं मुक्त कर सके ?!!
विद्यार्थी के चेहरे पर उदासी आसानी से पढ़ी जा सकती थी. बाँकी विद्यार्थियों की ऑंखें उसी के चेहरे पर टिकी थी. स्तब्धता थी. थोड़ी ही देर में विद्यार्थी के चेहरे पर कई भाव आये और गये. उसने बोलना शुरू किया- गुरु जी; जब आपने पिंजरे में बंद सुग्गे; हमें सौंपे थे ; तब मुझे लगा था की आश्रम से बाहर जाते ही इसे मुक्त करने के लिए एकांत तलाश लूँगा और जल्दी ही लौट आऊंगा. लेकिन दिन का समय था. बहुत सारे पथिक आ जा रहे थे. ऐसे में मेरा सोचा संभव नहीं हो सका.
फिर रात हुई. अँधेरे में मैं चिड़िया को छोड़ने चला. छोड़ने ही वाला था कि लगा टिमटिमाते हुए तारे जैसे आसमान की ऑंखें हों ! मैंने तय किया कि ऐसे स्थान की खोज करूँगा जहाँ सूर्य चाँद और तारों की किरणे भी नहीं पहुँच पाती हों. कई दिनों तक भटकता रहा. फिर एक वैसी जगह मिल ही गयी. अनुकूल क्षण समझ कर जैसे ही सुग्गा को मुक्त करने लगा कि बचपन में दादा जी की सिखायी एक बात याद आ गयी. यह कि ईश्वर सब जगह होते हैं. वे हमें देख रहे होते हैं. इस विचार के आते ही मैं परेशान हो गया और सुग्गा को मुक्त नहीं कर सका. मेरे कई दिन अंतर्द्वंद्व में बीते. मन में तर्क वितर्क चलता रहा. इस तरह एक दिन मेरे दिमाग में कई तार्किक बातें आयीं. यह कि चाँद-सूरज-तारे; ये सब तो खगोलीय पिंड हैं; ये भला देखने कैसे लगेंगे ! और ईश्वर को मैं ने तो कभी देखा ही नहीं. ईश्वर का अस्तित्व भी है; इसका कोई प्रमाण तो मुझे मिला नहीं. मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि ईश्वर अज्ञानी मनुष्यों की कपोल कल्पना मात्र है. जैसे मेरा अंतर्द्वंद्व खत्म हो गया हो. खुश होकर एक रात; रात इसलिए कि कोई अन्य प्राणी न देख सके; मैं एक निर्जन में उसे मुक्त करने चला. मुक्त करने ही वाला था कि मुझे पहली बार खुद का ध्यान आया. मैंने पहली बार सोचा कोई नहीं देख रहा हो तब भी मैं तो देख रहा हूँ. अँधेरे में भी थोडा-थोडा. ऑंखें बंद कर लूँ तो भी सब महसूस तो करूँगा ही.मैं हर किसी की नजरों से इस घटना को छुपा लूँ लेकिन खुद से कैसे !!
मैं समझ गया कि ऐसे अपने सुग्गा को कभी मुक्त नहीं कर सकूँगा. मैंने अब इस सम्बन्ध में सोचना छोड़ दिया. निराशा में निरुद्देश्य भटकता रहा. मन का चोर कहता कि सुग्गा को छोड़ दूं और खुद के देखने की बात छुपा लूँ तो शायद गुरु जी का ध्यान न जाए फिर मैं विद्याध्ययन शुरू कर सकूँगा. लेकिन अपने ही अनुभव को झूठ में बदलने कि हिम्मत नहीं हुई. एक झूठ मेरे मन में चुभता रहता. मन अशांत रहता. मैंने सोचा अब अध्यन तो कर नहीं सकूँगा; घर जाकर अपनी अयोग्यता कि बात किस मुँह कहूँगा. विचलित मन मुझे भटकाता रहा. कंद मूल मेरे आहार बने. कहीं कोई बस्ती मिलती तो लोग भिक्षुक समझ कर कुछ अन्न दे देते. सुग्गा के जीवित रहने का भी यही आधार था. लेकिन एक दिन मन में आया कि यूँ भागते रहना गलत है. मुझे अपनी अयोग्यता; अपना सच स्वीकार लेना चाहिए. मैं खुद से छल नहीं कर सकता. मैंने तय किया कि आपके पास लौटूंगा और सब सच बताकर; आपसे घर जाने की आज्ञा माँगूंगा. इमानदारी से कुछ काम करके गुजारे लायक अर्जित कर ही लूँगा. अब मुझे आदेश दें गुरुवर. रुंधे हुए गले से निकले स्वर में भी दृढ़ता हो सकती है; यह उसके संवाद बोलने के ढंग से पता चल रहा था. गुरु जी कुछ देर मौन रहे. फिर उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा- वत्स अपना पिंजरा ले आओ. सुग्गा ने तुम्हारी अंतर्द्वंद्व के कारण व्यर्थ ही कष्ट सहा है; गुरु जी मुस्कुराये. लाओ उसे मुक्त किया जाये ताकि तुम विद्याध्ययन शुरू कर सको. विद्यार्थी का चेहरा ख़ुशी से दमक उठा. दौर कर वह पिंजरा ले आया. गुरु जी ने पिंजरा अपने हाथ में ले लिया. कहने लगे- वत्स जो कार्य मैंने तुम सबको सौंपा था; उसे केवल तुम ने ही सफलता पूर्वक पूरा किया है. इस कार्य के पीछे का उद्देश्य ही तुम सबके भीतर के आत्मसाक्षी को जगाना था. तुम इस तरह न आते तो यही सब मैं दीक्षांत समारोह में समझाता. आशा करता हूँ सभी विद्यार्थियों को तुमसे प्रेरणा मिली होगी. कहते हुए गुरु जी ने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया. सुग्गा ने उड़ान भरी. विद्यार्थियों के सिर के ऊपर से दूर क्षितिज की ओर. सब सिर उठाकर तब तक ताकते रहे जब तक वह सुग्गा ओझल नहीं हो गया !!
किसी बाल पत्रिका में यह कहानी पढ़ी थी. जितना याद रहा उसे कल्पना का पुट देकर अपने ढंग से लिख दिया है. इस कहानी की मेरे मन पर गहरी छाप है !!
आत्मसाक्षी  रेणु की एक कहानी का शीर्षक है. उनकी यह कहानी मेरे दिल में बसी हुई है. इस कहानी पर मामूली सी टिप्पणी बेमानी होगी. कोशिश करूँगा कि यह कहानी ब्लॉग पर लगा सकूँ.
अंत में विनम्रतापूर्वक यह कि ब्लॉग लिखने की शुरुआत कर रहा हूँ. आप सबकी प्रतिक्रिया;सबका सुझाव मेरे लिए बेहद ज़रूरी है. इस आत्मसाक्षी संकल्प में कभी अहंकार की बू आये या मैं भटकता हुआ दिखूँ तो मेरे मित्र मुझे निस्संकोच टोकेंगे/ फटकारेंगे उनसे इतनी उम्मीद तो कर ही सकता हूँ.

2 comments:

  1. ek nayi ummeed jagi hai man me ...ishwar tumhari sadaiw raksha kare aur tumhari himmat bane.shubhkaamnayen.ab nayi aur rochak jaankariyaon ke sath sath gyan bhi badhta rahega aisi aasha karti hun.badhaiyon ke sath....
    pallo didi.

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  2. बहुत शुक्रिया पल्लो दी. अपनी प्रतिक्रिया देती रहना; कि सुधार करने की कोशिश कर सकूँ.

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