यह 23.02.2013 को लिखा गया एक डायरीनुमा लेख है । इसमें पर्याप्त विषयांतर है, लेकिन चिंता के केन्द्र में हिन्दी विभागों की शिक्षा प्रणाली ही है । उन
दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से एम.फिल. कर रहा था । तब
कोर्स-वर्क की कई कक्षाएँ प्रो. अपूर्वानंद के साथ निर्धारित थी । वे बहुत नाप-तोल
कर बोलते थे और ऐसी ही अपेक्षा शोध छात्रों से करते थे । इसलिए उन्हें कक्षा में
सुनना और उनकी कक्षा में बोलना दोनों पर्याप्त मानसिक श्रम का विषय हुआ करता था ।
लेकिन यह श्रम इस रूप में सार्थक था कि कुछ विचारोत्तेजक बातें होती थी, कुछ सीखने को मिल जाता था । बेहतर अभिव्यक्ति के लिए तथ्यों को छोड़कर मूल
डायरीनुमा लेख में थोड़े-बहुत ज़ोड़-घटाव की छूट ली गयी है ।
18,19 और 20 फरवरी 2013 (संभवतः) की तीन लगातार कक्षाओं में प्रो. अपूर्वानंद ने कुछ ऐसी बातों पर बल दिया जो उलझन पैदा करने वाली हैं । कक्षा में किसी सेमिनार पत्र का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आप लोगों के द्वारा की जाने वाली साहित्य की आलोचना से ‘साहित्यिक आलोचना’ ग़ायब रहती है । उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी, जब कोई पर्चा प्रस्तुत करें तो यह ध्यान रखें कि उनकी आलोचना साहित्यिक हो । इसी क्रम में शोधकार्यों के सम्बंध में भी उन्होंने टिप्पणियाँ की की । उन्होंने कहा कि हिन्दी के शोध छात्र अपने विषय का चयन कुछ इस तरह से करते हैं - कृति का समाजशास्त्रीय अध्ययन, मनोवैज्ञानिक अध्ययन, दार्शनिक विवेचन, ऐतिहासिक विवेचन, इत्यादि - दरअसल ऐसे चयन ही अनुपयुक्त हैं । उन्होंने आगे कहा कि दरअसल समाजशास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान अथवा दर्शनशास्त्र जैसे विषयों में आप लोगों का प्रशिक्षण नहीं है । ऐसे में इन अनुशासनों के टूल्स के आधार पर आप सही आलोचना कर सकने की स्थिति में नहीं होते हैं । शोध कार्यों को लेकर उनकी टिप्पणी से असहमत होना कठिन है । असल उलझन 'साहित्यिक आलोचना' को लेकर है । अपूर्वानंद जी ने अपने गंभीर स्वर में यह एकाधिक बार बता रखा है कि सवालों का वे स्वागत करते हैं - फिर भी कई बार किसी विषय से सम्बंधित मन की सारी उलझने उन तक प्रेषित करना कठिन हो जाता है । यह उनके व्यक्तित्व की और हम विद्यार्थियों के व्यक्तित्व की सम्मिलित समस्या है । इन कक्षाओं में जो ‘साहित्यिक आलोचना’ है उसको लेकर हमारी समझ ठीक से नहीं बन सकी । यदि साहित्यिक आलोचना नाम की कोई चीज होती है तो अपूर्वानंद जी की जानकारी में शायद यह बात नहीं है कि इस मामले में भी हमारा प्रशिक्षण सिफर है । बात औपचारिक जानकारी की की जाए तो समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास और मनोविज्ञान जैसे विषय भी किसी न किसी रूप में हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा रहे हैं । हमें स्वीकार करना चाहिए कि अपनी आलोचना अपने पर्चे और अपना शोधप्रबंध तैयार करते हुए दरअसल हम पहले से उपलब्ध आलोचना, पर्चे और शोधप्रबंध की शैली का अनुसरण करते हैं । मेरी समझ है कि उपलब्ध पूर्ववर्ती आलोचनाओं में, यदि वे सिर्फ रचना की भाषा, गठन और अभिव्यक्ति की खूबसूरती पर केन्द्रित न हो तो विभिन्न अनुशासनों के ज्ञान की थोड़ी बहुत मिलावट होती ही है । सैद्धांतिक टूल्स, इस्तेमाल न भी किये जाते हों तो भी इनमें इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन और राजनीतिशास्त्र जैसे विषयों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंध रखने वाली कुछ शब्दावलियाँ और व्याख्यायों होती ही हैं। अपूर्वानंद जी ने किसका निषेध करना है यह तो बता दिया लेकिन क्या करना है उसको लेकर उलझन में डाल दिया । मुझे आशंका है कि आगे से ‘साहित्यिक आलोचना’ करने के चक्कर में कक्षा के विद्यार्थियों का अब तक का अर्जित ज्ञान दोनों हाथ न खड़े कर दे । कम से कम मेरा ज्ञान तो आत्मसमर्पण कर चुका है । यह सवाल मुझे उलझाता जा रहा है कि साहित्यिक आलोचना माने क्या ? इस विषय में अपूर्वानंद कहीं कोई लेख लिखें, तो शायद कुछ सुलझे ।
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मैं इस उलझन में पड़ा सुलझने का प्रयास कर रहा हूँ । जो
साहित्यिक आलोचना है, वह अब तक हमारी पहुँच से बाहर क्यों है? हम ने
एम.ए. के दिनों में जिन आलोचकों को बक़ायदा अपने कोर्स में पढ़ा है, क्या उनमें से किसी की आलोचना साहित्यिक नहीं है, यदि है तो यकीन मानिए हम सब उन्हीं पूर्वजों से प्रेरणा लेकर लिख रहे हैं
। बेहतर होगा कि साहित्यिक आलोचना को लेकर एक कार्यशाला का आयोजन किया जाए । यह
समझना बहुत ज़रूरी हो गया है कि हम क्या करें कि आलोचना, पर्चे और शोध में साहित्य के दायरे से बाहर नहीं जा पाएँ । लेकिन ऐसी
कार्यशालाओं का आयोजन क्यों होने लगा । हिन्दी विभागों में ऐसी कार्यशालाओं का
आयोजन नहीं होता । हिन्दी विभागों ने बदलते समय में साहित्य के शिक्षण, प्रशिक्षण, शोध के स्वरूप, शोध प्रश्न, नयी चुनौतियाँ और आलोचना के उत्तर
दायित्व जैसे विषयों पर विचार-विमर्श को तिलांजली दे दी है । साहित्य के
विद्यार्थियों को साहित्य की उपादेयता तक पर विचार करने का अवसर हिन्दी विभाग
उपलब्ध नहीं कराता । ऐसे में हमारा उपहास करना या हमारी वैज्ञानिक समझ पर सवाल उठाना
किसी के लिए आसान है, उनके लिए भी जो हमारे शिक्षक हैं
और जिनके ऊपर हमारे निर्माण का दायित्व है । वे चाहें तो कुछ अपरिचित और उलझाने
वाले जुमले हमारी तरफ फेंक दें, और अपने दूसरे कामों
में लग जाएँ । जिन कक्षाओं में अगंभीरता के उपहास के डर से विद्यार्थी मन की एक-एक
गाँठे खोल देने से कतराने लगें, उन कक्षाओं के शिक्षक
के लिए ठहर कर सोचने की ज़रूरत नहीं है क्या? उन्हें यह
ख़ुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए कि ऐसा उनके बौद्धिक व्यक्तित्व के वज़न की वज़ह से
होता है, यह जिस वज़ह से होता है उसे बौद्धिक आतंक कहना
अधिक उचित होगा । मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसे शिक्षक मिले हों जो कक्षा के विद्यार्थियों
से फीडबैक लेने में यकीन करते हों ।
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विश्वविद्यालयों में अनवरत शोधकार्य हो रहे हैं । इन
शोधकार्यों की ख़राब गुणवत्ता का रोना भी हमारे शिक्षक रोते रहते हैं । ऐसे में
अपना सिर धुन लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता । जो लोग शोध प्रस्ताव को
स्वीकृत करते हैं, जिनके निर्देशन में शोध कार्य हो रहे हैं, जो
लोग शोधकार्यों के अंतिम रूप को स्वीकृति देते हैं, उनकी
लाचारी की कोई ठोस वज़ह हो सकती है क्या, सिवाय इसके कि
विभाग के शिक्षक अगंभीर हों और विद्यार्थी कामचोर? इन
दोनों ही स्थितियों में जबतक याराना बना रहेगा, किसी
बेहतर शोध की उम्मीद बेमानी है । विद्यार्थी के मानसिक स्तर का बहाना करना
हास्यास्पद है । विद्यार्थी इन्हीं विभागों के पाठ्यक्रमों को सफलता पूर्वक पूरा करके, कठिन प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अपने कई साथियों को पीछे छोड़कर यहाँ तक
पहुँचते हैं । प्रवेश परीक्षा और अन्य परीक्षाओं में कोई धांधली नहीं होती हो तो जाहिर है कि प्रवेश परीक्षाओं के स्वरूप और पाठ्यक्रमों पर सवाल
उठेंगे । इन दोनों ही स्थितियों में विद्यार्थियों को कोसते रहने वाले हिन्दी
विभागों के शिक्षकों को अपने आत्मालोचन के लिए भी वक्त निकालना चाहिए ।
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हिन्दी विभागों को अब मान लेना चाहिए कि वह ज्ञान के सृजन के केन्द्र नहीं रह गए हैं । अन्य विषयों के विभागों के विषय में मैं बहुत प्रामाणिक
तरीके से नहीं लिख सकता, लेकिन जितनी जो पुष्ट-अपुष्ट जानकारी है , उस आधार पर यह भी मान लेना चाहिए कि विश्वविद्यालय औपचारिक किताबी ज्ञान
और डिग्री देने के ‘प्रतिष्ठान’ मात्र बनकर रह गये हैं । हिन्दी विभागों के विषय में तो दृढ़तापूर्वक कहा
जा सकता है कि वे अपने चुनिंदा अनुगामी विद्यार्थियों के लिए तदर्थ प्राध्यापक का रोजगार भर
सृजित कर सकते हैं । इन्हीं नियुक्तियों के गणित में सारा हिन्दी विभाग उलझा हुआ
रहता है । मेरे एम.फिल. साक्षात्कार का अनुभव रहा है कि शोध कक्षाओं में प्रवेश के
लिए लिये जाने वाले साक्षात्कारों में शिक्षकों के पसंदीदा सवाल- तुलसी, सूर, कबीर, बिहारी, घनानंद, से लेकर भारतेन्दु-निराला-नागार्जुन और
छायावाद प्रगतिवाद जैसे बिन्दुओं के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं । यह पूछना
अक्सर आवश्यक नहीं समझा जाता कि शोध कार्य में तुम्हारी अभिरूचि क्यों है? अपने शोध से तुम क्या योगदान दे सकोगे? या अब
तक उपलब्ध शोध कार्यों से तुम्हारा शोध कार्य अलग कैसे होगा? इत्यादि । इसी तरह तदर्थ नियुक्तियों में यह सवाल पूछे जाने वाले सवाल- रस
निष्पत्ति, काव्य हेतु, अज्ञेय
और महादेवी की कृतियों के नाम और राजभाषा सम्बंधी प्रश्नों तक सिमट कर रह जाते हैं
। इस तरह के सवाल पूछने की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती कि हिन्दी में बेहतर
शिक्षण और नए तरह के शैक्षणिक प्रयोगों के विषय में आपकी राय क्या है?
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लोकतंत्र ज्यों-ज्यों उम्र में बड़ा होता जा रहा है, जनता के पैसों
से चलने वाली जनता के प्रति जिम्मेदार संस्थाओं में लोकतंत्र का आयतन उतना ही
सिकुड़ता चला जा रहा है । अपने ही विभाग के जिम्मेदार व्यक्तियों तक अपनी
प्रतिक्रिया पहुँचाना, ख़तरे से खाली नहीं रह गया है । कुछ ही शिक्षक अपवाद हैं, जिनसे बची उम्मीद भी
धुँधली होती जा रही है । 25 नवंबर 2012 को हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित रामविलास
शर्मा पर केन्दित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर गोपेशवर सिंह ने
किसी प्रसंग में सकारात्मक रूप से प्रसन्न मुद्रा में कहा था कि विद्यार्थी उनसे
रोजगार में मदद चाहते हैं ! मैं इसे अपने संदर्भ
में खारिज करता हूँ । मुझे इस तरह की किसी कृपा की ज़रूरत नहीं है । मुझे अवसर
मिले तो उन्हें कहूँगा कि महोदय मदद ही करनी है तो इस तरह करिए कि व्यवस्था को
पारदर्शी बनाइए । लोकतांत्रिकता लाइए । हिन्दी विभाग को ज्ञान के सृजन के मुक्त
केन्द्र के रूप में विकसित होने दीजिए । चापलूस और ग़ैरइमानदार विद्यार्थियों के
बजाय सही विज़न वाले मेहनती, संभावनाशील, ईमानदार और सवाभिमानी विद्यार्थियों के पक्ष में खड़े होइए । मुझमें यदि अपेक्षित
गुणों का अभाव रहा तो मैं अपने लिए रोजगार के कोई अन्य विकल्प तलाश लूँगा ।
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मैं विभाग का एक शोधार्थी हूँ । अवसर मिले तो अध्यापन कार्य को
अपना पेशा बनाना चाहता हूं । अपने विभाग और अपने अध्यापकों के प्रति आलोचनात्मक
रवैया रखने का भी यही कारण है । मेरी जानकारी और विश्वास में, सिर्फ हंगामा
खड़ा करने का शौक, मुझे बचपन से ही नहीं रहा है । दरअसल
शिक्षकों तक सीधे पहुँचने वाले किसी फीडबैक चैनल की व्यवस्था नहीं है और न ही इसे
निर्मित करने में किन्हीं की रूचि है, इसलिए कभी
सहपाठियों से चर्चा करता हूँ, कभी अन्य माध्यमों का उपयोग करता हूँ, तो कभी आलोक धन्वा की कविता की बिनभागी लड़कियों की तरह डायरियों में
भागता हूँ । एक विद्यार्थी होने के नाते जब मैं अपने समय की अकादमिक विसंगतियों पर
सवाल उठा रहा होता हूँ, तब ख़ुद को भविष्य में एक अच्छे
शिक्षक के बतौर निर्मित करने की इच्छा और इसका संकल्प एक बड़े कारक की भूमिका निभा
रहा होता है ।