Thursday, August 3, 2017

नकली नायकों के भरोसे लोकतंत्र

बिहार के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम और उसके बाद की प्रतिक्रियायों के बीच जिन बातों को अभिव्यक्त करने की जरूरत महसूस हो रही थी, उसे इस लेख में लिखने की कोशिश की है । इसे लिखने में समय और श्रम दोनों अपेक्षाकृत अधिक लगा है । चाहकर भी इस लेख को अधिक विस्तृत होने से बचा नहीं सका । 
प्रतीकात्मक चित्र [साभार : बिजनेस स्टैंडर्ड]

नकली नायकों के भरोसे लोकतंत्र

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मेरा मानना है कि बिहार के नये राजनीतिक घटनाक्रम में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है । पिछले कई वर्षों से बिहार भारी राजनीतिक विकल्पहीनता का शिकार है । वैसे यह बात कुछ अपवादों के अतिरिक्त पूरे देश पर लागू होती है ।

1990 में राज्य की जनता ने जब कांग्रेसियों से सत्ता छीन कर पिछड़ो गरीबों के नेता कहे जाने वाले लालू प्रसाद यादव को सौंपी थी, तब देश भर में एक सकारात्मक संदेश गया था । बिहार के लोगों में एक उम्मीद जगी थी । इस उम्मीद पर लालू यादव कितने दिनों तक और कितना खरा उतर सके, यह बिहार की आम जनता अच्छी तरह जानती है, इसके बावजूद अपने राजनीतिक कौशल की वजह से वे और उनकी पार्टी लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता पर काबिज रहे ।

2005 में हुए विधानसभा चुनावों में बिहार की जनता ने जब नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दल(यू) और भाजपा गठबंधन को स्पष्ट जनादेश देकर सत्ता सौंपी थी, तब इसके पीछे का एक बड़ा कारण पिछले डेढ़ दशक की सत्ता संस्कृति और बदहाली से बिहार की जनता का बुरी तरह परेशान हो जाना और ऊब जाना भी था ।

ऐसा माना जाता है कि अपने पहले कार्यकाल में नीतीश कुमार ने अपने काम करने के तरीके से लोगों को प्रभावित किया । बिहार में कानून व्यवस्था अपेक्षाकृत बेहतर हुई । बहुत अधिक बढ़ चुके अपराध के मामले काफी कम हुए । प्रशानिक ढाँचे की अराजकता में कमी आयी और लोगों को अपेक्षाकृत एक संतुलित व्यवस्था का बोध हुआ । कई जरूरी मसलों पर उदासीनता के रहते हुए भी नीतीश कुमार ने कई लोकलुभावन योजनाएँ लागू की, और मामूली वेतन देकर बेरोजगार शिक्षितों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए नियोजित करने जैसे, लोकप्रियता मे बढ़ोतरी करने वाले कई और योजनाओं पर काम किये । इन सबका उन्हें इनाम भी मिला । 2010 के विधानसभा चुनावों में जनता दल (यू)-भाजपा गठबंधन को पिछली बार की तुलना में और बड़ा जनादेश मिला और नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बने ।

इस बार इस जनादेश ने उनमें भारी अहंकार भी भर दिया था । वे बहुत ताकतवर नेता के तौर पर उभरे थे । इस बार वे लोकतांत्रिक तरीके से चलाए जा रहे वाजिब मांगों के आंदोलन तक को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थे । हालाँकि कानून व्यवस्था पिछले कार्यकाल की तरह ही ठीक-ठाक रही और लोकलुभावन योजनाएँ स्थगित नहीं की गयी । 1990 से 2005 के दौर की तुलना में बेहतर स्थिति ही, लोगों के लिए संतोष की बात थी । विकल्पहीनता में ऐसा ही होता है । सरकार के पहले कार्यकाल में जो मीडिया सरकार के कार्यों को उत्साह और महिमा मंडन के साथ जनता को परोस रही थी, दूसरे कार्यकाल तक यह स्पष्ट हो गया था, कि वे सरकार के आगे किसी न किसी कारण से नतमस्क हो चुकी थीं, और सरकार की जरूरी आलोचना भी उनके बूते की बात नहीं रह गयी थी । नीतीश कुमार के प्रति मोह बनाए रखने में विकल्पहीनता के साथ ही बिहार में स्वतंत्र विचारों की मीडिया के अभाव की भी बड़ी भूमिका मानी जा सकती  है ।

अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षों में नीतीश कुमार का भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता खराब होना शुरू हो गया था । कथित तौर पर यह सैद्धांतिक मसला था, जिसके अनुसार नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी जैसे साम्प्रदायिक व्यक्ति के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं थे । 2013 में भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने को अपनी अवहेलना और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी के अनुमोदन का संकेत मानते हुए जनता दल (यू) ने भाजपा से बिहार के साथ ही केन्द्रीय स्तर पर भी सम्बंध तोड़ लिये । इस गठबंधन के टूट जाने के बाद नीतीश कुमार को विश्वास मत हासिल करने में कांग्रेस के चार विधायकों ने भी समर्थन दिया था । तब राष्ट्रीय जनता दल और भाजपा दोनों ने नीतीश कुमार को विधानसभा की बहसों में अवसरवादी कहा था ।

बाद में 2014 के लोकसभा चुनावों में हार की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था । इस इस्तीफे के बाद जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने से लेकर एक समय भाजपा की शह पा कर अप्रत्याशित रूप से उनके बागी होते जाने और इसके बाद त्याग और महादलित प्रेम का चोला उतारकर नीतीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बन जाने तक की नाटकीय घटनाओं पर यहाँ विस्तार से बात करना विषयांतर होगा ।

2015 के विधान सभा चुनावों में जनता दल (यू) का राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ना और फिर से सत्ता में लौटना एक उल्लेखनीय घटना है । कई विश्लेषक इसे साम्प्रादयिकता के विरूद्ध बिहार की जनता का जनादेश मानते हैं, लेकिन मेरे विचार से यह एक आधारहीन विश्लेषण है । मेरा मानना है कि राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के पारंपरिक जनाधारों के साथ नीतीश कुमार की ‘सोशल इंजीनियरिंग, मीडिया द्वारा तैयार की गयी सुशासक की उनकी छवि और कुछ लोकप्रिय योजनाओं की वजह से तैयार हुए वोट बैंक ने आपस में मिलकर महागठबंधन को यह सफलता दिलाई । यह चुनाव मुख्य रूप से राज्य केन्द्रित चुनाव ही था । ऐसी स्थिति में बीजेपी का 54 सीटें हासिल कर लेना भी बड़ी बात कही जा सकती है । यदि इस चुनाव में साम्प्रदायिकता या केन्द्रीय राजनीति जैसे मुद्दे थे भी, तो 2014 के लोकसभा चुनावों में बिहार के 40 सीटों में से बीजेपी+ के 32 सीटों पर कब्जा करने को, हमें इस तरह विश्लेषित करना पड़ेगा कि 2015 के विधानसभा चुनावों में अचानक से परिपक्व हो गयी बिहार की जनता ने 2014 लोकसभा चुनावों में साम्प्रदायिकता के पक्ष में वोट दिया था ! यह दोनों ही विश्लेषण सही नहीं है ।

यदि बिहार की जनता ने विधान सभा चुनावों में वास्तव में चेतनशील होकर साम्प्रदायिकता के विरूद्ध मतदान किया होता तो यह लोकतंत्र के लिए बड़ी उपलब्धि कही जा सकती थी । लेकिन इस किस्म की चेतनशीलता इस समय कुछ अपवादों के अतिरिक्त पूरे देश में दुर्लभ है । जनता की चेतना का बढ़ा-चढ़ाकर मूल्यांकन करना उनके वास्तव में चेतनाशील बनने की जरूरत को न्यूनतम बना कर प्रस्तुत करता है । इससे जनता को चेतना सम्पन्न बनाने की यदि कोई मुहिम चल रही हो, या चलाई जाने की आवश्यकता महसूस हो रही हो तो वह सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर हतोत्साहित होती है ।

बिहार की राजनीति के ताजा घटनाक्रम में प्रकट रूप से यह हुआ है कि सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव, जो लालू प्रसाद यादव के पुत्र  हैं, पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप और उसके बाद महागठबंधन में बन रहे गतिरोध के कारण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया । इसके ठीक बाद भाजपा ने नीतीश कुमार को समर्थन देने की घोषणा की और अगले दिन उनके नेतृत्व में भाजपा-जनता दल (यू) गठबंधन की सरकार फिर से कायम हो गयी । 
साभार :  इंडियन एक्सप्रेस 

[2.]

बिहार के नये राजनीतिक घटनाक्रम पर बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं और सोशल मीडिया पर बीजेपी विरोधी लोगों की तीखी प्रतिक्रियायें पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं । नीतीश कुमार को सिर्फ अवसरवादी ही नहीं, बल्कि विश्वासघाती और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का हत्यारा भी कहा जा रहा है । मेरे खयाल से यह उचित ही है । इस तरह के आक्रोश लोकतंत्र के लिए सकारात्मक ही होते हैं । लेकिन हमारी गलती यह है कि जनादेश के उल्लंघन अथवा जन आकांक्षाओं की हत्या की बात करते हुए, हम बहुत ही मासूमियत से पूर्व की ऐसी ही घटनाओं को भुला देते हैं । इसी कारण से हम फिर से ऐसे विकल्पों पर भरोसा कर बैठते हैं, जिनसे भविष्य में ऐसी घटनाओं के बार-बार दोहराए जाने का रास्ता बहुत आसान हो जाता है ।  
   
          बिहार की राजनीति में करीब दो दशक पीछे जाएँ । 1997 में लालू प्रसाद यादव की जब चारा घोटाला मामले में गिरफ्तारी तय लग रही थी, तब दो महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ हुई   थीं । लालू प्रसाद यादव ने जनता दल के नेतृत्व विवाद के कारण अपने समर्थकों सहित इस दल से अलग होकर 5 जुलाई 1997 को राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था और इसके कुछ दिनों बाद ही 25 जुलाई 1997 को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था । इसके बाद राजनीतिक रूप से नितांत अनुभवहीन उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं । ये दोनों ही घटनाएँ लोकतांत्रिक स्वभाव रखने के बजाय सत्तासुख, वर्चस्व और परिवारवाद की भावना से प्रेरित थीं । बाद के दिनों में लालू यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाए रखकर सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में बनाए रखा ।

          28 जुलाई 1997 को जब राबड़ी देवी सरकार के सामने विधान सभा में विश्वासमत हासिल करने की समस्या आयी तब कांग्रेस मदद के लिए आगे आयी थी । इससे पहले जनता दल के विभाजन के बाद नव गठित राष्ट्रीय जनता दल के मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव के सामने जब यही समस्या आयी थी, तब विधान सभा में अनुपस्थित रहकर परोक्ष रूप से कांग्रेस ने इस सरकार के प्रति अपनी सद्भावना का ही प्रदर्शन किया था । यह वही कांग्रेस थी, जिसने 1995 का बिहार विधान सभा चुनाव राज्य की लालू सरकार की नीतियों और असफलताओं के विरूद्ध लड़ा था । इनके समर्थकों के बीच चुनावों में परस्पर हिंसक और जानलेवा झड़पों का इतिहास रहा था । क्या कांग्रेस को तब लोगों ने लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी सरकार को बचाने के लिए जनादेश दिया था? क्या तब जनादेश की हत्या नहीं हुई थी? इसके पीछे साम्प्रदायिकता विरोध अथवा राज्य को मध्यावधि चुनाव से बचाने का तर्क रहा था ।
  
          प्रसंगवश 1996 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो यह गैर कांग्रेसी दलों द्वारा मुख्यतः कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव सरकार की नितियों के विरुद्ध लड़ा गया था । इन चुनावों में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और राष्ट्रपति ने उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया । अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में तब 13 दिनों तक सरकार चली थी । यह सरकार सदन में विश्वासमत हासिल नहीं कर सकी थी । इसके बाद संयुक्त मोर्चा ने उसी कांग्रेस से समर्थन लेकर सरकार बनाई, जिसके विरूद्ध उसके लगभग सभी घटक चुनावों में उतरे थे । तर्क फिर से धर्मनिरपेक्षता और भाजपा को रोकने का था । मध्यावधि चुनावों से देश को बचाने का तर्क भी  था । हालाकि बाद में कांग्रेस ने निहित स्वार्थ के चलते पहले एचडी देवगौड़ा सरकार और बाद में आईके गुजराल सरकार से समर्थन वापस लेकर दोनों ही सरकारें गिरा भी दी और देश को अंततः 1998 में मध्यावधि चुनावों में जाना पड़ा था । इसके बावजूद बाद के दिनों में भी कांग्रेस और गैरकांग्रेसवाद की राजनीति करते हुए विकसित हुए राजनीतिक दलों के बीच सहयोग संभव होता रहा । यह सहयोगी सम्बंध थोड़े-बहुत उतार चढ़ाव के साथ भाजपा सरकार के दिनों से लेकर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दिनों में भी और अब तक बना हुआ है । इनके बीच चुनावी गठबंधन भी होते रहे हैं ।

जनता दल (यू) की बात करें तो इसने जरूरत पड़ने पर भाजपा के साथ न सिर्फ गठबंधन किया बल्कि इस पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव एनडीए के संयोजक भी रहे । इस पार्टी के कई नेताओं ने भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों को भी संभाला । इस गठबंधन के इस विरोधाभास को याद रखना चाहिए कि, जनता दल (यू) उस पार्टी की परंपरा में विकसित हुई पार्टी है, जिसने 1980 में अपनी पार्टी के नेताओं के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ाव रखने पर पाबंदी लगा दी थी । 1977 में जब जनता पार्टी बनी थी, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े राजनीतिक दल जनसंघ का भी इसमें विलय हुआ था । 1980 में जनता दल के इस निर्णय के बाद इससे जनसंघ धड़ा फिर से अलग हो गया था, और भारतीय जनता पार्टी का निर्माण हुआ था । यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी के गठन और जनता दल (यू) के उसके साथ आने की घटना के बीच की अवधि में ही बाबरी विध्वंस की घटना भी घट चुकी थी । यह देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की एक बड़ी और दुर्भाग्यपूर्ण घटना मानी जाती है, और भाजपा को इसका सबसे बड़ा जिम्मेवार माना जाता है ।

जनता दल (यू) नेता नीतीश कुमार के भाजपा सरकार में रेलमंत्री रहते ही फरवरी’2002 में गोधरा में वह दुर्घटना घटी थी, जब साबरमती ट्रेन के एक कोच में आग लग जाने से कई लोगों की मौत हो गयी थी । इसमें मारे गये लोग कथित तौर पर विश्व हिंदू परिषद से जुड़े हुए थे । इसके एक सुनियोजित हिंसा के रूप में प्रचारित होने के बाद गुजरात में भयावह साम्प्रदायिक दंगे होने शुरू हो गए थे । इन दंगों को रोकने के बजाय इन्हें प्रोत्साहित करने में प्रशासन और शासन की संलिप्तता की बात कही जाती है । इस भयावह दंगे के बाद भी जनता दल (यू) सरकार में बनी   रही । 1999 में गायसल रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेवारी लेकर रेल मंत्री के पद से त्यागपत्र देने वाले नीतीश कुमार भी गोधरा की घटना और उसके बाद हुए भयावह दंगे और इसमें नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात की भाजपा सरकार की संदिग्ध भूमिका के बावजूद इस बार केन्द्र की भाजपा सरकार के रेल मंत्री के पद पर डटे रहे ।  ऐसा माना जाता है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार होने की स्थिति में उनकी साम्प्रदायिक छवि का मुद्दा उठाकर, जनता दल (यू) जब एनडीए से अलग हो गया, तब इसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका नीतीश कुमार की ही थी, और पार्टी अध्यक्ष शरद यादव अधूरे मन से इस फैसले में उनके साथ आए थे । नयी परिस्थिति में जिन युवाओं को शरद यादव में अचानक से जयप्रकाश के दर्शन होने लगे हैं, उन्हें इस बात पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए कि क्या शरद यादव व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और वैचारिक झोल से बाहर आकर भरोसेमंद और सक्षम नेतृत्व दे सकने के काबिल हैं भी या नहीं!

साभार : www.dailyo.in
गुजरात दंगे के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के रेलमंत्री के रूप में बने रहने और दो बार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से बहुमत के साथ बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश कुमार की अचानक से जगी नैतिकता को समझ पाना क्या बहुत जटिल है? जब नरेन्द्र मोदी को साम्प्रदायिक बताकर नीतीश कुमार एनडीए के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के बतौर उनको प्रस्तुत किये जाने को ग़लत बता रहे थे, उन्हीं दिनों 2003 में दिये उनके एक भाषण का विरोधाभासी वीडियो सार्वजनिक हुआ था । इसमें गुजरात में एक निजी कंपनी द्वारा तैयार रेल लाइन को राष्ट्र को सौंपे जाने के एक कार्यक्रम में वे नरेन्द्र मोदी की तारीफ करते हुए, उनके गुजरात की सीमा से बाहर निकलकर भी सेवा देने की अपील करते हुए नजर आए थे । इसी भाषण में उन्होंने नरेन्द्र मोदी की छवि को गलत तरीके से प्रचारित करने की प्रवृत्ति की आलोचना भी की थी । अपने इस भाषण में गुजरात दंगे की बात करते हुए उन्होंने यह आशय प्रकट किया था कि इसी मुद्दे को पकड़ कर बैठे रहना सही नहीं है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात ने बहुत प्रगति की है । इस वीडियो के सामने आने पर नीतीश कुमार ने प्रतिक्रिया देते हुए इसे रेलवे प्रोटोकॉल का हिस्सा भर कहा था । क्या तब भोलेपन से उनके इस तर्क को मान लेने वालों से गलती नहीं हुई थी? जिन लोगों ने नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का विरोध करने पर नीतीश कुमार में सम्प्रदायिकता विरोधी नायक की छवि देखनी शुरू कर दी थी, क्या यह उन्हीं लोगों की चूक नहीं थी? नीतीश कुमार के इस साम्प्रदायिकता विरोध की आड़ में उनके प्रधानमंत्री बनने की तीव्र महत्वाकांक्षा यदि आपको नहीं दिखी थी, तो यह आपकी नहीं तो किसकी गलती थी?

प्रसंगवश एक और बात का जिक्र हो जाना चाहिए । यूट्यूब पर इस पूरे भाषण का उपलब्ध वीडियो* यदि फर्जी नहीं है, तो इसमें प्रधानमंत्री मोदी के अत्यंत प्रिय और अब देश भर में लोगों की धारणा में उनके सुपर फाइनेंसर के रूप में पर्याप्त चर्चित हो चुके उद्योगपति गौतम अडानी की और रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी दोनों की ही खूब सारी तारीफें नीतीश कुमार के मुँह से सुन सकते हैं । इस भाषण को सुनते हुए आज से चौदह वर्ष पहले गुजरात के मुख्यमंत्री, अडानी समूह और तब के रेल मंत्रालय के बीच के बेहतर तालमेल को समझना, इस दौर के इसी तरह के नये समीकरणों को भी समझने में मदद कर सकता है !

साभार: आजतक
2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लगभग दो दशकों से भी अधिक समय के बाद एक साथ आने पर, फरवरी’1994 में पटना के गाँधी मैदान में आयोजित उस विशाल कुर्मी चेतना महारैली को याद किया जाना चाहिए था, जिसके मंच से नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव पर यह आरोप लगाया था कि वे मात्र यादव जाति के हित की राजनीति करते हैं, और उन्होंने शेष पिछड़ी जातियों के साथ छल किया है । खुद लालू प्रसाद यादव नीतीश की कई मौकों पर आलोचना करते रहे हैं । 2013 में जनता दल (यू) के भाजपा से अलग होने पर भी उन्होंने शुरू में यही प्रतिक्रिया दी थी कि नीतीश कुमार सत्ता के लालची हैं, और मुसलमानों का वोट हासिल करने मात्र के लिए वे भाजपा से अलग हुए हैं । बाद में ये दोनों साथ आकर एक दूसरे की तारीफों के पुल बांधने लगे और फिर हालिया अलगाव के बाद एक दूसरे की तीखी नींदा करने में जुट गये हैं!
  
नीतीश कुमार का राष्ट्रीय जनता दल से अलग होकर फिर से भाजपा के साथ आ जाने के प्रत्यक्ष कारण भले ही उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप हैं, लेकिन मेरे खयाल से ये दिखावटी कारण भर हैं । मेरा अनुमान है कि नीतीश कुमार भाजपा के साथ जिस सहजता से सत्ता चला पा रहे थे, उसी सहजता से राष्ट्रीय जनता दल के साथ वे नहीं चला पा रहे थे । समय-समय पर यह प्रकट भी होता रहा कि राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं का सत्ता में मजबूत हस्तक्षेप भर ही नहीं था, बल्कि कई नेताओं ने कई बार सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार के लिए अवज्ञा का प्रदर्शन भी किया था । सत्ता में लालू यादव जैसे प्रभावशाली नेता के दखल के रहते, राज्य में एकमात्र मजबूत सत्तासीन नेता के रूप में फिर से स्थापित हो सकने की उनकी इच्छा दब कर ही रह जाने वाली थी । अपने पिछले कार्यकालों में बिग बॉस और सवालों से परे नेता की तरह व्यवहार करने का उन्हें अभ्यास हो गया था । वैसे कई लोग यह भी मानते हैं, कि बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति के फिर से कमजोर पड़ने और व्यवस्था के संतुलन बिगड़ने में राष्ट्रीय जनता दल का सरकार में दखल होना एक प्रमुख कारण रहा । इससे नीतीश की बनी बनाई छवि को भी आघात पहुँच रहा था । ऐसा कहा जा सकता है कि नोटबंदी और राष्ट्रपति चुनाव जैसे मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी के साथ एकजुटता प्रदर्शित कर वे राज्य में अपने महागठबंधन के घटक दल राष्ट्रीय जनता दल पर दबाव बनाकर शक्ति संतुलन स्थापित करने का ही प्रयास कर रहे थे । केन्द्रीय सत्ता की नाराजगी का घाटा भी उन्हें इसके लिए प्रेरित करता होगा । दरअसल नीतीश कुमार ने वहीं वापसी की है, जहाँ से प्रधानमंत्री पद की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की वज़ह से उन्होंने पलायन किया था । उसी महत्वाकांक्षा का व्यावहारिक परिणाम देख लेने के बाद और उसे स्थगित कर देने के बाद, अब उनके फिर से वापस आ जाने को बहुत महत्व की घटना या दुर्घटना नहीं मान जाना चाहिए ।

नीतीश पर जनमत के अपमान का जो आरोप लग रहा है, वह बिल्कुल सही है । लेकिन नीतीश अपने पूर्व के अनुभवों से निश्चिंत होंगे, कि यह कोई बड़ा मसला नहीं है । एक अनुभवी राजनेता की तरह वे इस बात से भी अच्छी तरह परिचित होंगे कि ऐसे काम सभी राजनीतिक दल करते रहे हैं । जनता जनादेश के ऐसे अपमानों को भुलाकर प्रोत्साहन की अपनी मुहर भी लगाती रही है ।

इसे स्वीकार लेना ही हितकर होगा कि ग़लती उन लोगों से हुई थी, जिन्होंने नीतीश की सारी वास्तविकता सामने होने के बावजूद उन्हें अपना हीरो मान लिया था । ग़लती वे लोग भी कर रहे हैं, जो सहानुभूतिवश लालू प्रसाद यादव को जनतंत्र के योद्धा की तरह पेश कर रहे हैं । मुख्यमंत्री के बतौर अपनी अराजनीतिक पृष्ठभूमि की पत्नी को अपने पार्टी के अनुभवी कार्यकर्ताओं पर तरजीह देने वाले और महागठबंधन सरकार में अपने बेटों के लिए उपमुख्यमंत्री के पद सहित कुल आठ मंत्रालय और उसी दौर में अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती के लिए राज्यसभा की सीट सुरक्षित करने वाले व्यक्ति में आपको लोकतंत्र का योद्धा कैसे दिखाई दे सकता है?

नेता विपक्ष के बतौर तेजस्वी के भाषणों को सुनकर उनमें भविष्य के एक बड़े नेता को देख पा रहे लोगों को क्या क्षण भर के लिए भी यह खयाल आया होगा कि उन्हें नेता विपक्ष की जो हैसियत मिली है, उसके पीछे क्या उनकी मेहनत और जनता के बीच जाकर किया गया उनका काम है, या परिवारवाद है? हमें यह खयाल नहीं आना चाहिए था कि क्या उनकी जगह साधारण पृष्ठभूमि का कोई अन्य गरीब दलित या पिछड़ा नेता नहीं हो सकता था? क्या लालू प्रसाद यादव के इतने वर्षों के राजनीतिक संघर्ष की सबसे शानदार उपलब्धि सिर्फ उनके बेटे ही हैं? यदि हाँ, तो यह दुखद है कि हम इसे दुर्भाग्यपूर्ण नहीं मानते । ऐसे प्रायोजित नेताओं में अपने नायक ढूँढ़ना, दयनीय है । यहाँ यह जोड़ देने में कोई दिक्कत नहीं है कि सामाजिक न्याय के पक्ष में खड़ा होने का दावा करने वाली लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने अनेक अवसरों पर अपने ही सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ायी हैं ।

साभार : इंडिया टुडे
राहुल गाँधी ने इस मसले पर इस आशय की प्रतिक्रिया दी कि नीतीश अवसरवादी, अविश्वसनीय और जनतंत्र के प्रति विश्वासघाती हैं । राहुल को यह कहते हुए स्मरण नहीं रहा, कि खुद उनकी पार्टी ने इस लोकतंत्र का सर्वाधिक सुख लूटा है, और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के हनन में उनसे आगे पहुँचने में अभी भाजपा सरकार को भी वक्त लगेगा । बहुत पीछे न भी जाएँ तब भी राहुल के पार्टी महासचिव रहते ही कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार के मामले और उसके विरोधों पर जो रूख अपनाया, कई जन आंदोलनों को निर्ममता से कुचला और सरकार के मंत्रियों ने जो हर अवसर पर बेहद अहंकारी व्यवहार किया, क्या राहुल सचमुच उसे भूल गये हैं? क्या रहुल यह भी भूल गये हैं कि वे खुद लोकतंत्र की ताक़त से नहीं अपनी पारिवारिक हैसियत की वजह से कांग्रेस के महासचिव बने बैठे हैं । यदि किसी को राहुल में लोकतंत्र का रखवाला दिखता हो तो, अपने इस दृष्टिकोण के परिणामों की जिम्मेवारी भी उसे खुद ही लेनी होगी !

भाजपा ने कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए उसकी जिन योजनाओं और नीतियों का सख्त विरोध किया था, सत्ता में आने के बाद वह उन्हीं योजनाओं और नीतियों को अधिक सख्ती से लागू करवाने में अपना ध्यान लगा रही है । उदाहरण के लिए खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश, आधार योजना सहित कई नाम गिनाए जा सकते हैं । मीडिया लोभ, लाभ या भय से घुटने पर आ गयी है, या कई दूसरे तरीकों से उन्हें ऐसा ही करने पर मजबूर किया जा रहा है । काला धन, भ्रष्टाचार, नोटबंदी, गरीबों-किसानों के मुद्दे, रोजगार, शिक्षा, पड़ोसी राष्ट्रों से सम्बंध, शांति की स्थापना सहित लगभग हर मोर्चे पर सरकार ने जनता के साथ धोखा किया है, और भ्रमजाल में उन्हें फंसाए रखने के लिए लगातार कोशिश करती रही है । मीडिया ही नहीं आम जनता तक पर अघोषित सेंसरशिप की तलवार लटका दी गयी है । इस समय देश में धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर जो उन्माद पसारा जा रहा है, भीड़ द्वारा हत्यायें हो रही हैं, अल्पसंख्यकों में असुरक्षबोध पनप रहा है, उन सब को लेकर केन्द्र सरकार ने अब दायित्वबोध के साथ कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया है । देश भर में एक दमघोंटू माहौल है । क्या यही सब करने के लिए इस सरकार को जनादेश मिला था?

नरेन्द्र मोदी की सरकार कांग्रेस सरकार की तरह ही बल्कि उससे भी अधिक बेहयायी से दिल्ली की बहुमत से चुनी हुई आम आदमी पार्टी की सरकार के काम करने में लगातार बाधा उपस्थित करती रही है । क्या ऐसी पार्टी को लोकतंत्र और जनादेश का सम्मान करने वाली पार्टी कह सकते हैं? नरेन्द्र मोदी को नायक की छवि में कितना भी पेश किया जाए लेकिन वे और उनकी पार्टी किसी भी तरह से लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के प्रतिनिधित्व करने के लिए योग्य नहीं ठहराए जा सकते ।

स्वयं आम आदमी पार्टी ने एक नयी राजनीतिक संस्कृति का भरोसा दिलाया था, लेकिन पार्टी नेताओं पर लगे आरोपों पर उसकी जो प्रतिक्रिया रही है क्या वह वैकल्पिक लोकतंत्र की बात करने वालों के लिए कहीं से उपयुक्त है? मतभेदों के कारण अपने ही दल के प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव सहित कई नेताओं को सरेआम अपमानित कर पार्टी से बाहर निकाल देने वाली आम आदमी पार्टी के नोताओं पर हम लोकतंत्र की बेहतरी में सहयोगी भूमिका निभाने वालों के रूप में कैसे भरोसा कर सकते हैं!

देश की दो बड़ी वामपंथी पार्टियों भाकपा और माकपा के जनतंत्र के प्रति गुनाहों की तो एक लम्बी सूची तैयार हो जाएगी । उनपर चर्चा करने के बजाय बिहार की सड़कों पर अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रही भाकपा (माले) की बात करते हैं । अपने जुझारूपन और प्रतिबद्धताओं के दावों के और ऐसे ही इतिहास के कारण, जिससे बिहार के ताजा घटनाक्रम के दौरान जनता के बीच जाकर जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, भाजपा सहित तमाम ऐसी पार्टियों की नुराकुश्ती, घोर अलोकतांत्रिक चरित्र सहित स्वार्थ और अवसर केन्द्रित मित्रता और दुराव की छल भरी राजनीति का पर्दाफाश करने की अपेक्षा की जा सकती थी, वह इस स्थिति में असहाय सी दिखाई दे रही है । जिस पार्टी को इन तमाम तरह के नाटकों में उलझे बिना जनता के असल मुद्दों मात्र पर केन्द्रित होना चाहिए था, वह महाठबंधन के सम्भव होने और इसके चुनाव जीतने को ऐतिहासिक और जनाकांक्षाओं की जीत कह कर उल्लास दिखाने और महागठबंधन के टूटने पर नीतीश कुमार को कोसते हुए दुख में डूब जाने में अपनी उर्जा खर्च कर रही है ! जिस राष्ट्रीय जनता दल के एक प्रभावशाली सदस्य और पूर्व सांसद पर माले के एक जुझारू और लोकप्रिय युवा नेता चंद्रशेखर (चंदू) की हत्या का आरोप हो, और जिसके अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव सहित अन्य पार्टी नेताओं पर उन्हें अब तक लगातार संरक्षण देते रहने और इस हत्या के विरोध में हुए अभूतपूर्व प्रतिरोधी आंदोलन के दमन का आरोप हो, आश्चर्यजनक रूप से, भाकपा (माले) जनादेश के सम्मान और लोकतंत्र की बेहतरी की बात करते हुए उसी के लिए चिंतित दिख रही  है ! लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार के दौर में सामंती और वर्चस्वादी ताकतों से जन चेतना और एकता के बल पर निर्णायक अहिंसक लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए लगातार प्रयासरत रहे चंदू की 31 मार्च 1997 को सीवान में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी । इस मामले में न्याय, आज तक हासिल नहीं हो सका है । भाकपा (माले) उन लोगों और उन दलों के लिए दुखी है, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए, बिहार मे हुए जघन्यतम जातीय हिंसाओं, नरसंहारों और इसमें दबंगों की भूमिका को लेकर न्याय सुनिश्चित करवाने में उदासीनता ही नहीं बल्कि नकारात्मक रूख अपनाया । साम्प्रदायिकता की हार लोकतंत्र की जीत है, यह कहना तो उचित है, लेकिन हत्यारों को संरक्षण देने वाली, भ्रष्टाचार में लिप्त और सामाजिक न्याय के प्रति निष्ठावान होने का ढोंग करते हुए सामाजिक न्याय का गला घोंटने वाली पार्टियों की जीत लोकतंत्र की और जनाकांक्षाओं की जीत कैसे हो सकती है?

साभार : आजतक
इस लेख में राजनीतिक दलों के लोकतांत्रिक दायित्वों से पलायन, जनादेश के अपमान, अवसरवाद के जो कुछ उदाहरण आए हैं, वे ऐसी कुल घटनाओं के छटांक भर भी नहीं है । भारतीय राजनीति में ऐसी घटनाएँ घटती ही रहती हैं । लगभग हर राजनीतिक पार्टी और उसके नेता इस तरह के गुनाहों में शामिल हैं । ऐसी विकट परिस्थिति में लोकतंत्र को बचाए रखने की उम्मीद किनसे की जाए?

नकली नायकों पर भरोसा जताना लोकतंत्र के प्रति हमारी खोखली चिंता और असम्बद्धता का ही परिणाम है । ऐसे नायक कभी भरोसेमंद नहीं हो सकते । ये अयोग्य ही नहीं भविष्य में लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक भी साबित हो सकते हैं । ऐसे नायकों या ऐसे विकल्पों के सहारे लोकतंत्र की बेहतरी की जंग जीत लेने का दंभ पालना बहुत बड़ी नादानी है । इसका परिणाम नुकसानदेह ही होगा । हमें यह भी समझना होगा कि जिस तरह साम्प्रदायिकता और घृणा एक लाभकारी राजनीति है, उसी तरह साम्प्रदायिकता विरोध भी अक्सर लाभ की राजनीति मात्र से प्रेरित होकर रह जाता है । साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर तमाम लोकतंत्र विरोधी बुराइयों को बर्दाश्त करने या ढँक देने का कार्य साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहित करने वाले कार्यों से कम आत्मघाती नहीं है । दि हम ईमानदारी से साम्प्रदायिकता और लोकतंत्र की अन्य चुनौतियों  के प्रति चिंतित हैं, तो हमें ईमानदार विकल्पों के पुनर्निर्माण अथवा नवनिर्माण पर ध्यान केन्द्रित करना होगा । बार-बार असफल होने की स्थिति में भी हमें यह प्रयास करते रहना होगा । यदि हम कुछ और नहीं कर सकते तब भी हमें कम से कम ईमानदारी से यह स्वीकार करना चाहिए कि हम मौजूदा राजनीतिक स्थिति में विकल्पहीन हैं । इस बात को खुल कर अभिव्यक्त भी करना चाहिए ।  इस तरह के असंतोष, कई बार बेहतर रास्तों के निर्माण के कारण बनते हैं !
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