Monday, December 31, 2018

* मैथिली भाषा अस्मिता के संदर्भ में लिपि का प्रश्न *

         मैथिली के स्वतंत्र भाषा होने के दावे को खारिज करने की चेष्टा में जितने भी तर्क दिये जाते हैं, उनमें प्रायः एक तर्क यह भी होता है कि इसकी अपनी कोई पृथक लिपि नहीं है। वास्तव में यह एक आधारहीन आरोप है।
[कल्याणी कोश (संपादक-पं. गोविन्द झा) से साभार]
मैथिली की अपनी एक परंपरागत लिपि रही है। मैथिली लेखन के लिए देवनागरी लिपि के प्रचलन में आने से पूर्व तक, यह भाषा सामान्यतः अपनी इसी परंपरागत लिपि में लिखी जाती थी। मिथिला के पंडित और विद्वान संस्कृत लेखन के लिए भी प्रायः इसी लिपि का उपयोग किया करते थे। भाषाविद ग्रियर्सन ने इस लिपि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह बांग्ला भाषा के लिए व्यवहृत लिपि से मिलती जुलती लिपि है।[1] इस लिपि को सामान्यतः तिरहुता अथवा मिथिलाक्षर लिपि के नाम से जाना जाता है।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इस लिपि के व्यापक उपयोग को हतोत्साहित करने वाली पस्थितियाँ निर्मित होने लगी थीं। शैलैन्द्र मोहन झा ने अपने एक लेख 'आधुनिक मैथिली साहित्यक पृष्ठभूमि' मे इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए लिखा है दरभंगा राज, जहाँ प्रारंभ से ही मैथिली को प्रश्रय मिलता आ रहा था, जब 1860 ई. मे यह कोर्ट ऑफ वार्ड्सके अधीन कर दिया गया, तो उससे मैथिली भाषा और लिपि को हटाकर उर्दू भाषा और फारसी लिपि को स्थान मिला। इसके बाद लक्ष्मीश्वर सिंह ने यह स्थान खड़ी बोली और देवनागरी लिपि को दिया। देवनागरी लिपि में प्रेस की सुविधा हो जाने से मैथिली के विद्वान भी अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए इसी लिपि का प्रयोग करने लगे और यह एक तरह से मैथिली की वैकल्पिक लिपि बन गयी।[2] 
औपनिवेशिक भारत के यूरोपीय भाषाविज्ञों ने भाषाओं और उनकी बोलियों की पहचान पर चर्चा करते हुए, भाषा के लिए पृथक लिपि की अनिवार्यता पर ज़ोर नहीं दिया है। उदाहरण के लिए, 1866 में प्रकाशित जॉन बीम्स की किताब द आउटलाइंस ऑफ इंडियन फिलोलॉजी के एक अध्याय ऑन डाइलेक्ट्स का संदर्भ ग्रहण किया जा सकता है। इस अध्याय में जॉन बीम्स ने पहले यह स्वीकार किया है कि भाषा और बोली की पहचान से सम्बंधित प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर दे सकने लायक कोई युक्ति विकसित नहीं की जा सकी है। उनके अनुसार इस संदर्भ में कोई एक सामान्य नियम लागू कर पाना कठिन है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अध्ययन और भाषा सीखने में सुविधा के दृष्टिकोण से उन्हें बोलियों का वर्गीकरण आवश्यक लगता है। इसी उद्देश्य से उन्होंने भाषाओं और उनकी बोलियों की पहचान कर पाने के लिए पारस्परिक बोधगम्यता, व्याकरणिक संरचना की समानता और शब्दों की समानता सहित कई अन्य आधारों पर एक-एक कर बहुत सतर्कता के साथ विचार करने का सुझाव दिया है। उन्होंने उन परिस्थितियों, घटनाओं और विशेषताओं का भी उल्लेख किया है, जिनके कारण, कोई बोलीस्वतंत्र भाषा के रूप में पहचाने जाने के योग्य हो जाती है। इस अध्याय में जॉन बीम्स ने लगभग सभी प्रासंगिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की है, लेकिन उन्होंने इसमें कहीं स्वतंत्र भाषा के निर्धारण के लिए लिपि को एक कारक के रूप में प्रस्तावित नहीं किया है। पंजाबी भाषा के स्वतंत्र अस्तित्व को सुनिश्चित करने में सिख धर्म की भूमिका पर चर्चा करते हुए, उन्होंने प्रसंगवश इस धर्म के पवित्र ग्रंथकी रचना के लिए उपयोग की गयी गुरूमुखी लिपि का उल्लेख अवश्य किया है, लेकिन यह उल्लेख स्वतंत्र भाषा के लिए पृथक लिपि की अनिवार्यता या महत्व को स्थापित नहीं करता है।[3]
ग्रियर्सन ने भी लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के पहले खंड में भाषा सर्वेक्षण से जुड़े अपने अनुभवों के आधार पर भाषाओं और बोलियों के वर्गीकरण को बहुत ही जटिल कार्य माना है। उन्होंने भी यह स्वीकार किया है, कि इस संदर्भ में कोई सर्वमान्य नियम नहीं है। इसके बाद उन्होंने इस संदर्भ में अपनी मान्यता को उदाहरणों के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस क्रम में उन्होंने जिन कुछ कारकों को स्वतंत्र भाषा के निर्धारण के लिए महत्वपूर्ण माना है, उनमें भी लिपि का उल्लेख नहीं है।[4]
भाषाविज्ञों के द्वारा भाषाओं की पृथकता को निर्धारित करने के लिए लिपि को एक कारगर कारक नहीं मानने का महत्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि लिपि का भाषा के मौखिक रूप के बजाय लिखित रूप से सम्बंध होता है, जबकि भाषाओं के बीच अंतर करने की वैज्ञानिक पद्धति मुख्यतः इसके मौखिक रूप का ही परीक्षण करती है।
         भाषावैज्ञानिक महत्व नहीं होने के बाद भी कई कारणों से भारत के उत्तर-औपनिवेशिक भाषा विमर्शों में स्वतंत्र भाषा के अस्तित्व के लिए लिपि महत्वपूर्ण कारक के रूप में चिह्नित की जाने लगी। संभव है कि हिन्दी-उर्दू के बंटवारे में पृथक लिपियों की महत्वपूर्ण भूमिका के अलावा कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं की अपनी अलग लिपि के होने के कारण इस धारणा को अधिक बल मिला हो। हिन्दी की बोलियों की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए भी पक्षधर विद्वानों ने भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता के लिए लिपि की अनिवार्यता पर ज़ोर देना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि भाषायी अस्मिता के लिए लिपि का प्रश्न बहुत संवेदनशील होता गया।
स्वतंत्र भाषा के लिए लिपि की अनिवार्यता को स्थापित करने के प्रयासों के एक उदाहरण के लिए प्रतिष्ठित विद्वान डॉ. हरदेव बाहरी की 1965 में प्रकाशित किताब हिन्दी : उद्भव, विकास और रूप’ में व्यक्त उनके इस मत का उल्लेख करना उपयुक्त होगा  “..मगही-मैथिली बोलियाँ तो हैं, किन्तु भाषाओं में उनका स्थान नहीं है- भाषा हिन्दी ही है। राजस्थानी या (विशेष रूप से) बिहारी भाषा जैसी कोई चीज नहीं इनकी कोई अपनी लिपि नहीं, साहित्य की अपनी कोई परम्परा नहीं, शासन द्वारा कोई मान्यता प्राप्त नहीं, कोई एक स्वरूप नहीं, कोई आदर्श नहीं।[5]
यह ध्यान देने योग्य है कि डॉ. बाहरी ने मगही, मैथिली को बोली कहने के बाद, भाषाओं के लिए जिन तत्वों को आवश्यक माना है, ‘लिपि उनमें से पहला तत्व है।
इस प्रसंग में प्रख्यात हिन्दी आलोचक व भाषाचिंतक रामविलास शर्मा के दृष्टिकोण का उल्लेख करना भी उचित होगा। वे इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित थे कि मैथिली की अपनी अलग लिपि रही है। वे तिरहुता लिपि के देवनागरी लिपि के द्वारा हुए विस्थापन से भी परिचित थे और इसे हिन्दी के लिए बहुत सकारात्मक मानने वाले विद्वानों में शामिल थे। 1954 में प्रकाशित अपने लेख हिन्दी और मैथिलीमें मैथिली को हिन्दी की एक बोली सिद्ध करने के अपने प्रयासों के बीच उन्होंने द हिस्ट्री ऑफ मैथिली लिट्रेचरके लेखक जयकांत मिश्र के द्वारा मैथिली लिपि के लोप और उसके बदले देवनागरी लिपि के प्रचलन पर व्यक्त किये गये खेद का उल्लेख करने के बाद लिखा है : लेकिन यह काम भी मैथिली-हिन्दी जनता के जातीय विकास में सहायक सिद्ध हुआ।[6] उनके इस लेख को पढ़ कर यह आसानी से समझा जा सकता है कि मैथिली-हिन्दी जनता के जातीय विकासकी उनकी धारणा का आशय हिन्दी की विशाल जातीयता में मैथिल जनता का विलय है। अपने इस लेख में विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करने के बाद उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है कि मैथिली हिन्दी की एक बोली मात्र है, और उसका बोली होना समय के साथ और भी स्पष्ट होता चला जाएगा।
इस तरह की धारणाएँ भाषा अस्मिता के संदर्भ मे लिपि के प्रश्न पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं ।
परिस्थितिवश या किन्हीं अन्य कारणों से तिरहुता अथवा मिथिलाक्षर लिपि का त्याग मैथिली के विद्वानों और मैथिली अस्मिता से सम्बद्ध लोगों के लिए प्रायः समान रूप से दुख और चिन्ता का विषय रहा है। अधिकांश मैथिल विद्वानों का यह मानना रहा है कि लिपि त्याग के कारण मैथिली का स्वतंत्र भाषा के रूप में दावा सर्वाधिक कमजोर हुआ। रमानाथ झा ने इस संदर्भ में अपनी किताब मैथिलीक वर्तमान समस्या’ मे लिखा है- आज मैथिली के प्रसंग में जो बाधा है, उसका एकमात्र कारण है कि हम लोगों ने अपनी लिपि को त्याग दिया। भारतीय राष्ट्रीयता के हित की भावना से प्रेरित होकर हम लोगों ने यह त्याग किया, इसे सब भूल गये। आज यदि मैथिली लिपि प्रचलित होती तो भारत में एकता के सूत्र में वह भी एक गाँठ होती। हिन्दी साम्राज्यवाद के पुजारियों ने हमारी उदारता को हमारी दुर्बलता समझ लिया, हमारे त्याग को मूर्खता मान लिया, और क्रमशः हमारी भाषा का समूल नाश करने में लग गये, हमारी जातीय सत्ता पर आघात करने लगे।[7]
रमानाथ झा ने लिपि त्याग के कारण के रूप में जिस राष्ट्रीयता की भावना का उल्लेख किया है, उस पर विचार करना आवश्यक है। गाँधी जी हिन्दी या हिन्दुस्तानी के प्रचार-प्रसार को भी राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का अनिवार्य हिस्सा समझते थे। वे इस उद्देश्य के लिए भी गंभीरतापूर्वक काम कर रहे थे। उनका मानना था कि इस देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है। वे यह भी मानते थे कि हिन्दी, प्रांतीय भाषाओं के विकास मे बाधक नहीं होगी, बल्कि उनके विकास मे सहायक ही सिद्ध होगी। हिन्दी के प्रचार और प्रसार के क्रम मे लिपि का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हरिजन’ के 04.05.1935 अंक मे प्रकाशित अपने एक लेख मे गाँधी जी ने अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा स्वीकृत उस प्रस्ताव की चर्चा की है, जिसका आशय यह था कि उन समस्त भाषाओं को देवनागरी लिपि मे लिखा जाना चाहिए जो या तो संस्कृत से निकली हैं, अथवा जिन पर संस्कृत का अत्यधिक प्रभाव रहा है।[8] गाँधी जी मन और मस्तिष्क दोनों से इस प्रस्ताव के पक्ष में थे। इस लेख में उन्होंने लिखा है कि एक लिपि हो जाने से भगिनी भाषाओं को सीखने में सुविधा होगी। इसी तरह हरिजन के 15.08.1936 अंक मे प्रकाशित एक लेख मे गाँधी जी ने लिखा - अलग अलग लिपियाँ, एक प्रान्तके लोगोंके लिए दूसरे प्रान्त की भाषा सीखने में अनावश्यक बाधा स्वरूप है।  यूरोप तो कोई एक राष्ट्र नहीं है फिर भी उसने एक सामान्य लिपि स्वीकार ली है।[9] इस लेख के अंत में उन्होंने लिखा है- “लिपियों का बोझ लादना, और वह भी खाली झूठे मोह और दिमागी आलस्यके कारण, अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा।[10] 
बहुत संभव है कि मिथिलाक्षर को त्याग कर देवनागरी लिपि को अपनाए जाने में इस तरह की भावनात्मक अपीलों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही हो । रमानाथ झा इस आशय की अभिव्यक्ति में सफल हुए हैं कि गाँधी जी की अपील में निहित सद्भावना, हिन्दी के ही तथाकथित हितैषियों के द्वारा क्रूरतापूर्वक नष्ट कर दी गयी। आजादी के बाद के परिदृश्य में भी अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन का नेतृत्व करने वाले समाजवादी चिंतक और नेता राममनोहर लोहिया सहित कई अन्य लोग ‘एक लिपि के सवाल पर गंभीरता पूर्वक चिंतनशील, मुखर और प्रयत्नशील रहे। ऐसे में अपनी लिपि का त्याग कर देवनागरी लिपि अपना लेने वाली एक भाषा की स्वतंत्र अस्मिता पर हिन्दी के तथाकथित हितैषियों का लगातार हमला, वास्तव में एक लिपि’ के विचार और भावना को संदेहास्पद, महत्वहीन और अस्वीकार्य बना देने के लिए पर्याप्त है, इस विडंबना की ओर चिंतकों का ध्यान प्रायः नहीं गया, या इसे अनदेखा किया गया।
यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि मैथिली की स्वतंत्र अस्मिता पर होने वाले आघातों ने ही अब तक मिथिलाक्षर लिपि के पुनर्प्रचलन की वैचारिकी को सर्वाधिक उत्तेजित करने का कार्य किया है ।
मार्च1942 में दरभंगा में आयोजित मैथिली साहित्य परिषद के आठवें अधिवेशन के दौरान मैथिली लेखक सम्मेलन के मंच से दिये गये अध्यक्षीय वक्तव्य में उमेश मिश्र ने कहा था – अंत में यह स्मरण करना आवश्यक है कि जब तक आप लोग मैथिली लिपि का प्रचार नहीं बढ़ायेंगे, तब तक मैथिली भाषा की जड़ सुदृढ़ नहीं ही होगी। एकमात्र मिथिलाक्षर का प्रचार बढ़ाने से अनायास मैथिली की रक्षा होती रहेगी, अन्यथा हमेशा कोई अन्य मैथिली के क्षेत्र को संकुचित करने की ही चेष्टा में लगा रहेगा।[11]
इस अधिवेशन के अध्यक्षीय संबोधन में अमरनाथ झा ने मिथिलाक्षर लिपि को फिर से अपनाए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था- किसी भाषा का साहित्य तभी सर्वांगपूर्ण हो सकता है, जब उस भाषा की एक अपनी स्वतंत्र लिपि हो।[12] अमरनाथ झा ने अपने इस संबोधन में मिथिलाक्षर के पुनर्प्रचलन को सीधे भाषा अस्मिता से जोड़ने के बजाय इसकी व्यावहारिक उपयोगिता और विशिष्टताओं से जोड़ा है। अपने संबोधन के लगभग अंत में उन्होंने मैथिली भाषा की उन्नति के लिए मैथिली की अपनी लिपि को परमावश्यक कहा है। इससे यह संकेत मिलता है कि लिपि त्याग के कारण मैथिली भाषा अस्मिता पर आए संकट के प्रति भी वे पर्याप्त सचेष्ट थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि अमरनाथ झा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी सभापति रह चुके थे, और हिन्दी प्रचार में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भागीदारी निभायी थी। यह उनकी बहुत स्पष्ट और घोषित वैचारिकी थी कि उनकी मातृभाषा मैथिली, हिन्दी से पृथक अस्तित्व रखने वाली भाषा है, और यह भी कि मैथिली का हिन्दी से कोई विरोध नहीं है।[13]
राजेश्वर झा ने अपनी किताब  ‘मिथिलाक्षरक उद्भव ओ विकास’ में मिथिलाक्षर या तिरहुता लिपि के विकास की वैज्ञानिक विवेचना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार वर्तमान मिथिलाक्षर लिपि अशोक के उत्तरी पूर्वी आदेश लेख का परिवर्तित रूप है, जिसका पूर्ण विकास चौथी या पाँचवीं सदी में हुआ था।[14] मैथिली लिपि का इतिहास कितना पुराना है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह असंदिग्ध है कि मैथिली के प्राचीन ग्रंथ इसी लिपि मे लिखे गये हैं। इन ग्रंथों के अध्ययन और अन्वेषण की समस्या एक बड़ी समस्या है। इस व्यावहारिक समस्या की ओर ध्यान दिलाते हुए 1950 मे दिये गये अपने एक वक्तव्य में कुमार गंगानंद सिंह ने कहा था- हम लोगों के प्राचीन ग्रंथ जितने भी हैं, प्रायः मिथिलाक्षर में लिखे हुए हैं, और अभी हजारों ग्रंथ ऐसे होंगे जिनका पता नहीं लगाया जा सका है, और जिन ग्रंथों का पता लगा भी है उनका अध्ययन अनुशीलन और प्रकाशन बाकी ही  है। मिथिलाक्षर भुला देने से हम लोगों का वही हाल होगा जो चश्मा खो जाने से चश्मा पहनने वालों का होता है।[15]
मैथिली साहित्य की लिखित परंपरा तिरहुता लिपि में बद्ध हो कर ही विकसित हुई है । यदि ऐतिहासिक अथवा तकनीकी अथवा किन्हीं अन्य कारणों से इस लिपि को त्यागने के लिए मैथिली लेखकों को विवश होना पड़ा, तो इस कारण से मैथिली को लिपिविहीन भाषा कहना अनुचित और नकारात्मक है ।
यदि भविष्य में कभी मिथिलाक्षर लिपि को पुनर्प्रचलित करने के उद्देश्य से मिथिला में कोई प्रभावी जन आंदोलन हो और मिथिलाक्षर फिर से व्यवहार मे आने लगे तब मात्र देवनागरी लिपि का ज्ञान रखने वालों के लिए लिखित मैथिली कितनी अबूझ हो जाएगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यदि कभी ऐसी स्थिति बनती है, तो उसका कारण निश्चित रूप से मैथिली भाषा अस्मिता की लगातार हो रही उपेक्षा होगी अथवा अस्मितामूलक असुरक्षा बोध होगा और इसके जिम्मेवार इस देश में भाषाई वर्चस्ववाद का झंडा बुलंद करने वाले लोग ही होंगे।
हाँलाकि मिथिलाक्षर के पुनर्प्रचलित होने की राह पर्याप्त जटिल है, फिर भी जिस तरह की स्थिति बन रही है, उसके प्रतिक्रियावश भविष्य में अस्मिता केन्द्रित ऐसे किसी बड़े जन आंदोलन की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है, जिसमें कई अन्य राजनीतिक-अराजनैतिक अधिकारों के अलावा फिर से अपनी लिपि की और लौटने के मुद्दे को भी पर्याप्त महत्व के साथ संबोधित किया जाए। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा है कि किसी भाषा के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो जाने मात्र से, उसके प्रति सम्मानपूर्ण और गरिमामय व्यवहार का भी सुनिश्चय नहीं हो जाता। मैथिली स्वयं इस संदर्भ में एक उदाहरण है । हिन्दी का आलोचना और अकादमिक जगत अब भी मैथिली की पहचान हिन्दी की एक आश्रित बोली के रूप में करता है। यह अपमानजनक तो है ही, सौहार्द की भावना के विपरीत भी है ।
अंत मे एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है, जो यह है कि क्या स्वतंत्र भाषा के लिए यह अनिवार्य है कि उसकी अपनी पृथक लिपि होइसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं । वर्तमान में नेपाली और मराठीकुछ मौलिक विशेषताओं के साथ देवनागरी अथवा किंचित परिवर्तित देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती हैं। लेकिन इन भाषाओं के हिन्दी से पृथक, एक स्वतंत्र भाषा होने पर, कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जाता। यही बात बांग्ला और असमिया के संदर्भ में भी लागू होती है, जिनकी लिपियों में बहुत मामूली अंतर है । इस तरह यह बात पर्याप्त बल देते हुए कही जा सकती है कि तथाकथित हिन्दी क्षेत्र की अन्य भाषाओं जैसे कि ब्रज, अवधी, मगही,भोजपुरी, मेवाती आदि के स्वतंत्र भाषाएँ होने के दावे को इस तर्क के आधार पर बिल्कुल भी खारिज नहीं किया जा सकता कि इनकी अपनी पृथक लिपियाँ नहीं है। इन भाषाओं की कभी अपनी पृथक लिपियाँ रही थीं या नहीं, यह अध्ययन और अनुसंधान का विषय अवश्य हो सकता है।
____________________
संदर्भ
[1] देखिए - जी.ए. ग्रियर्सनलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड-5भाग-2 : मोतीलाल बनारसी दासदिल्ली-7 : पुनर्मुद्रित सं.-1968 (प्र.मु.-1903) पृष्ठ सं.- 21
[2] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए संपादक- शरदचन्द्र मिश्र और कीर्तिनारायण मिश्रआधुनिक मैथिली साहित्य : मिथिला सांस्कृतिक परिषदकलकत्ता : सं.-1963पृष्ठ सं.- 17-18
[3] देखिए - जॉन बीम्सऑटलाइन्स ऑफ इंडियन फिलोलोजी : टर्बनर एंड कंपनीलंदन : द्वितीय सं.-1868, पृष्ठ सं.- 54
[4] देखिए - ग्रियर्सनलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड-1भाग-1 : मोतीलाल बनारसी दासदिल्ली-7 : पुनर्मुद्रित सं.-1967 (प्र.मु.-1927)पृष्ठ सं.- 22-24
[5] देखिए - हरदेव बाहरीहिन्दी उद्भव विकास और रूप : किताब महल प्रा. लिइलाहाबाद :  प्र.सं.-1965पृष्ठ सं.- 59
[6] रामविलास शर्मापरंपरा का मूल्यांकन : राजकमल प्रकाशनदिल्ली : सं.-1961पृष्ठ सं.- 214
[7] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - रमानाथ झामैथिलीक वर्तमान समस्या : नवभारत प्रेसलहेरिया सराय : सं.-1966पृष्ठ सं.- 42
[8] देखिए - राष्ट्रभाषा हिन्दी पर महात्मा गाँधी के विचार : गाँधी स्मृति एवं दर्शन समितिदिल्ली : सं.-2003पृष्ठ सं.-4
[9] वही , पृष्ठ सं.-13
[10] वही
[11] [मैथिली से अनूदित उद्धरणदेखिए - संकलनकर्त्ता- देवेन्द्र झाभाषणत्रयी : मैथिली अकादमीपटना : सं.-1983 , पृष्ठ सं.-3
[12] वहीपृष्ठ सं.-17
[13] वहीपृष्ठ सं.- 5
[14] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - राजेश्वर झामिथिलाक्षरक उद्भव ओ विकास : श्री शम्भुनाथ झारसुआर : सं-1971पृष्ठ सं.-67
[15] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - भाषणत्रयीपृष्ठ सं.-58
______________________
[*गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की पत्रिका 'अंतिम जन' के भाषा अंक (अगस्त-दिसम्बर-2017) (पृष्ठ सं. : 86-90) में  प्रकाशित। पत्रिका में प्रकाशन के क्रम में असावधानीवश संदर्भ विवरण के क्रम की गरबड़ियों सहित कुछ अन्य त्रुटियां रह गयी हैं। वे त्रुटियां यहाँ सुधार दी गयी हैं।]