Thursday, September 13, 2012

सवाल हमारी आलोचनादृष्टि का भी है

असीम त्रिवेदी का एक कार्टून जिसपर विवाद है।
साभार: Frontierindia
यह ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए; कि असीम से जुड़े कार्टून विवाद पर लिखना असीम के प्रति सहनुभूति है. इसकी ज़रुरत भी नहीं है. सवाल किसी पक्ष में खड़े होने की है और अपने भीतर के सारे उपापोह ख़त्म कर इस तरह खड़ा होना ज़रूरी है. अभिव्यक्ति की आज़ादी को छीनने का हक़ हम किसी को नहीं दे सकते हैं. लेकिन यहाँ सिर्फ अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल नहीं है. एक बड़ी समस्या कला की ग़लत व्याख्या से पैदा हो रही है. बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबक़ा असीम पर लगाये गए राजद्रोह के आरोप का विरोध कर रहा है. लेकिन यह तबक़ा ऐसा मान कर चलता है कि असीम ने अपनी अभिव्यक्ति केलिए राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमानजनक पयोग किया है;जो एक नैतिक अपराध है. दरअसल कला की सीमा को निर्धारित करने का यत्न किया जा रहा है. यह प्रयास नया नहीं है. हमेशा से होता आया है. मसलन साहित्य की जनोन्मुखता रीतिकाल में ग़ायब रही. यह गायब हुयी नहीं थी; बल्कि की गयी थी. कला और साहित्य को उस समय इसी ढंग से परिभाषित किया जाता था. काव्यशास्त्र और नायिकाभेद तक साहित्य और कला का सौंदर्य अक्षुण्ण है; ऐसा मान लिया गया था. आधुनिक काल में इसे तोड़ा गया. ऐसे ही सौंदर्य के कई बने-बनाये प्रतिमानों का भविष्य में तोड़ा जाना तय होता है.

हमारे सौंदर्यबोध का अस्सी फ़ीसदी हिस्सा हमारे परिवेश से ही निर्मित होता है. और बचपन से ही हमें प्रतीकों से प्रेम करना सिखाया जाता है. ख़ासतौर पर धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतीकों से. प्राय: उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम अपनी व्यक्तिगत सौन्दर्याभिरूची विकसित करने का प्रयास करते हैं. इस क्रम में हमारी समझदारी कई चीजों को लेकर बदलती है. विशेष कर धार्मिक प्रतीकों को लेकर. इसकी वज़ह यह है कि धर्म को लेकर प्रगतिशील चिंतन की परंपरा बहुत मज़बूत हैं. लेकिन राष्ट्रीय प्रतीकों व राष्ट्रवाद पर ऐसी ही चिंतन परंपरा का अभाव है. जो चिंतन उपलब्ध हैं; वे हमें भाते नहीं हैं. ऐसे में सारी कट्टरता हम छोड़ते भी जाते हों; तो राष्ट्र को लेकर हमारी कट्टरता कमोवेश बची रहती है. हम देश के प्रति भावुकता व प्रेम की आड़ में कैसे कट्टर होते जाते हैं; पता ही नहीं चलता है. हम पड़ोसी देश की हरक़तों से तंग आकार सोचते हैं कि यह तो सरकार निक्कमी है; वर्णा हमारी सेना को पड़ोसी देश तबाह करने में घंटा भर भी नहीं लगेगा. आश्चर्यजनक यह है कि ऐसा सोचते हुए हमें उस देश के अपने ही जैसे लोगों का बिल्कुल भी ख़्याल नहीं आता है. अब यह मानसिकता सांप्रदायिक कट्टरता से किस तरह से अलग है; जिसके प्रभाव में किसी एक मोहल्ले की दुर्भाग्यपूर्ण घटना या इस संदर्भ में फैलाया गया अफ़वाह किसी दूसरे मोहल्ले में निर्दोष लोगों के ख़ून से अंजाम तक पहुँचाई जाती है. कट्टरता हमेशा कोरी भावुकता के आड़ में पनपती है. सीमापार आतंकवादियों को भी इसी आधार पर तैयार किया जाता है.

असीम त्रिवेदी से जुड़े कार्टून प्रकरण में हमारी कट्टर मानसिकता और कला के प्रति व्यवस्थित आलोचनादृष्टि के आभाव का ज़बरदस्त असर रहा है. कार्टून में निहित भावना की उचित व्याख्या किये जाने के वज़ाय प्रतीकों के दुरूपयोग और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बहस ही हावी रहा. संभवत: ऐसी ही बात कविता या कहानी में कही जाती तो बुद्धिजीवियों को उसके पक्ष में खड़े होने में दिक्कत नहीं होती. मसलन नागार्जुन की पंक्ति- बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू केया धूमिल की पंक्ति- हमारे यहाँ संसद तेली की वह घानी है / जिसमें आधा तेल है और आधा पानी है” ; इन पंक्तियों को हम यथास्थिति का सटीक वर्णन कहने में संकोच नहीं करेंगे. लेकिन इन्ही भावनाओं का कार्टून रूपांतरण हमें राष्ट्रपिता व संसद का अपमान लग सकता है. सच तो यह है कि कला को लेकर हम में से ज़्यादातर लोगों की समझ बहुत विकसित नहीं है. साहित्य में जिस तरह आलोचना की परंपरा रही है; कला में वैसी ही आलोचना की परंपरा नहीं है. ऐसे में किसी कार्टून को तार्किक ढंग से समझने की ज़रूरत हमें महसूस नहीं होती है. क्या असीम ने कार्टून को जिन प्रतीकों के माध्यम से उठाया है; वह सर्वथा वर्जित है या होना चाहिए? क्या असीम के ये विवादास्पद कार्टून अभिव्यक्ति की दृष्टि से गहरा अर्थ नहीं रखते हैं? असीम ने जिन राष्ट्रीय प्रतीकों की दुर्दशा दिखाई है; वह उनका नहीं वल्कि किसी और का कमाल है. राष्ट्रीय प्रतीकों को संविधान निर्माताओं ने देशवासियों की भावनाओं से जोड़ कर ही स्वीकृत किया था. उन भावनाओं के साथ हो रहे खिलबाड़ ने राष्ट्रीय प्रतीकों की जो दशा की है; असीम ने उसे दिखाया है. देश की दुर्दशा को  दिखाने केलिए राष्ट्रीय प्रतीकों की दुर्दशा को प्रतीक के रूप में दिखाना प्रभावी सृजनशीलता का नमूना है. बड़े तबक़े में एक बौखलाहट देखी जा सकती है. बेहतर तब होता जब प्रतीकों की इस दुर्दशा को देखकर आहत हुए लोग; इसमें निहित देश की दुर्दशा से इतने ही आहत होते. कला को लेकर हमारी अपरिपक्व समझ और हमारी कट्टरता ने अभिव्यक्ति की सीमा निर्धारित करने का जो प्रयास किया है; वह हमारे लिए ही ख़तरनाक सवित होगा.  हमें सोचना चाहिए कि क्या सत्यमेव जयते की भावना पर असत्यमेव जयते या भ्रष्टमेव जयते की भावना हावी नहीं हो गयी है? क्या सत्य की सुरक्षा को सुनिश्चत करने का आश्वासन देते सिंह भेड़िये जैसे धुर्त नहीं हो गए हैं ? क्या संसद भवन में सांसदों के अभद्र आचरण पर हमें शर्म नहीं आती है ? क्या हमें नहीं लगता कि हम सबकी भावनाओं से निर्मित जो हमारा देश है; उसके साथ रोज बलात्कार हो रहा है? कार्टून दृश्य विधा है. हमारी कही गयी बातों की अपेक्षा ज़्यादा मुखर. इसलिए कार्टून में यही अभिव्यक्ति हमें अखड़ती है. इसी विषय वस्तु का यदि फिल्मांकन किया जाये तो बहुत संभव है कि कोरी भावुकता से भरे कट्टर लोग हिंसा तक पर उतारू हो जाएँ. सच तो सिर्फ सच होता है. अभिव्यक्ति की विधा अलग अलग हो सकती है. असीम ने अभिव्यक्ति की विधा के तौर पर कार्टून को चुना है. निश्चत तौर पर यह ज्यादा बेधने वाली विधा है. असीम ने सच को कलाभिव्यक्ति भर दी है. तमाम विसंगतियों के बीच हम यशपाल की कहानी परदाकी तरह अपने प्रतीकों के परदे से ढँके नहीं रह सकते. हमें यह सोचना ही होगा की हमारे सारे प्रतीक किस तरह हमारे और हमारे देश चलाने वालों के आचरण से अपना अर्थ और स्वरूप खोते जा रहे हैं. असीम ने इसी को व्यक्त करने का प्रयास किया है. बहुत ज़रूरी है कि हम असीम के बनाए कार्टूनों की तरह; प्रतीकों के संवेदनशील चरित्र पर भी विचार करें. हमें यह ध्यान रखना चाहिए की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नगाड़े बजा कर भी कहीं हम कला को नष्ट करने का ख़तरनाक तरीका तो नहीं चुनते जा रहे हैं ! बहुत ज़रुरी है कि कला की सुदृढ़ आलोचना परंपरा का विकास हो. अन्यथा कला को लेकर हमारी उथली समझ; कला की सीमा निर्धारित करने का औज़ार बन जाएगी. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हुए भी असीम के कार्टून की निंदा करना; प्रगतिशीलता और कला को लेकर हमारी समझ का द्वन्द्व ही है. असीम ने प्रतीकों में निहित भावना और वर्तमान परिस्थिथि में उस भावना की नियति का विरोधाभास (कंट्रास्ट) दिखाने में ज़बरदस्त सफलता पाई है. यह बेहिचक कहा जा जा सकता है कि वे बेहद प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट हैं. और मुक्तिबोध की उस भावना का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात करता है.

असीम के कुछ इंटरव्यू देखने के बाद उनहें अपरिपक्व व बचकाना कहने का सबको मौका मिल गया है. यह बात सही भी है की असीम ने कई अगंभीर बातें भी की हैं. वे अपनी परिपक्वता का प्रदर्शन नहीं कर सके हैं. लेकिन अपने कार्टून में राष्ट्रीय प्रतीकों के इस्तेमाल को लेकर उनका पक्ष बहुत स्पष्ट है. हमें भी असीम की अभिव्यक्ति को उनके कार्टून में ही ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. असीम अपनी भावना को बेहद तार्किक ढंग से बोल कर अभिव्यक्त कर सकें; तभी उनके कार्टून की प्रासंगिकता है; हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए. असीम बहुत बौद्धिक हों; यह भी जरुरी नहीं है. वे अपने निजी जीवन में व्यवहार कुशल और अच्छे इन्सान हों; इसकी भी हमें अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. असीम की भावनाएँ सबसे बेहतरीन ढंग से उनके कार्टून में मुखर होती है. और कार्टून की सार्थक व्याख्या ही असीम की भावनाओं और विचारों से हमें जोड़ सकती है.


यह कहना भी सही नहीं है कि असीम ने रातों-रात प्रसिद्द हो जाने का आसान रास्ता चुना है. असीम के ये विवादास्पद कार्टून ताज़ा नहीं हैं. इन्हें बनाते हुए असीम को ऐसा ज़रुर लगा होगा कि लोग ज़्यादा आकर्षित होंगे. देशद्रोह का मुक्कदमा उनपर दायर किया जाएगा और उनकी ग़िरफ्तारी होगी ऐसी कल्पना तो कम से कम उन्होंने भी नहीं की होगी. दरअसल देशद्रोह के मुक्कदमे ने उन्हें बहस के केंद्र में लाने का काम किया है. और अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की हिम्मत ने उन्हें लोकप्रियता दी है. कुछ स्टंटबाजों की आड़ लेकर अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने वाले लोगों को स्टंटबाज कहने की जो परंपरा विकसित हो रही है; वह ग़लत है. किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले गहराई से विश्लेषण करना आवश्यक है.

Tuesday, September 11, 2012

असीम त्रिवेदी तो कलानुवादक भर हैं : एक छोटी सी टिप्पणी

साभार :indiatoday.intoday.in*
असीम त्रिवेदी की गिरफ़्तारी और उनके कार्टून को लेकर कुछ ग़ैरजिम्मेदार बौद्धिक बहसों से गुजरते हुए लगा कि राष्ट्रीय प्रतीक पता नहीं किस लोक से उतार कर भू -लोक के भारतवासियों से इंट्रोड्यूस कराये गए हैं . प्रतीकों की श्रेष्ठता जीवन से ज्यादा दिखने लगे; और आलोचक व मीडिया उसकी व्याख्या इसी तरह करने लगे तो समझना चाहिए कि दुर्दिन आ गए हैं !
तय है कि ये प्रतीक हमारी भावनाओं के प्रतिनिधि के तौर पर निर्मित किये गए होंगे. लेकिन जब भावनाएं लगातार आहत हो रही हों; तब प्रतीकों के क्या मायने रह जाते हैं!! रघुवीर सहाय ने अपनी कविता अधिनायक में लिखा है :
राष्ट्र गीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसके गुन हरचरना गाता है !!
नागार्जुन ने तो राष्ट्रपिता गाँधी को भी नहीं छोड़ा : बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !!
अब इन दोनों काव्यांशों की कल्पना कार्टून के रूप में करें तो असीम आपको कहीं से अराजक नहीं लगेंगे. किसी को रघुवीर और नागार्जुन ही अराजक लगते हों; फिर कोई बहस ही बेकार है !!
असीम के कार्टून को मैं अलग नज़रिये से समझता हूँ. यह प्रतीकों में निहित मूल भावना और वर्तमान परिदृश्य के कंट्रास्ट को दिखाता है . वर्तमान का प्रतीक यही हो सकता है . असीम ने कलानुवाद भर किया है ; कृतिकारों को तो हम सब बखूबी पहचानते हैं !!


[*असीम त्रिवेदी का विवादास्पद कार्टून जिसकी वज़ह से उन्हें 9 सितम्बर 2012 को गिरफ़्तार किया गया था।]

Sunday, September 2, 2012

दिल्ली विश्वविद्यालय में सुरक्षा और लोकतंत्र का संकट

फैकल्टी आफ आर्ट्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
साभार:
www.indiaafricaconnect.in
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव चौदह सितम्बर को होना है. इसी सिलसिले में शुक्रवार;31-08-2012 को विश्विद्यालय के उत्तरी परिसर में छात्र संगठन एनएसयूआई ने एक रैली का आयोजन किया था. कई बसों में भरकर स्कूली लड़के और आवारा क़िस्म के युवाओं को जमा किया गया था. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कुछ देर केलिए कैम्पस में आतंक का माहौल पसर गया था. इन लोगों ने जम कर हंगामा किया. आते जाते छात्रों से बदतमीजी और छात्राओं को प्रताड़ित करने की बहुत सारी घटनाएँ सामने आयीं लेकिन पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा. एनएसयूआई व इसी की तरह विचारहीनता के शिकार कुछ अन्य छात्र संगठनों द्वारा अराजकता का ऐसा प्रदर्शन इस विश्वविद्यालय केलिए कोई नया अनुभव नहीं है. विश्वविद्यालय प्रशासन से इन्हें शह मिलता रहा है; यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है.
अधिक चिंताजनक एक और विषय इसी घटना की आड़ में पैदा हुआ है. दिखावे में माहिर विश्वविद्यालय के उपकुलपति दिनेश सिंह की पहल पर शनिवार; 01-09-2012 को छात्रो-अविभावकों का उनके साथ सवाल-ज़वाब का एक कार्यक्रम विश्वविद्यालय रग्बी ग्राउंड में रखा गया था. उनके उत्साह का रंग-भंग तब हुआ जब इन्द्रप्रस्थ कॉलेज की एक छात्रा ने एनएसयूआई की उक्त रैली का ज़िक्र करते हुए; अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की पीड़ा सुनाई और विश्वविद्यालय प्रशासन से कैम्पस के असुरक्षित माहौल को लेकर सवाल किये. इस मुद्दे पर  उपकुलपति को काफ़ी फजीहत झेलनी पडी. घिर चुके उपकुलपति ने जल्दी ही कोई ठोस कदम उठाने का आश्वासन दिया. शाम के छः बजे तक मीडिया के ज़रिये यह खबर आने लगी कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने कैम्पस में किसी भी तरह की रैलियों और प्रदर्शनों पर रोक लगा दी है.*
अब विचारणीय यह है कि क्या विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उठाया गया यह कदम न्यायोचित है? प्रशासन ने आनन-फानन में अपने नाकारेपन को ढांपने की असफल कोशिश की है या इसमें उसका कोई निहित उद्देश्य है?
विश्वविद्यालय परिसर में जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. छात्रसंघ चुनाव के दौर में विश्वविद्यालय प्रशासन रैलियों और प्रदर्शनों की वीडिओग्राफी भी करवाता है. वीडिओ फुटेज के सहारे दोषी लड़कों को चिह्नित किया जा सकता है. उन पर कानूनी कारवाई की जा सकती है. मौके पर मौज़ूद मूकदर्शक बने पुलिसकर्मियों पर शिकंजा कसा जा सकता है. भीड़ की अगुआई करने वाले छात्र नेताओं को दण्डित किया जा सकता है. यहाँ तक कि उनमे से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को नामांकन तक से रोका जा सकता है. ऐसा करके अराजक तत्वों को एक कड़ा सन्देश दिया जा सकता है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है.
पिछले कुछ दिनों से विश्वविद्यालय प्रशासन का रबैया घोर अलोकतांत्रिक रहा है. जिसतरह उपकुलपति और उनकी टीम के उनके विश्वस्त मनमाने ढंग से फैसले ले रहे हैं; शिक्षकों-छात्रों में भारी रोष है. ऐसे में विरोध के स्वर लगातार मुखर हो रहे हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन इन विरोधी स्वरों को दवाने का लगातार प्रयास कर रहा है. कुछ हालिया उदाहरण हमारे सामने हैं. जबकि सेमेस्टर प्रणाली को भारी विरोध के बावजूद लागू करवाने और अब उसकी खामियों के लगातार सामने आने की बात ज्वलंत ही है; कुछ दिनों पहले मेटा यूनिवर्सिटी कांसेप्ट को आपात बैठक के माध्यम से स्वीकृत करवाने के बाद इसे मीडिया के माध्यम से प्रसारित कर दिया गया. विश्वविद्यालय के शिक्षकों-छात्रों को इस मामले विल्कुल विश्वास में नहीं लिया गया.** प्रगतिशील तबके में यह कांसेप्ट संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है. इसे सरकारी युनिवर्सिटियों में प्राइवेट युनिवर्सिटियों की बैकडोर एंट्री की पूर्वपीठिका माना जा रहा है. बीते 24 अगस्त को शिक्षकों छात्रों का एक समूह इस मामले में अपनी आपत्ति दर्ज कराने उपकुलपति कार्यालय के नजदीक पहुंचना चाहता था . कथित तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार ऐसे किसी दल को पुलिस बैरिकेड लगाकर रोका गया.*** प्रशासन से विरोध जताने केलिए 28 अगस्त को हुए शिक्षकों के हड़ताल से भी फासिस्ट तरीके से निपटा गया.**** यहाँ तक कि उन शिक्षकों-छात्रों को चिह्नित कर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर धमकाए जाने का मामला भी प्रकाश में आया है; जो प्रशासन की तानाशाही के विरोध में किये गए प्रदर्शनों का हिस्सा रहे हैं. लेकिन इसी दौर में एनएसयूआई और एबीवीपी जैसे संगठनों को रैलियों प्रदर्शनों की खुली छूट दी गयी थी. 31 अगस्त को कैम्पस में इसी का एक नजारा दिखा था. ऐसे में प्रशासन की नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक है. जिस तरह से उपकुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय को बाजारीकरण और अपने उटपटाँग प्रयोगों का केंद्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं; प्रगतिशील ताक़तों के द्वारा उनके विरोधों के तीव्रतम होते जाने की आशंका उन्हें भी है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि प्रशासन की निगाहें कही और हैं और निशाना कहीं और लगाया गया है. विरोध प्रदर्शनों की संस्कृति को नष्ट कर; प्रशासन अपने नापाक इरादों के रास्ते के सारे अवरोध हँटा देना चाहता है. बीते कई सालों का अनुभव कहता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन को अराजक रैलियों से कोई परेशानी नहीं है. परेशानी होती तो यह परंपरा अब तक फलती फूलती नहीं. प्रशासन को दिक्कत है; तो उन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों से है; जो मुद्दों के आधार पर प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं.
प्रशासन के इस अप्रत्यक्ष आपातकाल का विरोध नहीं होगा; यह भ्रम प्रशासन को भी नहीं होगा. संभवतः ऐसी स्थिति से निपटने के फासिस्ट तरीक़ों की तैयारी को भी अंतिम रूप दिया जा चुका होगा. बहरहाल रग्बी ग्राउंड में इन्द्रप्रस्थ कालेज की छात्रा द्वारा उपकुलपति को सुनाई गयी कटु आपबीती विश्वविद्यालय की किसी भी छात्रा द्वारा सुनाई जाने वाली इस तरह की अंतिम आपबीती हो; हम यह कामना भर कर सकते हैं. कैम्पस में असुरक्षा को लेकर उठाये गए उसके सवालों को हल करने की ग़ैरईमानदार और ग़ैरज़िम्मेदाराना कोशिश को तो बेनक़ाब होना ही है.



साभार साक्ष्य :

    *http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Delhi-University-bans-rallies-after-molestation/articleshow/16163636.cms
  **http://www.deccanherald.com/content/265437/duta-opposes-vcs-meta-varsity.html
 ***http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article3819243.ece   ****http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article3825938.ece