साभार :indiatoday.intoday.in* |
असीम त्रिवेदी की
गिरफ़्तारी और उनके कार्टून को लेकर कुछ ग़ैरजिम्मेदार बौद्धिक बहसों से गुजरते
हुए लगा कि राष्ट्रीय प्रतीक पता नहीं किस लोक से उतार कर भू -लोक के भारतवासियों
से इंट्रोड्यूस कराये गए हैं . प्रतीकों की श्रेष्ठता जीवन से ज्यादा दिखने लगे; और आलोचक व मीडिया उसकी व्याख्या इसी तरह करने लगे तो समझना
चाहिए कि दुर्दिन आ गए हैं !
तय है कि ये प्रतीक
हमारी भावनाओं के प्रतिनिधि के तौर पर निर्मित किये गए होंगे. लेकिन जब भावनाएं
लगातार आहत हो रही हों; तब प्रतीकों के क्या मायने रह जाते हैं!! रघुवीर सहाय ने अपनी कविता अधिनायक
में लिखा है :
राष्ट्र गीत में भला कौन
वह भारत भाग्य विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसके गुन हरचरना गाता है !!
नागार्जुन ने तो
राष्ट्रपिता गाँधी को भी नहीं छोड़ा : बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !!
अब इन दोनों काव्यांशों
की कल्पना कार्टून के रूप में करें तो असीम आपको कहीं से अराजक नहीं लगेंगे. किसी
को रघुवीर और नागार्जुन ही अराजक लगते हों; फिर कोई बहस ही बेकार है !!
असीम के कार्टून को मैं
अलग नज़रिये से समझता हूँ. यह प्रतीकों में निहित मूल भावना और वर्तमान परिदृश्य
के कंट्रास्ट को दिखाता है . वर्तमान का प्रतीक यही हो सकता है . असीम ने कलानुवाद
भर किया है ; कृतिकारों
को तो हम सब बखूबी पहचानते हैं !!
[*असीम त्रिवेदी का
विवादास्पद कार्टून जिसकी वज़ह से उन्हें 9 सितम्बर 2012 को गिरफ़्तार किया गया
था।]
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