Sunday, September 2, 2012

दिल्ली विश्वविद्यालय में सुरक्षा और लोकतंत्र का संकट

फैकल्टी आफ आर्ट्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
साभार:
www.indiaafricaconnect.in
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव चौदह सितम्बर को होना है. इसी सिलसिले में शुक्रवार;31-08-2012 को विश्विद्यालय के उत्तरी परिसर में छात्र संगठन एनएसयूआई ने एक रैली का आयोजन किया था. कई बसों में भरकर स्कूली लड़के और आवारा क़िस्म के युवाओं को जमा किया गया था. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कुछ देर केलिए कैम्पस में आतंक का माहौल पसर गया था. इन लोगों ने जम कर हंगामा किया. आते जाते छात्रों से बदतमीजी और छात्राओं को प्रताड़ित करने की बहुत सारी घटनाएँ सामने आयीं लेकिन पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा. एनएसयूआई व इसी की तरह विचारहीनता के शिकार कुछ अन्य छात्र संगठनों द्वारा अराजकता का ऐसा प्रदर्शन इस विश्वविद्यालय केलिए कोई नया अनुभव नहीं है. विश्वविद्यालय प्रशासन से इन्हें शह मिलता रहा है; यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है.
अधिक चिंताजनक एक और विषय इसी घटना की आड़ में पैदा हुआ है. दिखावे में माहिर विश्वविद्यालय के उपकुलपति दिनेश सिंह की पहल पर शनिवार; 01-09-2012 को छात्रो-अविभावकों का उनके साथ सवाल-ज़वाब का एक कार्यक्रम विश्वविद्यालय रग्बी ग्राउंड में रखा गया था. उनके उत्साह का रंग-भंग तब हुआ जब इन्द्रप्रस्थ कॉलेज की एक छात्रा ने एनएसयूआई की उक्त रैली का ज़िक्र करते हुए; अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की पीड़ा सुनाई और विश्वविद्यालय प्रशासन से कैम्पस के असुरक्षित माहौल को लेकर सवाल किये. इस मुद्दे पर  उपकुलपति को काफ़ी फजीहत झेलनी पडी. घिर चुके उपकुलपति ने जल्दी ही कोई ठोस कदम उठाने का आश्वासन दिया. शाम के छः बजे तक मीडिया के ज़रिये यह खबर आने लगी कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने कैम्पस में किसी भी तरह की रैलियों और प्रदर्शनों पर रोक लगा दी है.*
अब विचारणीय यह है कि क्या विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उठाया गया यह कदम न्यायोचित है? प्रशासन ने आनन-फानन में अपने नाकारेपन को ढांपने की असफल कोशिश की है या इसमें उसका कोई निहित उद्देश्य है?
विश्वविद्यालय परिसर में जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. छात्रसंघ चुनाव के दौर में विश्वविद्यालय प्रशासन रैलियों और प्रदर्शनों की वीडिओग्राफी भी करवाता है. वीडिओ फुटेज के सहारे दोषी लड़कों को चिह्नित किया जा सकता है. उन पर कानूनी कारवाई की जा सकती है. मौके पर मौज़ूद मूकदर्शक बने पुलिसकर्मियों पर शिकंजा कसा जा सकता है. भीड़ की अगुआई करने वाले छात्र नेताओं को दण्डित किया जा सकता है. यहाँ तक कि उनमे से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को नामांकन तक से रोका जा सकता है. ऐसा करके अराजक तत्वों को एक कड़ा सन्देश दिया जा सकता है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है.
पिछले कुछ दिनों से विश्वविद्यालय प्रशासन का रबैया घोर अलोकतांत्रिक रहा है. जिसतरह उपकुलपति और उनकी टीम के उनके विश्वस्त मनमाने ढंग से फैसले ले रहे हैं; शिक्षकों-छात्रों में भारी रोष है. ऐसे में विरोध के स्वर लगातार मुखर हो रहे हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन इन विरोधी स्वरों को दवाने का लगातार प्रयास कर रहा है. कुछ हालिया उदाहरण हमारे सामने हैं. जबकि सेमेस्टर प्रणाली को भारी विरोध के बावजूद लागू करवाने और अब उसकी खामियों के लगातार सामने आने की बात ज्वलंत ही है; कुछ दिनों पहले मेटा यूनिवर्सिटी कांसेप्ट को आपात बैठक के माध्यम से स्वीकृत करवाने के बाद इसे मीडिया के माध्यम से प्रसारित कर दिया गया. विश्वविद्यालय के शिक्षकों-छात्रों को इस मामले विल्कुल विश्वास में नहीं लिया गया.** प्रगतिशील तबके में यह कांसेप्ट संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है. इसे सरकारी युनिवर्सिटियों में प्राइवेट युनिवर्सिटियों की बैकडोर एंट्री की पूर्वपीठिका माना जा रहा है. बीते 24 अगस्त को शिक्षकों छात्रों का एक समूह इस मामले में अपनी आपत्ति दर्ज कराने उपकुलपति कार्यालय के नजदीक पहुंचना चाहता था . कथित तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार ऐसे किसी दल को पुलिस बैरिकेड लगाकर रोका गया.*** प्रशासन से विरोध जताने केलिए 28 अगस्त को हुए शिक्षकों के हड़ताल से भी फासिस्ट तरीके से निपटा गया.**** यहाँ तक कि उन शिक्षकों-छात्रों को चिह्नित कर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर धमकाए जाने का मामला भी प्रकाश में आया है; जो प्रशासन की तानाशाही के विरोध में किये गए प्रदर्शनों का हिस्सा रहे हैं. लेकिन इसी दौर में एनएसयूआई और एबीवीपी जैसे संगठनों को रैलियों प्रदर्शनों की खुली छूट दी गयी थी. 31 अगस्त को कैम्पस में इसी का एक नजारा दिखा था. ऐसे में प्रशासन की नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक है. जिस तरह से उपकुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय को बाजारीकरण और अपने उटपटाँग प्रयोगों का केंद्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं; प्रगतिशील ताक़तों के द्वारा उनके विरोधों के तीव्रतम होते जाने की आशंका उन्हें भी है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि प्रशासन की निगाहें कही और हैं और निशाना कहीं और लगाया गया है. विरोध प्रदर्शनों की संस्कृति को नष्ट कर; प्रशासन अपने नापाक इरादों के रास्ते के सारे अवरोध हँटा देना चाहता है. बीते कई सालों का अनुभव कहता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन को अराजक रैलियों से कोई परेशानी नहीं है. परेशानी होती तो यह परंपरा अब तक फलती फूलती नहीं. प्रशासन को दिक्कत है; तो उन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों से है; जो मुद्दों के आधार पर प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं.
प्रशासन के इस अप्रत्यक्ष आपातकाल का विरोध नहीं होगा; यह भ्रम प्रशासन को भी नहीं होगा. संभवतः ऐसी स्थिति से निपटने के फासिस्ट तरीक़ों की तैयारी को भी अंतिम रूप दिया जा चुका होगा. बहरहाल रग्बी ग्राउंड में इन्द्रप्रस्थ कालेज की छात्रा द्वारा उपकुलपति को सुनाई गयी कटु आपबीती विश्वविद्यालय की किसी भी छात्रा द्वारा सुनाई जाने वाली इस तरह की अंतिम आपबीती हो; हम यह कामना भर कर सकते हैं. कैम्पस में असुरक्षा को लेकर उठाये गए उसके सवालों को हल करने की ग़ैरईमानदार और ग़ैरज़िम्मेदाराना कोशिश को तो बेनक़ाब होना ही है.



साभार साक्ष्य :

    *http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Delhi-University-bans-rallies-after-molestation/articleshow/16163636.cms
  **http://www.deccanherald.com/content/265437/duta-opposes-vcs-meta-varsity.html
 ***http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article3819243.ece   ****http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article3825938.ece

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