Tuesday, June 25, 2013

भ्रामक दलीलों के विरूद्ध

यह प्रतिक्रिया मूल रूप से जनसत्ता के लिए लिखी गयी थी। जनसत्ता ने इसे प्रकाशित नहीं किया। इसे ब्लॉग पर साझा कर रहा हूँ कि कुछ पाठकों तक पहुँचे। निरंजन कुमार के जिस लेख पर यह प्रतिक्रिया लिखी गयी है, वह है- ज्ञान बनाम जीवन-कर्म ई-संस्करण     इसी लेख पर 16 जून 2013 को बजरंग बिहारी तिवारी की प्रतिक्रया जनसत्ता में प्रकाशित हुई है- न ज्ञान न जीवन-कर्म / ई-संस्करण  इस प्रतिक्रिया में व्यक्त तर्कों और विचारों की मौलिकता का दावा विल्कुल भी नहीं है। सारे तर्क और विचार चार-वर्षीय स्नातक कार्यक्रम के विरोध में हुए आंदोलन और उसकी तैयारी के क्रम में निर्मित हुए हैं। मैंने उसे प्रस्तुत भर किया है। कुछ निजी समस्यायों की वजह से इस आंदोलन में सक्रिय नहीं रह पाने का मलाल भी है।

देव कबीर मलिक के द्वारा डिजाइन किया गया । साभारThe Sunday Guardian

निरंजन कुमार के आलेख ज्ञान बनाम जीवन कर्म’ (जनसत्ता, 2 जून 2013) में संतुलन की बात की गयी है, लेकिन यह आलेख स्वयं में लेखक की असंतुलित दृष्टि का उदाहरण है । इस आलेख में दिल्ली विश्वविद्यालय के द्वारा स्वीकृत चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (Four Year Undergraduate Programme : FYUP) के पक्ष में विश्वविद्यालय प्रशासन के भ्रामक दलीलों को ही आगे बढ़ाने का काम किया गया है । विश्वविद्यालय के उपकुलपति दिनेश सिंह लगातार यह बताने की कोशिश करते रहे हैं कि इस नये ढाँचेके आने से पहले का हमारा स्नातक पाठ्यक्रम किसी काम का नहीं था । निरंजन कुमार भी इसी तर्क पद्धति का अनुसरण करते हैं । उनकी पहली चिंता यह है कि पुराने ढाँचेके किसी भी विषय के स्नातक इस योग्य नहीं होते कि वे एक सक्षम बैंक अधिकारी, पुलिस उपनिरीक्षक या प्रशासनिक अधिकारी बन सके । इस दावे का आधार क्या है यह वे स्पष्ट नहीं कर सके हैं । कभी संघ लोक सेवा आयोग या किसी अन्य जिम्मेदार संस्थान ने यह समस्या उठायी हो कि हमारी शिक्षा व्यवस्था की वजह से हमारे यहाँ काबिल अधिकारी नहीं आ पाते, कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं है । हमारे यहाँ योग्यता का अभाव कभी समस्या नहीं रही है । रोजगार का अभाव एक समस्या जरूर रही है । किसी और अभाव का जिक्र करना यदि समीचीन है, तो वह है ईमानदारी और इच्छाशक्ति का अभाव जिसकी वजह से अयोग्य व्यक्तियों को भी अवसर मिल जाता है ।

निरंजन कुमार की दूसरी चिंता है कि पुराने ढाँचेके स्नातक सामान्य जीवन में भी संतुलित और जिम्मेदार व्यक्ति के तौर पर नहीं उभर पाते हैं । उनकी बात मान लें तो हमें यह मान लेना होगा कि भारतीय विश्वविद्यालयों के स्नातक अपने जीवन में असंतुलित और गैरजिम्मेदार ही रह जाते हैं । वे लिखते हैं एक व्यक्ति को दैनिक जीवन में में पर्यावरण, स्वास्थ्य, राजनीतिक जीवन, प्रशासन-कानून, आर्थिक परिस्थितियों , सामाजिक-मनोवैज्ञानिक समायोजन, इतिहास संस्कृति जैसी चीजों से रूबरू होना पड़ता है, जिसके बारे में समान्य स्नातक को सम्यक ज्ञान नहीं होता, चाहे वह किसी वर्ग का हो ।
ज्ञान के जिन क्षेत्रों से वे रूबरू होने की वे बात करते हैं वह सही है । गरबड़ी उनके निष्कर्ष में है । विश्वविद्यालयों में जिस तरह से बोझिल पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों को उलझाए रखने की कोशिश की जा रही है, निरंजन कुमार की सोच भी इसी कोशिश से प्रेरित है । वे यह मान बैठे हैं कि ज्ञान बाँटने का सारा काम कक्षाओं में ही सम्पन्न होता है और दुनिया भर का ज्ञान पाठ्यक्रमों में ही निहित होता है । चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को लागू करने से कुछ वर्षों पहले भारी विरोध के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमेस्टर व्यवस्था को लागू करने की रणनीति पर भी विचार करना जरूरी है । इसने विद्यार्थियों को पाठ्यक्रमों तक सीमित हो जाने के लिए विवश कर दिया । खेलकूद, सृजनात्मक लेखन, वादविवाद, प्रदर्शनियों, सामाजिक कार्यो व छात्र राजनीति में सक्रियता जैसी अतिरिक्त गतिविधियाँ, विद्यार्थियों के सर्वागीण विकास के लिए जरूरी मानी जाती रही हैं । बोझिल पाठ्यक्रम और निर्धारित अपर्याप्त कक्षाओं के दबाव ने विद्यार्थियों को जरूरी अतिरिक्त गतिविधियों को लेकर हतोत्साहित किया । निरंजन कुमार ज्ञान के जिन क्षेत्रों से वे रूबरू होने को आवश्यक मानते हैं, वह सामान्य ज्ञान का विषय है । इसे पाठ्यक्रमों से बाहर ग्रहण करने की बेहतर संभावनाएँ मौजूद रहती हैं । इसके लिए जरूरी है कि विद्यार्थियों को सोचने समझने का अवकाश उपलब्ध कराया जाए । पाठ्यक्रमों से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित किया जाए । दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी ऑनर्स स्नातक होने के नाते मेरे भी कुछ अनुभव हैं । हिन्दी साहित्य की आलोचना, हिन्दी साहित्य का इतिहास और कक्षाओं में इस पर होने वाली चर्चा हिन्दी के विद्यार्थियों को  इतिहास, मनोविज्ञान, भाषा विज्ञान, नृ-विज्ञान, राजनीति विज्ञान, दर्शन और संस्कृति जैसे विषयों के अध्ययन की प्रेरणा देती है । दरअसल विभिन्न विषयों का आपस में एक रिश्ता होता है । अपने ही विषय के प्रति गहरी अभिरूचि अन्य विषयों की जानकारी प्राप्त करने की प्रेरणा देती है । जब घटनाओं और मुद्दों को बेहतर ढंग समझने और सोचने का परिवेश हो तो निरंजन कुमार की यह आशंका भी गलत सावित होगी कि पुराने ढाँचेके स्नातक रहे संस्कृत, अर्थशास्त्र और गणित के प्राध्यापक को मानवाधिकार और कानून की सामान्य जानकारी नहीं होगी । लेकिन यह तब संभव है जब पाठ्यक्रम सुरूचिपूर्ण हो । चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम में आधारभूत पाठ्यक्रम छात्रों को उनकी रूचि के विपरीत के विषयों को पढ़ने के लिए बाध्य करेगी । इसकी भयावहता को एक उदाहरण से समझ सकते हैं । दसवीं के बाद कोई विद्यार्थी अपने बारे में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि वह गणित या विज्ञान जैसे विषयों के साथ सहज नहीं है । ऐसे में वह बारहवीं मे कला या वाणिज्य संकाय को चुनता है और उसमें बेहतर परिणाम हाँसिल करता है । चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश के बाद उस पर क्या बीतेगी जब उसे फिर से गणित और विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ने के लिए बाध्य किया जाएगा । यहाँ तक कि संगीत और फाइन आर्ट जैसे कौशल आधारित ऑनर्स पाठ्यक्रम के विद्यार्थियों पर भी आधारभूत पाठ्यक्रम और इन विषयों से इतर विषयों को पढ़ने की अनिवार्यता लाद दी गयी है ।

निरंजन कुमार ने आलेख की शुरूआत में दो बिन्दुओं को विचारणीय माना है । पहला- शिक्षा, खास तौर पर उच्च शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं? दूसरा- हमारी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर ये परिवर्तन क्या आवश्यक हैं? इन दोनों ही बिन्दुओं पर वे ठीक से अपनी बात नहीं रख सके हैं । उनके आलेख से यह आभास जरूर मिलता है कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य है देश के लिए बैंक अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों व प्रशासनिक अधिकारियों को तैयार करना । देश में इस कार्य के लिए पुलिस प्रशिक्षण अकादेमी और प्रशासनिक अकादेमी जैसी प्रशिक्षण देने वाली संस्थाएँ भी हैं, संभवतः उन्हें  इस बात का स्मरण नहीं रहा होगा । उनके अनुसार अमेरिका, कनाडा जैसे देशों से भिन्न आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद उन के शैक्षणिक प्रणाली का अनुसरण भी सही है । इस समझदारी पर क्यों न अफसोस हो । विशेषज्ञता प्रदान करना हमारे यहाँ उच्च शिक्षा प्रणाली की विशेषता रही है । इसी प्रणाली ने अपने-अपने क्षेत्र के कई धुरंधर इस देश को दिए हैं । इस शिक्षा पद्दति की ही ताकत है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ओवामा सार्वजनिक मंच से अपने देश के विद्यार्थियों को भारतीय छात्रों की क्षमता के प्रति आगाह करते हैं । एक ही कक्षा के एक ही छात्र में वकील, डाक्टर, इंजिनियर, साहित्य आलोचक, मनोवैज्ञानिक, इतिहासविद व अन्य विशेषज्ञों जैसी विशेषज्ञता के एक साथ आ जाने की कल्पना सुंदर तो लग सकती है, लेकिन यह अव्यवहारिक है ।

निरंजन कुमार बड़ी चालाकी से उन सारे सवालों से बच निकलते हैं जो चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को लेकर उठाये जा रहे हैं । एक बड़ा सवाल खतरनाक मंशा का है । हमारे देश में उच्च शिक्षा तक कम विद्यार्थियों की ही पहुँच हो पाती है । इन में से भी कई स्नातक कार्यक्रम पूरा नहीं कर पाते हैं । दूर दराज के व वंचित तबके के विद्यार्थियों के लिए एक बड़ा कारण आर्थिक असमर्थता और बोझिल पाठ्यक्रम होता है । जब पाठ्यक्रम चार वर्ष का होगा तो एक और अतिरिक्त वर्ष का बोझ छात्रों को उठाना होगा । आधारभूत पाठ्यक्रम, जिसे पहले के दो वर्ष में पढ़ना है, इसमें उन छात्रों के असफल रहने की आशंका ज्यादा है, जो पिछड़े राज्यों के शिक्षा बोर्डों से आते हैं । शोषित व वंचित तबके के उन छात्रों की असफलता की आशंका भी ज्यादा है, जिन्हें साधारण स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी लगातार मशक्कत करना पड़ती है । ऐसे में ये छात्र दो वर्ष तक भी अपने पाठ्यक्रम से जूझ सकेंगे, इसमें संदेह है । किसी तरह दो साल पूरा कर डिप्लोमा पाने में ये सफल रहे तो समस्या यह है कि जिस डिप्लोमा की कोई पहचान नहीं है, जिसके बारे में यूजीसी का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है, उसका महत्व क्या होगा ? हमारे यहाँ डिप्लोमा कार्यक्रम कौशल विशेष को प्रदान करने वाला पाठ्यक्रम रहा है । चार वर्षीय पाठ्यक्रम के दो वर्षों के पाठ्यक्रम को पढ़कर छात्रों में भला किस तरह का कौशल विकसित होगा सिवाय पाठ्यक्रम प्रदत खिचड़ी ज्ञान के ! जाहिर है उन्हें रोजगार मिलने की संभावना बहुत कम होगी । उनकी प्रतिस्पर्धा उन छात्रों से होगी जो कौशल विशेष से सम्पन्न होंगे । चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम में तीन वर्ष पूरा करने के बाद स्नातक की डिग्री मिल जाएगी । यह ऑनर्स नहीं होगा । विश्वविद्यालय में पहले भी ऑनर्स के अलावा पास कोर्स पाठ्यक्रम रहा है । यह  ऑनर्स पाठ्यक्रम के समानांतर एक स्वतंत्र पाठ्यक्रम हुआ करता था । लेकिन अब ऐसी डिग्री चार वर्षीय पाठ्यक्रम को तीसरे वर्ष में अधूरा छोड़ जाने वाले छात्रों को मिलेगी । ऐसे में पाठ्यक्रम को सफलता पूर्वक पूरा करने वाले छात्रों से वे हमेशा कमतर माने जाएँगे । ठीक इसी तरह चार वर्ष में ऑनर्स पाठ्यक्रम को पूरा करने वाले छात्र भी देश भर की प्रतियोगिता परीक्षाओं में तीन वर्षीय स्नातक करने वालो छात्रों के समकक्ष ही माने जाएँगे । इस अतिरिक्त एक वर्ष को लेकर विश्वविद्यालय और निरंजन कुमार दोनो का ही तर्क यह है कि यह एक वर्ष उन छात्रों के लिए लाभदायक है जो उच्चतर शिक्षा में जाने के इच्छुक हैं । आखिर मास्टर कार्यक्रम के रहते इसकी जरूरत ही क्या थी कि स्नातक कार्यक्रम को शोध प्रशिक्षण के लिए एक वर्ष और बढ़ा दिया जाए । कहा यह जा रहा है कि चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को पूरा करने वाले छात्रों को इस विश्वविद्यालय से एक वर्ष में मास्टर डिग्री मिल जाएगी । यह एक और छलावा है । एक वर्ष में मास्टर डिग्री देने का अर्थ यह हुआ कि इसके पहले से निर्धारित दो वर्षों में से एक वर्ष की पढ़ाई पहले ही पूरी कर ली गयी है । अन्य विश्वविद्यालय मास्टर की डिग्री देने में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को ऐसी ही सुविधा देंगे, इसके संकेत तो दूर-दूर तक नहीं हैं । यानी ऑनर्स डिग्री को हाँसिल करने के लिए एक और अतिरिक्त वर्ष जान बूझ कर थोप दिया गया है । यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन की मंशा यह है कि स्नातक की डिग्री उन्हीं छात्रों तक पहुँच सके, जो आर्थिक रूप से सवल हैं और समाज के उँचे तबके से आते हैं । विश्वविद्यालय प्रशासन की इच्छा है कि उच्चतर शिक्षा तक आर्थिक व सामाजिक रूप से  पिछड़े तबके की पहुँच ही न हो सके । उच्चतर शिक्षा के माध्यम से जो रोजगार हाँसिल होते हैं वहाँ एक खास वर्ग का दबदबा हो । इस तरह चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम अपने चरित्र में आरक्षण जैसी सामाजिक न्याय की व्यवस्था को भी तकनीकी रूप से मात देने का हथियार बन सकता है । जिस तरह उच्च शिक्षा तक छात्रों की पहुँच व स्नातक पूरा न कर पाना एक बड़ी समस्या रही है, इसके जड़ तक पहुँच कर इसे हल करने का प्रयास किया जाना चाहिए था । इसके विपरीत विश्वविद्यालय द्वारा मल्टि एक्जिट पोइंटका प्रचार दरअसल स्नातक की पढ़ाई को बीच में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करेगा ।

एक अतिरिक्त वर्ष के पाठ्यक्रम से विश्वविद्यालय पर अतिरिक्त हजारो छात्रों का दबाव बढ़ेगा । यह आशंका अतिरंजित नहीं है कि ऐसे में ढाँचागत अभाव को पूरा करने के बहाने निजी विश्वविद्यालयों को घुसपैठ का अवसर दे दिया जाएगा । जामिया मिलिया के साथ मिलकर दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा शुरू किये गए मेटा यूनिवर्सिटी प्रोग्राम में कोरपोरेट भागीदारी की झलक विश्वविद्यालय प्रशासन के कोरपोरेट प्रेम का बेहतरीन परिचय देती है ।
          
चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम विश्वविद्यालय शिक्षा व्यवस्था की कमर तोड़ कर रख देगा । यह ज्ञान और विशेषज्ञता के उत्पादन को खत्म कर देगा । थोक में बेरोजगारों की ऐसी फौज तैयार होगी जो कॉरपोरेट घराने के लिए सस्ते श्रम की जरूरत को पूरा करने के लिए मजबूर होगी ।

निरंजन कुमार ने चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को लोकतांत्रिक पद्धति से स्वीकृत किये जाने का जिक्र किया है । यही तो दुर्भाग्यपूर्ण है । यह भ्रम कई लोगों को हो जाता है कि सत्ता के जो भागीदार होते हैं, उनके द्वारा अपने अधिकार का मनमाना प्रयोग भी जिंदा लोकतंत्र का उदाहरण है । उचित होता कि निरंजन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों के द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के द्वारा  चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम के लगातार विरोध की चर्चा करते । यह भी बताते कि विश्वविद्यालय प्रशासन इस शिक्षक संघ से संवाद स्थापित करना भी उचित नहीं समझता रहा है । बल्कि छात्रों-शिक्षकों के विरोध के दमन में लगातार सक्रिय रहा है ।
                     
महज कुछ दिनों में चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम की घोषणा से लेकर इसे लागू करवाने तक का कार्य सम्पन्न हो गया । ऐसे में निरंजन कुमार का यह दावा हास्यास्पद लगता है कि पाठ्यक्रम का निर्माण हरबड़ी में नहीं किया गया है । निरंजन कुमार ने लिखा है कि चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम का विरोध एक खास विचारधारा के शिक्षक कर रहे हैं । बेहतर होता कि वे इस खास विचारधाराको स्पष्ट करने का साहस दिखाते । निश्चित रूप से यह खास विचारधाराछात्रों का हित चाहने वाली और सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाली विचारधारा है । इस तरह निरंजन कुमार का यह दावा विल्कुल सही है कि इस विरोध को सभी शिक्षकों का विरोध समझना गलत है !!

Sunday, June 9, 2013

विकल्पहीनता और विकल्प

साभार : दी इंडियन एक्सप्रेस                           
बिहार का महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव पिछले दिनों चर्चा का विषय बना रहा । नीतीश कुमार ने जनता से विकास और सुशासन का दावा करते हुए वोट मांगे थे । इस तरह यह जद (यू) और राजद के बीच का चुनाव नहीं रह गया था । यह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लिए नाक की लड़ाई बन चुकी थी । नीतीश कुमार के सुशासन और विकास के दावे को जनता ने खारिज कर दिया । राजद प्रत्याशी प्रभुनाथ सिंह ने जद (यू) के उम्मीदवार पीके शाही को करीब एक लाख सैंतीस हजार मतों के भारी अंतर से पराजित कर दिया । चुनाव परिणाम ने लालू प्रसाद यादव को खुश होने का मौका दिया है । मीडिया उन्हें पर्याप्त तबज्जो दे रही है । लालू भी अपनी वापसी के दावे करने से चूक नहीं रहे हैं । जद (यू) का कहना है कि राजद को महज एक लोकसभा उपचुनाव में मिली जीत पर इतना इतराना नहीं चाहिए । जद (यू) के अनुसार इस चुनाव परिणाम को पूरे बिहार का जनादेश समझना गलत है । पार्टी अपनी झेंप मिटाने के लिए कुछ भी कहे, यह चुनाव परिणाम नीतीश कुमार के अति आत्मविश्वास को जबरदस्त चुनौती देता है ।
बिहार की जनता ने आठ वर्ष पहले राजद से बुरी तरह ऊब कर नीतीश को सत्ता सौंपी थी । लालू प्रसाद यादव और बाद में उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री के रूप में करीब पन्द्रह वर्षों तक बिहार में सत्ता का सुख भोगा था । इस कालखंड में बिहार का पिछड़ापन बढ़ता ही चला गया था । अपराध का ग्राफ बढ़ने लगा था । शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य सेवाओं सहित कई बुनियादी सेवाओं की बदहाली से आम जनता परेशान हो गयी थी । उन्नीस सौ नब्बे के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव का मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाना एक सुखद संकेत माना गया था । इसे गरीबों-पिछड़ों की सत्ता में हिस्सेदारी के रूप में देखा गया था । लेकिन लालू प्रसाद यादव बाद में जातीय गणित में माहिर हो गये । यह रास्ता उन्हें ज्यादा सुविधाजनक लगा । कुशासन की परंपरा फलने-फूलने लगी । बिहार में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी बढ़ती चली गयी । गंभीर समस्यायों से जूझते बिहार को लालू यादव के तिलिस्म से बाहर आने में पन्द्रह वर्ष लग गये ।
2005 में नीतीश कुमार को बिहार की जनता ने भारी आशा के साथ सत्ता सौंपी थी । जनादेश ने लालू प्रसाद की राजनीति को पूरी तरह नकार दिया था । शुरू में नीतीश कुमार जनता की आशा पर खरे उतरते दिखे थे । अपराध का ग्राफ घटा था और भ्रष्टाचार के कम होने व बदहाली से उबरने के संकेत मिलने लगे थे । धीरे-धीरे यह उत्साह खत्म होने लगा । नीतीश की सरकार भी कागजी उपलब्धियों की सरकार बनने लगी । पन्द्रह वर्ष के कुशासन के बदले सुशासन का सिर्फ ढोल पीटा जा रहा था । बिहार की मीडिया को सत्ता ने इस तरह प्रभावित किया कि नीतीश सरकार की प्रशंसा में वह अब तक लिप्त रहती है । मीडिया ने जो माहौल तैयार किया उससे नीतीश कुमार की छवि राष्ट्रीय स्तर पर एक सक्षम नेता के रूप में उभरी । अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर भी उन्हें पहचान मिली । इसी माहौल में नीतीश कुमार 2010 में दुबारा सत्ता में लौटे । जनता के लिए लालू-राज की भयावहता की तुलना में यह फिर भी बेहतर विकल्प था ।
नीतीश कुमार की दूसरी पारी में जनता को हकीकत से रूबरू होने का ज्यादा मौका मिला है । इस बार नीतीश का अहंकार कई मौकों पर साफ दिख जाता है । सरकार को एक व्यक्ति की सरकार बना देने में नीतीश ने कोई कसर नहीं छोड़ी है । राज्य के विभिन्न विभागों के कर्मचारियों की  समस्यायों को लेकर नीतीश बात तक करने को तैयार नहीं होते हैं । जनता के सड़कों पर उतरने से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता । तस्लीमुद्दीन जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को अपनी पार्टी में जगह देने से उन्हें परहेज नहीं रह गया है । रणवीर सेना के राजनीतिक दलों से सम्बंध की जाँच के लिए बने अमीर दास आयोग को भंग करने का फैसला लेकर नीतीश  सरकार ने दलित नरसंहार को लेकर न्याय की आशा पर पानी फेरने का काम किया है । मतलब साफ है कि पिछड़े की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार सवर्ण भूमिहारों की नाराजगी की चिंता करने लगे हैं । मंत्रियों और उनके सम्बंधियों को सस्ते दरों पर भूमि आवंटित करने के मामले पर भी नीतीश कुमार चुप ही रहे हैं । बाढ़ राहत घोटाले की जाँच भी सरकार ठीक ढंग से नहीं करा सकी है । भाजपा के सहयोग से सरकार चलाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी से विरोध का उनका नाटक भी लोगों को रास नहीं आ रहा है । कुल मिला कर नीतीश कुमार जनता की नजरों में एक गैर ईमानदार, तानाशाह, बड़बोले और दोहरा चरित्र रखने वाले नेता के तौर पर स्थापित होते जा रहे हैं । हालाँकि मीडिया के हीरो वे आज भी हैं । ऐसे में महाराजगंज उपचुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को मिली करारी हार को नीतीश सरकार के प्रति जनता में व्याप्त भारी रोष की के रूप में देखा जाना उचित है । अभी तो यह नहीं लग रहा है कि जद (यू) इस चुनाव परिणाम से सबक लेने के मूड में है ।

महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव का परिणाम एक बड़ी समस्या की ओर हमारा ध्यान खींचता है । इस परिणाम में विकल्पहीनता के संकेत निहित हैं । नीतीश से ऊब चुकी जनता के पास क्या सिर्फ उसी राजनीति की ओर लौट जाने का रास्ता शेष बचा है, जिसके कारण लगातार पन्द्रह वर्षों तक उसने ने यंत्रणा भोगी है ? इस बीच मीडिया ने यह जताने की कोशिश की है कि लालू अब बदल गये हैं । लेकिन यह सच नहीं है । पिछले कुछ वर्षों से सत्ता में नहीं होने से उनका रूतबा कम जरूर हो गया है, लेकिन तेबर अब भी वही है । पिछले आठ वर्षों में एक बार भी ऐसा अवसर नहीं आया है जब वे सही राजनीति के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखा सके हैं । उनके पास अपनी गलती को सुधारने के पर्याप्त अवसर थे लेकिन उन्होंने इसे गँवा दिया । पहली बार जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे तब लालू प्रसाद के लिए बेहतर होता कि वे बिहार में विपक्ष की राजनीति करते । लेकिन तब सत्ता सुख की लालसा में केंद्र सरकार के रेल मंत्रालय में जमे रहे । नीतीश कुमार की दूसरी पारी में भी उन के लिए अवसर था । लेकिन इस बार भी उपेक्षा झेलने के बावजूद यूपीए सरकार के हर सही गलत फैसले में वे तरफदारी करते नजर आते हैं, गोया उनका यही काम हो । नीतीश कुमार के निरंकुश होते जाने का बड़ा कारण वहाँ विपक्ष नाम की चीज का नहीं होना रहा है । लालू प्रसाद की राजनीति में कोई सकारात्मक परिवर्तन आ गया है, इस निष्कर्ष पर पहुँचना मूर्खता है । रेल मंत्रालय में रहते हुए उनके विकास के दावे का सच भी अब सबके सामने आ रहा है । उनकी राजनीति को समझने के लिए उनका एक हालिया बयान महत्वपूर्ण है । प्रभु चावला के साथ एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि सूचना का अधिकार कानून फालतू है, यदि वे सत्ता में आए तो इसे हँटा देंगे । क्या नीतीश को नकारने का मन बना चुकी जनता ऐसे ही नेता को फिर से मौका देने के लिए मजबूर होगी ? या उस रामविलास पासवान के पास लौटेगी जिसकी अवसरवादी राजनीति को वह पहले ही खारिज कर चुकी है ? क्या जनता कांग्रेस पार्टी को मौका देगी जिसकी सरकार के कारनामे को लेकर बिहार ही नहीं देश भर में गुस्सा है ? या अंत में उसी भाजपा-जद (यू) गठबंधन को फिर से सत्ता सौंप देगी जिससे वह परेशान है ? ऐसी स्थितियाँ बनती हैं तो बिहार के दुर्भाग्य को विस्तार ही मिलेगा इसमें संदेह नहीं है ।
साभार : प्रतिरोध डाट कॉम

यह वह समय है जब बिहार की जनता को विकल्प चाहिए । सड़क पर विपक्ष की राजनीति करने व वैचारिक अराजकता से मुक्त होने का दावा करने वाली पार्टियों के लिए यह सही समय है कि वह खुद को एक बेहतर और सक्षम विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करे । इस समय जनता तक पहुँचने के लिए इन राजनीतिक ताकतों को उन रास्तों का चयन करना होगा जो जनता के दिलों तक पहुँचती है । वैचारिक राजनीति की आत्ममुग्धता से बाहर आकर उन्हें राज्य के कोने-कोने में जनता तक पहुँचने के लिए सघन अभियान चलाना होगा । 2014 के लोक सभा चुनाव तक यदि वे ऐसा करने में सफल होते हैं तो बिहार का उसके दुर्भाग्य से निकास की संभावना बची रहेगी । अन्यथा यह मान लेना होगा कि दुर्दशा बिहार की नियति है, यह भी कि बेहतर  और समानांतर राजनीति का दावा करने वाले राजनीतिक दलों मे राजनीति करने की इच्छाशक्ति मर चुकी है ।