साभार : दी इंडियन एक्सप्रेस |
बिहार का महाराजगंज
लोकसभा उपचुनाव पिछले दिनों चर्चा का विषय बना रहा । नीतीश कुमार ने जनता से विकास
और सुशासन का दावा करते हुए वोट मांगे थे । इस तरह यह जद (यू) और राजद के बीच का
चुनाव नहीं रह गया था । यह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लिए नाक की लड़ाई
बन चुकी थी । नीतीश कुमार के सुशासन और विकास के दावे को जनता ने खारिज कर दिया ।
राजद प्रत्याशी प्रभुनाथ सिंह ने जद (यू) के उम्मीदवार पीके शाही को करीब एक लाख
सैंतीस हजार मतों के भारी अंतर से पराजित कर दिया । चुनाव परिणाम ने लालू प्रसाद
यादव को खुश होने का मौका दिया है । मीडिया उन्हें पर्याप्त तबज्जो दे रही है ।
लालू भी अपनी वापसी के दावे करने से चूक नहीं रहे हैं । जद (यू) का कहना है कि
राजद को महज एक लोकसभा उपचुनाव में मिली जीत पर इतना इतराना नहीं चाहिए । जद (यू)
के अनुसार इस चुनाव परिणाम को पूरे बिहार का जनादेश समझना गलत है । पार्टी अपनी
झेंप मिटाने के लिए कुछ भी कहे, यह चुनाव परिणाम नीतीश कुमार के अति आत्मविश्वास को जबरदस्त
चुनौती देता है ।
बिहार की जनता ने आठ
वर्ष पहले राजद से बुरी तरह ऊब कर नीतीश को सत्ता सौंपी थी । लालू प्रसाद यादव और
बाद में उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री के रूप में करीब पन्द्रह वर्षों तक
बिहार में सत्ता का सुख भोगा था । इस कालखंड में बिहार का पिछड़ापन बढ़ता ही चला
गया था । अपराध का ग्राफ बढ़ने लगा था । शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य सेवाओं सहित कई बुनियादी सेवाओं की बदहाली से आम
जनता परेशान हो गयी थी । उन्नीस सौ नब्बे के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव
का मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाना एक सुखद संकेत माना गया था । इसे गरीबों-पिछड़ों
की सत्ता में हिस्सेदारी के रूप में देखा गया था । लेकिन लालू प्रसाद यादव बाद में
जातीय गणित में माहिर हो गये । यह रास्ता उन्हें ज्यादा सुविधाजनक लगा । कुशासन की
परंपरा फलने-फूलने लगी । बिहार में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी बढ़ती चली गयी । गंभीर
समस्यायों से जूझते बिहार को लालू यादव के तिलिस्म से बाहर आने में पन्द्रह वर्ष
लग गये ।
2005 में नीतीश कुमार को
बिहार की जनता ने भारी आशा के साथ सत्ता सौंपी थी । जनादेश ने लालू प्रसाद की
राजनीति को पूरी तरह नकार दिया था । शुरू में नीतीश कुमार जनता की आशा पर खरे
उतरते दिखे थे । अपराध का ग्राफ घटा था और भ्रष्टाचार के कम होने व बदहाली से
उबरने के संकेत मिलने लगे थे । धीरे-धीरे यह उत्साह खत्म होने लगा । नीतीश की
सरकार भी कागजी उपलब्धियों की सरकार बनने लगी । पन्द्रह वर्ष के कुशासन के बदले
सुशासन का सिर्फ ढोल पीटा जा रहा था । बिहार की मीडिया को सत्ता ने इस तरह
प्रभावित किया कि नीतीश सरकार की प्रशंसा में वह अब तक लिप्त रहती है । मीडिया ने
जो माहौल तैयार किया उससे नीतीश कुमार की छवि राष्ट्रीय स्तर पर एक सक्षम नेता के
रूप में उभरी । अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर भी उन्हें पहचान मिली । इसी माहौल में
नीतीश कुमार 2010 में दुबारा सत्ता में लौटे । जनता के लिए लालू-राज की भयावहता की
तुलना में यह फिर भी बेहतर विकल्प था ।
नीतीश कुमार की दूसरी
पारी में जनता को हकीकत से रूबरू होने का ज्यादा मौका मिला है । इस बार नीतीश का
अहंकार कई मौकों पर साफ दिख जाता है । सरकार को एक व्यक्ति की सरकार बना देने में
नीतीश ने कोई कसर नहीं छोड़ी है । राज्य के विभिन्न विभागों के कर्मचारियों
की समस्यायों को लेकर नीतीश बात तक करने
को तैयार नहीं होते हैं । जनता के सड़कों पर उतरने से भी उन्हें कोई फर्क नहीं
पड़ता । तस्लीमुद्दीन जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को अपनी पार्टी में जगह
देने से उन्हें परहेज नहीं रह गया है । रणवीर सेना के राजनीतिक दलों से सम्बंध की
जाँच के लिए बने अमीर दास आयोग को भंग करने का फैसला लेकर नीतीश सरकार ने दलित नरसंहार को लेकर न्याय की आशा पर
पानी फेरने का काम किया है । मतलब साफ है कि पिछड़े की राजनीति करने वाले नीतीश
कुमार सवर्ण भूमिहारों की नाराजगी की चिंता करने लगे हैं । मंत्रियों और उनके
सम्बंधियों को सस्ते दरों पर भूमि आवंटित करने के मामले पर भी नीतीश कुमार चुप ही
रहे हैं । बाढ़ राहत घोटाले की जाँच भी सरकार ठीक ढंग से नहीं करा सकी है । भाजपा
के सहयोग से सरकार चलाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी से विरोध का उनका नाटक भी लोगों
को रास नहीं आ रहा है । कुल मिला कर नीतीश कुमार जनता की नजरों में एक गैर ईमानदार, तानाशाह, बड़बोले और दोहरा चरित्र रखने वाले नेता के तौर पर स्थापित
होते जा रहे हैं । हालाँकि मीडिया के हीरो वे आज भी हैं । ऐसे में महाराजगंज
उपचुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को मिली करारी हार को नीतीश सरकार के प्रति
जनता में व्याप्त भारी रोष की के रूप में देखा जाना उचित है । अभी तो यह नहीं लग
रहा है कि जद (यू) इस चुनाव परिणाम से सबक लेने के मूड में है ।
महाराजगंज लोकसभा
उपचुनाव का परिणाम एक बड़ी समस्या की ओर हमारा ध्यान खींचता है । इस परिणाम में
विकल्पहीनता के संकेत निहित हैं । नीतीश से ऊब चुकी जनता के पास क्या सिर्फ उसी
राजनीति की ओर लौट जाने का रास्ता शेष बचा है, जिसके कारण लगातार पन्द्रह वर्षों तक उसने ने यंत्रणा भोगी
है ?
इस बीच मीडिया ने यह जताने की कोशिश की है कि लालू अब बदल
गये हैं । लेकिन यह सच नहीं है । पिछले कुछ वर्षों से सत्ता में नहीं होने से उनका
रूतबा कम जरूर हो गया है, लेकिन तेबर अब भी वही है । पिछले आठ वर्षों में एक बार भी ऐसा अवसर नहीं आया
है जब वे सही राजनीति के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखा सके हैं । उनके पास अपनी
गलती को सुधारने के पर्याप्त अवसर थे लेकिन उन्होंने इसे गँवा दिया । पहली बार जब
नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे तब लालू प्रसाद के लिए बेहतर होता कि वे बिहार में
विपक्ष की राजनीति करते । लेकिन तब सत्ता सुख की लालसा में केंद्र सरकार के रेल
मंत्रालय में जमे रहे । नीतीश कुमार की दूसरी पारी में भी उन के लिए अवसर था ।
लेकिन इस बार भी उपेक्षा झेलने के बावजूद यूपीए सरकार के हर सही गलत फैसले में वे
तरफदारी करते नजर आते हैं, गोया उनका यही काम हो । नीतीश कुमार के निरंकुश होते जाने का बड़ा कारण वहाँ
विपक्ष नाम की चीज का नहीं होना रहा है । लालू प्रसाद की राजनीति में कोई
सकारात्मक परिवर्तन आ गया है, इस निष्कर्ष पर पहुँचना मूर्खता है । रेल मंत्रालय में रहते
हुए उनके विकास के दावे का सच भी अब सबके सामने आ रहा है । उनकी राजनीति को समझने
के लिए उनका एक हालिया बयान महत्वपूर्ण है । प्रभु चावला के साथ एक टीवी इंटरव्यू
में उन्होंने कहा कि सूचना का अधिकार कानून फालतू है, यदि वे सत्ता में आए तो इसे हँटा देंगे । क्या नीतीश को
नकारने का मन बना चुकी जनता ऐसे ही नेता को फिर से मौका देने के लिए मजबूर होगी ? या उस रामविलास पासवान के पास लौटेगी जिसकी अवसरवादी
राजनीति को वह पहले ही खारिज कर चुकी है ? क्या जनता कांग्रेस पार्टी को मौका देगी जिसकी सरकार के
कारनामे को लेकर बिहार ही नहीं देश भर में गुस्सा है ? या अंत में उसी भाजपा-जद (यू) गठबंधन को फिर से सत्ता सौंप
देगी जिससे वह परेशान है ? ऐसी स्थितियाँ बनती हैं तो बिहार के दुर्भाग्य को विस्तार ही मिलेगा इसमें
संदेह नहीं है ।
साभार : प्रतिरोध डाट कॉम |
यह वह समय है जब बिहार
की जनता को विकल्प चाहिए । सड़क पर विपक्ष की राजनीति करने व वैचारिक अराजकता से
मुक्त होने का दावा करने वाली पार्टियों के लिए यह सही समय है कि वह खुद को एक
बेहतर और सक्षम विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करे । इस समय जनता तक पहुँचने के लिए इन
राजनीतिक ताकतों को उन रास्तों का चयन करना होगा जो जनता के दिलों तक पहुँचती है ।
वैचारिक राजनीति की आत्ममुग्धता से बाहर आकर उन्हें राज्य के कोने-कोने में जनता
तक पहुँचने के लिए सघन अभियान चलाना होगा । 2014 के लोक सभा चुनाव तक यदि वे ऐसा
करने में सफल होते हैं तो बिहार का उसके दुर्भाग्य से निकास की संभावना बची रहेगी
। अन्यथा यह मान लेना होगा कि दुर्दशा बिहार की नियति है, यह भी कि बेहतर और
समानांतर राजनीति का दावा करने वाले राजनीतिक दलों मे राजनीति करने की इच्छाशक्ति
मर चुकी है ।
बेहद तरतीब से लिखा गया लेख, यह स्थिति केवल बिहार की ही नहीं है कमोबेश हर राज्य इस विकल्पहीनता की स्थिति से जूझ रहा है. अंग्रेजी में एक कहावत है- A great power comes with a great responsibilities. समस्या यही है कि केवल शक्ति-प्रदर्शन रह गया है जिसके धुंधलके में जिम्मेदारियाँ कहीं खो गई हैं।
ReplyDelete