Wednesday, July 26, 2017

कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग और बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी विरोध

 _______________
दो खंडों में प्रस्तुत की जा रही यह टिप्पणी मूलतः 19.07.2017 को किये गये मेरे एक फेसबुक पोस्ट और  ‘द वायरपर प्रसारित होने वाले विनोद दुआ के कार्यक्रम जन गण मन की बात’ के एपिसोड-86 को देख कर इसके फेसबुक पेज पर 20.07.2017 को दी गयी मेरी प्रतिक्रिया को जोड़ कर तैयार की गयी है । कहीं-कहीं नाम मात्र का संशोधन है ।
 _______________

कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग और बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी विरोध

[1]
मेरा मानना है कि कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग की तरह ही बंगलुरू मेट्रो में हिन्दी में लिखे नामों या हिन्दी उद्घोषणा को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन, अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर क्षेत्रीय और भाषाई उन्माद के सहारे वोट बैंक तैयार करने की कोशिश का हिस्सा भर हैं । इनमें कोई सद्भावना नहीं है । यह सब सुनियोजित एजेंडे के तहत हो रहा है । कांग्रेस की सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली सरकार बीजेपी लहर में भी फिर से बने रहने की तैयारी में उसी तरह के हथकंडे अपनाने की ओर ध्यान लगा रही है, जिसमें बीजेपी को महारथ हासिल है ।
कन्नड़ को प्राथमिक भाषा का स्थान देकर, यदि अंग्रेजी के साथ हिन्दी का भी सूचनापट्ट, निर्देशों और उद्घोषणा की एक भाषा के बतौर उपयोग किया जाता है, तो यह 'हिन्दी इंपोजिशन' है, या इस देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा के प्रति व्यावहारिक रूप से ज़रूरी सम्मान? : इस पर पूर्वाग्रहमुक्त होकर अवश्य विचार करना चाहिए!
यह कर्नाटक की चुनी हुई सरकार का अधिकार है कि वह अपने अधिकृत क्षेत्र में हिन्दी को प्रवेश नहीं करने दे, लेकिन आखिर क्यों? स्वतंत्रता आंदोलन में देश की साझी और उपनिवेशवाद से संघर्ष की भाषा बनकर उभरी और आज देश की सर्वाधिक स्वीकृत भाषा हिन्दी के प्रति इस तरह की घृणा और अपमानजनक रवैये का प्रदर्शन क्या किसी भी दृष्टिकोण से सकारात्मक परिणाम देने वाला रह गया है?
संविधान निर्माण के लगभग सात दशकों के बाद तो यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है, कि विभिन्न प्रांतों के हिन्दी विरोध ने इन प्रांतों की मातृभाषाओं को सुदृढ़ करने की अपेक्षा अंग्रेजी का मार्ग अधिक प्रशस्त किया है  । ये प्रांत अपनी मातृभाषाओं के बजाय अंग्रेजी के अधिक आश्रित होते चले गये हैं  । इन प्रांतों के लिए भी अब यह पुनर्विचार का अनिवार्य विषय है, कि इतने वर्षों में उनका हासिल क्या है !
जिन क्षेत्रों में हिन्दी समझी जाती है,या जहाँ हिन्दी विरोध नहीं है, यदि अपनी चेतना हीनता से निजात पा लें, और वहाँ की सामान्य जनता अपने ऊपर लादी गयी अंग्रेजी को पूरी तरह खदेड़ने का मन बना ले तो अंग्रेजी पर आश्रित होते जा रहे राज्यों को इसका क्या खामियाजा भुगतना पड़ेगा क्या कभी इसकी कल्पना भी की गयी है? हिन्दी विरोधी राज्यों और देश के नेता इतिहास के अनुभवों से निश्चिंत हैं कि ऐसा सिर्फ कलपनाओं में ही हो सकता है । इसलिए भाषा के नाम पर इस देश में जितना जो बुरा हो सकता है, वह हो रहा है ।
हिन्दी वर्चस्व अस्तित्वहीन शब्द नहीं है, लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि इसके पीड़ित तथाकथित हिन्दी पट्टी के ही विभिन्न मातृभाषी क्षेत्र रहे हैं, दक्षिण भारतीय या कोई अन्य हिन्दी विरोधी राज्य नहीं ! इसके बावज़ूद यह तथाकथित हिन्दी पट्टी, हिन्दी की साझी विरासत के प्रति घृणा के बजाय सम्मान रखती है । वर्तमान में इस देश में भाषा के सर्वाधिक वास्तविक पीड़ित, अंग्रेजी वर्चस्व के ही हैं, और भाषा समस्या के दृष्टिकोण से अंग्रेजी वर्चस्व ही इस समय हमारे देश की सबसे बड़ी चुनौती है!

[2]
____________________
'द वायर' के जन गण मन कार्यक्रम में विनोद दुआ ने कर्नाटक के अलग झंडे की मांग को भारत की विविधता से जोड़ कर इसे उचित माना है । इस पर मेरी प्रतिक्रिया ।
____________________

इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि विविधता का सम्मान करना बहुत जरूरी है । सभी क्षेत्रों, समुदायों, भाषाओं, संस्कृतियों आदि के प्रति आदर रख कर ही इस देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है ।
राज्य के लिए अलग झंडे की मांग में साधारणतया कोई बुराई तो नहीं है, लेकिन इसकी उपयोगिता और इस मांग में निहित भावना पर अधिक सूक्ष्मता से विचार किये जाने की आवश्यकता है । राजनीति का प्रतीकों पर केन्द्रित होने लगना, सकारात्मक लक्षण नहीं है । एक कमजोर क्षेत्रियता इस दिशा में भावुक पहल कदमी करे तो समझा जा सकता है, लेकिन कन्नड़ जैसी मजबूत क्षेत्रियता के लिए इतने वर्षों बाद अलग औपचारिक झंडे की क्या आवश्यकता आन पड़ी है!
कर्नाटक में अगले वर्ष चुनाव है, और मेरा मानना है कि यह मांग बहुत हद तक क्षेत्रीय उन्माद को प्रोत्साहित करके वोट बैंक तैयार करने की कोशिश है । सरकार को जब राज्य में रोजगार, विकास, किसानों की दशा, कन्नड़ भाषा-संस्कृति के विकास में दिये गये अपने योगदान आदि महत्वपूर्ण व्यावहारिक मुद्दे पर अपनी उपलब्धियों और योजनाओं पर बात करनी चाहिए, वह झंडे का उन्माद पैदा कर, इन जरूरी मसलों से ध्यान भटकाना चाहती है ।
मेरा मानना है कि झंडे आदि प्रतीकों का नये समय में निर्माण प्रतिगामी और अनावश्यक कार्य है ।
 ________

- कुछ सम्बंधित खबरों के लिंक -


No comments:

Post a Comment