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इस ब्लॉग पोस्ट के पहले खंड में ‘द वायर’ पर 21.07.2017 प्रकाशित डा. अमरनाथ के लेख ‘बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध क्यों हो रहा है?’ को पढ़कर इसी दिन फेसबुक कमेंट और पोस्ट के माध्यम से की गयी मेरी टिप्पणी है । इसके दूसरे खंड में- ‘द वायर’ पर ही इसी श्रृंखला में अगले दिन 22.07.2017 को प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के लेख ‘बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जानेकी मांग बिल्कुल जायज़ है’ पर इसी दिन फेसबुक पर की गयी मेरी टिप्पणी है । ये दोनों ही लेख विचार और भावना एक स्तर पर परस्पर विरोधी हैं । लेकिन चूँकि दोनों ही लेख एक ही तरह की भाषा समस्या से सम्बंधित हैं, और दोनों में ही तर्क के स्तर पर मुझे आलोचना की गुंजाइश दिखी, इसलिए इन दोनों पर की गयी अलग-अलग टिप्पणियों को एक जगह लाकर नाम मात्र संशोधनों के साथ यहाँ लगा रहा हूँ ।_______________
[1]
[कलकत्ता
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक डा. अमरनाथ की
छात्रोपयोगी किताब- 'हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली'
से मुझे अपने एम.ए. और बाद के कोर्स वर्क पाठ्यक्रम के कुछ जटिल
विषयों को समझने में मदद मिली थी । इसलिए उनके प्रति मेरे मन में आदर है । वे
लम्बे समय से हिन्दी के पक्ष में बोलते और लिखते रहे हैं, मैं
इस भावना का भी सम्मान करता हूँ । लेकिन इस संदर्भ में उनकी विचार पद्धति मुझे
आधारहीन काल्पनिक समस्याओं और तर्कों पर आधारित, दुष्प्रचार की
भावना से प्रेरित, अपमानजनक (इसे हिंसक भी कह सकते हैं) और
शून्य बल्कि नकारात्मक परिणाम देने वाली लगती रही है । आज पहली बार बहुत ज़रूरी
लगने पर डा. अमरनाथ के विचारों पर कोई सार्वजनिक टिप्पणी कर रहा हूँ । 'द वायर' पर छपे उनके एक लेख पर की गयी मेरी टिप्पणी
यहाँ प्रस्तुत है ।]
डा.अमरनाथ
को लम्बे समय से हिन्दी के पक्ष में बोलते और लिखते हुए देख रहा हूँ। उनके प्रति
सम्मान रखते हुए भी कहूँगा कि वे बड़े भ्रम के शिकार हैं, और हिन्दी को बचाने का
जो रास्ता उन्होंने चुन रखा है, वह भटका हुआ
रास्ता है । इस कारण से उनकी वैचारिकी को पसंद करने वाले लोग भी भारी भ्रम और
भटकाव के शिकार रहे हैं ।
हिन्दी
संख्या बल पर राजभाषा बनी यह सच है, लेकिन इसी
तर्क के रहते हुए भी वह देश के कई हिस्सों में स्वीकृति नहीं पा सकी : क्या इस सच
की उपेक्षा की जा सकती है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु
के प्रभावशाली हिन्दी विरोधी आंदोलनों ने हिन्दी के संख्या बल के तर्कों की
धज्जियाँ उड़ा कर रख दी थी ।
हिन्दी
को नाम के लिए राजभाषा बनाए रखने से किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी । समय के
साथ-साथ देश की व्यावहारिक राजभाषा अंग्रेजी ही होती चली गयी है । और यदि अब
राजभाषा के संदर्भ में कोई आपत्ति है या होगी तो वह अंग्रेजी के इस संवैधानिक
दर्जे को कम करने या ख़त्म करने को लेकर होगी ।
जिन्हें
हिन्दी की बोलियाँ कह कर डा.अमरनाथ बेहद अपमानजनक तरीके से अपना मत रखते हैं- एक
तो उन्हें बोलियाँ कहना अतार्किक और अवैज्ञानिक है । यह एक अपुष्ट मान्यता है, जिसे स्वयंसिद्ध मान्यता की तरह हिन्दी अकादमिक जगत ने पठन-पाठन का हिस्सा
बनाए रखा है । दूसरी यह कि इनकी भाषिक मान्यता से मातृभाषियों की हिन्दी
द्विभाषिकता ख़त्म नहीं हो जाएगी! बल्कि यह न्यायसंगत है कि उन्हें स्वतंत्र भाषा
का दर्जा मिले ।
डा.
अमरनाथ के हिन्दी बचाओ मंच को यदि ईमानदारी से चुनौतियाँ चुनने में दिलचस्पी हों
तो वे अंग्रेजी वर्चस्व के खिलाफ अपनी उर्जा लगाएँ । जिससे हिन्दी का संख्या बल
नहीं मातृभाषाओं से प्रेम करने वाले लोग ही जूझ सकते हैं!
[2]
['द वायर' ने आज इस तरह के लेखों की श्रृंखला में
राजेन्द्र प्रसाद सिंह का एक लेख प्रकाशित किया है। भोजपुरी,मगही
आदि को अष्टम अनुसूची में प्रवेश देने का विरोध किये जाने को ग़लत बताते हुए
राजेन्द्र जी ने यह लेख लेख लिखा है। नीचे इस लेख पर की गयी अपनी टिप्पणी लगा रहा
हूँ ।]
इस
प्रसंग में राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भावना से सहमत हूँ, लेकिन विचार के स्तर पर यह लेख बहुत मजबूत और बहुत तार्किक नहीं है।
● नदियों-नहर या स्रोत वाली रूपक- तर्क-पद्धति बहुत पुरानी, और कम से कम सम्बंधित समस्या की हल करने की दृष्टि से बहुत अप्रभावी साबित
होती रही है । इसका उपयोग वे लोग भी करते रहे हैं, जो हिन्दी
की पहचान उसकी कथित बोलियों के साथ करते रहे हैं और इस पहचान के घोर पक्षधर रहे
हैं ।
● इस तरह की तर्क पद्धति से यह मान्यता स्थापित की जाती है कि हिन्दी अपनी
तथाकथित बोलियों से कई स्तरों पर उर्जा और बल पाती है, इसलिए
इन बोलियों का बचा रहना आवश्यक है । जबकि व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह बात अब
महत्वहीन हो गयी है । यथार्थ यह है कि जिन तथाकथित बोलियों से हिन्दी ने शब्द
संपदा और व्याकरणिक प्रेरणा ग्रहण की है : उनकी विकास प्रक्रिया या तो अब लगभग
स्थिर हो चुकी है या क्षय की ओर है !* इस कारण से
हिन्दी की भाषिक समृद्धि के लिए अब वे संभावनाशील स्रोत नहीं रह गये हैं । ऐसे में
हिन्दी का मातृभाषा के रूप में विस्तार चाहने वाले लोग आखिर फिर क्यों इन कथित
बोलियों की एक भाषिक अस्मिता के रूप में मौजूदगी चाहेंगे?
● ऐसे लोग यह ज़रूर चाहेंगे कि इन कथित बोलियों की शब्द संपदा, व्याकरणिक रूप, विशेषताओं और विविधताओं को अच्छी तरह
संकलित कर लिया जाए, और भविष्य में यह संग्रहालय और पुस्तकालयों में एक ऐतिहासिक
लुप्त भाषिक विरासत के रूप में संरक्षित रहे और, भविष्य में
जहाँ कहीं इसके दोहन की आवश्यकता हो, भरपूर दोहन किया जाए!
[स्पष्टीकरण: *जब तक किसी भाषा का प्रयोग करने वाले लोग बचे रहते हैं,
उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । भाषिक
विकास की प्रक्रिया के लगभग स्थिर हो जाने या क्षय होते जाने से मेरा मतलब यह है
कि इन भाषाओं और इनके विविध रूपों के मानक लगभग सुनिश्चित हो चुके हैं, और यह भी कि अधिक प्रभावशाली भाषाओं के सम्पर्क में आने के बाद इन में से
कई भाषाओं की अपनी भाषिक संपदा और विशेषताएँ भी लुप्त होने लगी हैं! इससे इन
भाषाओं में मौलिक नव निर्माण की संभावना बहुत क्षीण हो गयी है ।]
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