Friday, July 14, 2017

अतिथि संपादक के अहंकार और अभद्रता के विरूद्ध

मैंने यह पत्र आज अलग-अलग ई-मेल से क्रमशः साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव को भेजा है । पत्र पढ़कर पूरा मसला समझा जा सकता है । विरोध का पत्र लिखना ही नहीं, इसे सार्वजनिक करना भी आवश्यक लगा, ब्लॉग के माध्यम से वही कर रहा हूँ । जनता के पैसों से चलने वाली संस्था साहित्य अकादमी को अहंकारी और अभद्र लोगों के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता है । इसके लिए निरंतर प्रतिरोध की आवश्यकता बनी रहेगी । 


प्रति,
अध्यक्ष/ उपाध्यक्ष/ सचिव
साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली-110001

विषय : ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के अतिथि संपादक रणजीत साहा द्वारा फ़ोन पर मेरे साथ किये गये अभद्र व्यवहार और अपमानजनक टिप्पणी के बारे में ।

महोदय,
यह पत्र मैं बहुत आहत मन से लिख रहा हूँ । 8 जून 2017 को मैंने देश की भाषा समस्या के एक महत्वपूर्ण पक्ष से सम्बंधित अपना एक शोध आलेख समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशन के उद्देश्य से भेजा था । यह आलेख पत्रिका में संपादकीय संपर्क के लिए दिये गये दो ई-मेल पतों : sbseditor@gmail.com और samkaleensbs@sahitya-akademi.gov.in पर भेजा गया था । एक महीना बीत जाने के बाद भी कोई ज़वाब नहीं मिलने पर मैंने निर्णय की सूचना देने का अनुरोध करते हुए- 08.07.2017 से 13.07.2017 तक कुल चार ई-मेल किये । इनके भी कोई उत्तर नहीं मिले । संपादकीय कार्यों में दख़ल न देने के इरादे से मैं प्रायः एक महीने की अवधि तक फोन या पत्र व्यवहार कर अपनी रचना की स्थिति के बारे में जानने की चेष्टा करने से बचता हूँ । एक महीना बाद तक कोई सूचना नहीं मिलने और बाद के भी कई ई-मेल के अनुत्तरित रह जाने के कारण, मुझे यह शंका हुई कि संभव है कि मेरा आलेख पढ़ा ही नहीं गया हो । इसके बाद मैंने संपादकीय सम्पर्क के लिए दिये गये फ़ोन नं. पर फ़ोन किया और अपने आलेख – ‘मैथिली भाषा अस्मिता के संदर्भ में लिपि का प्रश्न’ के बारे में पूछताछ की । मुझे बताया गया कि यह आलेख नहीं पढ़ा गया है, लेकिन शीर्षक सुन कर ही मुझे बता दिया गया कि भाषा और लिपि विमर्श से जुड़े आलेख इस पत्रिका में नहीं छापे जाते । (यह बात भी भ्रामक है । मैं ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ का नियमित ग्राहक रहा हूँ, और इसमें प्रकाशित हुए भाषा विषयक कम से कम कुछ लेखों की तो मुझे जानकारी है ।)
मेरे आलेख को छापना या नहीं छापना संपादकीय विवेक के अधीन है, और मैं इसका सम्मान करता हूँ । मेरी आपत्ति दो बातों से थी- एक यह कि मेरे कई ई-मेल अनुरोध के बाद भी मुझे समय से सूचना नहीं दी गयी । दूसरी यह कि मेरी रचना पढ़ी ही नहीं गयी । मैंने जब यह कहा कि कि ई-मेल का नहीं पढ़ा जाना और बार-बार के अनुरोध के बाद भी समय से निर्णय की सूचना नहीं देने की परंपरा ग़लत है, और यह ग़ैरजिम्मेदारी भरा काम है, तो फ़ोन पर बात कर रहे व्यक्ति को यह बात बेहद बुरी लगी और वे मुझ पर भड़क उठे । इसी क्रम में उन्होंने मुझे कहा कि – आप जैसे लोग साहित्य अकादमी में आकर घास चरकर चले जाते हैं । यह बात मुझे बहुत भीतर तक बेध गयी । मेरे द्वारा आपत्ति जताने के बावज़ूद वे अपनी इस बात पर अडिग रहे और मनगढ़ंत बातों के सहारे इसे तर्कसंगत ठहराते रहे । इसका उन्हें खेद तक नहीं हुआ । परिचय के लिए उनसे यह पूछने पर कि –‘आप कौन बोल रहे हैं’ भी उन्हें बुरा लगा और उन्होंने अपना नाम- रणजीत साहा बताते हुए, आगे यह आशय भी जोड़ दिया, कि मेरा यह पूछना उनकी शान में गुस्ताख़ी थी । मैं समझता हूँ, कि यह उनके अहंकार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था । चूँकि भाषा और लिपियों से सम्बंधित आलेख नहीं छापे जाने की उनकी बात मुझे भ्रामक लगी थी, इसलिए बाद में मैंने संदेहवश यह पूछ लिया कि - क्या मैथिली भाषा अस्मिता से जुड़ा आलेख होने के कारण ऐसा रवैया है, तो इस बात से भी अतिथि संपादक महोदय भड़क गये और अपने मैथिली प्रेम के कई दृष्टांत सुनाने लगे । संभव है, मेरी इस बात पर उनका भड़कना सही हो सकता है, और यह मुझे बुरा भी नहीं लगा, लेकिन साहित्य अकादमी में आकर घास चरने वाली उनकी बात से मुझे अत्यधिक कष्ट पहुँचा है । यह मेरे उस स्वाभिमान पर आघात है, जिसे कभी किसी संपादक या साहित्य अकादमी तो क्या किसी के भी आगे हत होना मंजूर नहीं है ।
आखिर किस मानसिकता, किस हैसियत और किन आधारों पर उन्होंने यह टिप्पणी की? क्या उन्हें यह भ्रम है कि साहित्य अकादमी उनकी निजी संस्था है? लेखकों को पशुवत और घास चरने वाला समझने की उनकी मानसिकता की मैं भर्त्सना करता हूँ । मैंने उन्हें एक ज़वाबी ई-मेल के माध्यम से इस बात के लिए माफ़ी मांगने को कहा है, लेकिन अब तक कोई ज़वाब नहीं मिला है ।
यह पूरी बातचीत- 13.07.2017 को फ़ोन नं.- 01123073312 पर 11:39 (पूर्वा.) से अगले 5 मिनट 31 सकेंड तक हुई है । इस दौरान इस फ़ोन पर हुए संवाद को मेरी रखी गयी बातों का प्रमाण समझा जा सकता है । यदि अतिथि संपादक मेरे आरोपों से इंकार करते हैं, अथवा बातों को तोड़-मरोड़ कर या भ्रामक तरीके से रखते हैं तो, मुझे इसकी सूचना दी जाए, इसके बाद अपनी बातों को प्रामाणित करने का दायित्व मेरे ऊपर होगा ।
·  आपसे अनुरोध है कि इस अहंकारी और अमर्यादित बर्ताव के लिए अतिथि संपादक रणजीत साहा को नोटिस जारी करें और उनसे इस बर्ताव के लिए लिखित में (और गंभीरतापूर्वक) माफ़ी मांगने के लिए कहें । साथ ही भविष्य में लेखकों के साथ वे ऐसा बर्ताव नहीं करेंगे, इस आशय का संकल्प-पत्र भी उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कहें । यदि अतिथि संपादक ऐसा करने से इंक़ार करते हैं, तो साहित्य अकादमी का यह दायित्व है कि वह एक लेखक से इस तरह के अहंकारी और अमर्यादित व्यवहार करने वाले अतिथि संपादक को पदमुक्त कर दे । यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य अकादमी पदाधिकारियों की निजी संस्था नहीं है, बल्कि भाषा और साहित्य के संवर्धन को समर्पित व लेखकों और देश की जनता के प्रति प्रतिबद्ध संस्था है । इस प्रतिबद्धता से खिलवाड़ की छूट किसी को नहीं दी जा सकती है ।
·   आपसे यह भी अनुरोध है कि पत्रिका के संपादकीय कार्यालय में दृढ़तापूर्वक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करें । इस दौर में ई-मेल से प्राप्त रचनाओं की उपेक्षा दुखद है । यह तय करें कि प्राप्त रचनाओं की प्रिंट कॉपी निकाल कर उसे सुरक्षित रख लिया जाए, और इसकी सूचना लेखकों को तत्काल दे दी जाए । रचनाएँ डाक से आएँ अथवा ई-मेल से, इनकी स्वीकृति या अस्वीकृति की सूचनाओं के लिए लेखकों को अत्यधिक प्रतीक्षा नहीं करायी जाए, या उन्हें फ़ोन करने के लिए बाध्य नहीं किया जाए । उन्हें तय अवधि में ज़वाब भेज दिया जाए । ई-मेल से ज़वाब भेजने पर तो समय और धन का व्यय भी न्यूनतम होता है ।
·  इस प्रसंग से मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस पत्रिका का संपादकीय कार्यालय बिना रचनाएँ पढ़े, और इनके गुण दोषों पर विचार किये बिना भी, मन ही मन निर्णय ले लेता है । यह दुर्भाग्यपूर्ण   है । यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अनिवार्यतः सभी रचनाओं को पढ़ा जाए, और एकाधिक लोगों की एक योग्य समीक्षा समिति इनके गुणों और दोषों पर विचार व टिप्पणी करते हुए, यह निर्णय ले कि रचना प्रकाशन योग्य है, अथवा नहीं । इसके अभाव में दुर्भावनापूर्ण पक्षपात की संभावना बनी रहेगी । इस पारदर्शी व्यवस्था के होने से लेखकों को अपनी रचनाओं के गुणों और दोषों का पता भी चल सकेगा और यह साहित्य की बेहतरी में मददगार ही होगा । मेरे खयाल से यह साहित्य अकादमी का एक उद्देश्य भी है ।

मैं आशा करता हूँ कि इस पत्र में मैंने जिन मुद्दों को उठाया है, उन पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए ठोस निर्णय लिया जाएगा । मैं यह भी आशा करता हूँ, कि मेरे साथ हुए अपमानजनक और अभद्र व्यवहार के प्रसंग में न्याय सुनिश्चित करने के लिए मुझे न्यायालयों तक नहीं जाना पड़ेगा ।
आपको लिखा गया मेरा यह पत्र सार्वजनिक रहेगा । मैं चाहूँगा कि देश की जनता, लेखक और लेखक संगठनों तक इस प्रसंग की जानकारी पहुँचे । वे भी अपने मत रखें और जरूरी हस्तक्षेप करें । साहित्य अकादमी इस पत्र पर किस तरह की प्रतिक्रिया देता है, अथवा क्या निर्णय करता है, यह भी सभी जानें । इस बात की निगरानी बहुत ज़रूरी है कि जनता के पैसों से चलने वाला साहित्य अकादमी सही दिशा में जा रहा है अथवा नहीं । धन्यवाद ।

कुमार सौरभ
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय
प्रो. सी.आर. राव रोड
हैदराबाद-500046                                                              

(14.07.2017 / हैदराबाद)

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