चंदू को जानना युवा पीढ़ी के लिए बेहद जरूरी है । वे छात्रराजनीति की क्रांतिकारी धारा के निर्माताओं में से एक हैं और इसी धारा की छात्र राजनीति के दुर्लभ उत्पाद भी हैं । वे बेहतर दुनिया की इच्छा रखने वाले युवाओं की क्या करें क्या न करें वाली स्थिति का समाधान हैं । चंदू का जीवन ही चंदू के विचारों की अभिव्यक्ति है । चंदू के यहाँ कथनी-करनी का भेद नहीं हैं । जब कभी विचारों का संकट पैदा होगा या विचार और कर्म के तालमेल की समस्या आएगी, चंदू याद किये जाएंगे । इस आलेख में चंदू से समंबंधित जिन तथ्यों का उल्लेख है, उनका संदर्भ मुख्यतः तीन स्रोतों से लिया गया है । आलेख के नीचे उन स्रोतों की चर्चा की गयी है ।
साभार-http://www.cpiml.org |
पटना विश्वविद्यालय उनकी वामपंथी
छात्र राजनीति से जुड़ाव का पहला गवाह बना । एआइएसएफ [AISF] से अपनी छात्र राजनीति शुरू करने वाले
और इस संगठन के राज्य उपाध्यक्ष के पद तक पहुँचने वाले चंद्रशेखर का आइसा
[AISA] के साथ आना एक ऐसी घटना है जिसे समझा जाना बहुत जरूरी है ।
एआइएसएफ [AISF] और एसएफआइ [SFI] जैसे
वामपंथी छात्र संगठन अपने वामपंथी दायित्वों से दूर जाने लगे थे । सिद्धांतों पर
बहस करने मात्र से वाम राजनीति नहीं हो सकती । अपने आदर्श कम्युनिस्ट पार्टियों
भाकपा और माकपा की तरह इनकी कथनी और करनी में आए फर्क को चंदू ने पहचाना और
उन्होंने बतौर एक ईमानदार संगठन आइसा की पहचान की । इसे इस तरह भी समझा जा सकता है
कि सीपीआई के कम्युनिस्ट छद्म को समझ पाने के बाद उन्होंने भाकपा (माले) को
ईमानदार कम्युनिस्ट ताकत के बतौर पहचाना । यह घटना बताती है कि किसी कम्युनिस्ट
संगठन में काम करते हुए भी अपनी आँखों और दिमाग को खोलकर रखना कितना जरूरी होता है
। सामान्यतः किसी कम्युनिस्ट पार्टी में
कार्य करते हुए उसकी नीतियों से असहमत होना कठिन होता है । असहमतियों के स्वागत की
संस्कृति यदि उस कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं ।
कम्युनिस्ट राजनीति के बुनियादी कार्यक्रम के प्रति कार्यकर्ताओं की आस्था के कारण
वे पार्टी के भीतर अप्रिय स्थिति से बचना चाहते हैं । उन्हें लगता है कि ऐसी
स्थिति कम्युनिस्ट कार्यक्रम को कमजोर बनाएगी-हालाँकि यह एक खतरनाक भ्रम मात्र
होता है । ऐसी स्थिति खास तौर पर तब बनती है जब देश में कम्युनिस्ट राजनीति मजबूत
स्थिति में नहीं हो यानी वह अपनी स्वीकृति के लिए जूझ रही हो । ठीक इससे उलट
स्थिति यह भी हो सकती है कि जब कोई कम्युनिस्ट पार्टी मजबूत स्थिति में हो तो उसके
कार्यकर्ता पार्टी के गलत लाइन के खिलाफ जाने का साहस आसानी नहीं कर पाएँ । लेकिन
इतिहास में कम्युनिस्ट राजनीति में जब कभी कहीं पार्टी के वैचारिक भटकाव के खिलाफ
किसी ने मुखर होकर ठोस निर्णय लिया है, परिणाम बेहतर आया है ।
साभार-http://zeenews.india.com |
आइसा [AISA] ने जेएनयू [JNU] में अपने निर्माण के कुछ वर्षों बाद ही वहाँ के छात्रसंघ में अपनी जगह
बना ली । पारंपरिक रूप से एसएफआइ का गढ़ रहे जेएनयू में आइसा ने अपने क्रांतिकारी
रूझान व सामाजिक न्याय के प्रति अपनी आस्था के बदौलत यह जगह हासिल की थी । यह
एसएफआइ की सुविधापरस्त राजनीति का जवाब भी था । चंद्रशेखर 1991-92 और 1992-93
छात्रसंघ चुनाव [JNSU] में आइसा से महासचिव पद के उम्मीदवार
थे । लेकिन आइसा और उनकी पहली जीत 1993-94 छात्रसंघ चुनाव में हुई जब वे उपाध्यक्ष
[Vice President] चुने गए थे । 1994-95 व फिर 1995-96 में वे इस
छात्र संघ के अध्यक्ष [President] रहे । इस दौरान इन्होंने
अपनी चिंताओं से मुँह नहीं मोड़ा बल्कि इन्होंने इस अवसर का उपयोग अपने बेहतर
राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए किया जिसके माध्यम से वे खुद को आगे की लड़ाई के लिए
तैयार कर रहे थे । यह प्रशिक्षण जेएनयू और इससे बाहर के संघर्षो से मिल रहा था ।
इसी बीच 1995 मे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल में
आयोजित इंटरनेशनल यूथ कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका
मिला । यहाँ उन्होंने अमेरिका और पश्चिमी देशों की तरफदारी करने वाले प्रस्तावों
के विरोध में तीसरी दुनिया के छात्रों को संगठित करने का प्रयास किया । अंततः उन्होंने
तीसरी दुनिया के अपने कुछ मित्रों के साथ उस सम्मेलन का बहिष्कार किया । बाद में
कोरियायी प्रशासन के कोप का खतरा उठाते हुए भी उन्होंने वहाँ के उग्र विचारों वाले
वामपंथी छात्रनेताओं से सम्पर्क किया । ‘कोरिया का एकीकरण’ विषय पर छात्र-युवाओं की एक बड़ी रैली आयोजित की गयी जिसे चंदू ने
संबोधित किया । इस प्रसंग का उल्लेख दीपांकर भट्टाचार्य ने अपने आलेख ‘Crossing
the Barriers’ में किया है । गलत का विरोध करना उनका चरित्र था ।
गोपाल प्रधान ने चन्द्रशेखर के एम.फिल. लघु शोध प्रबंध- लोकप्रिय संस्कृति का
द्वंदात्मक समाजशास्त्र – संदर्भ : बिदेसिया को किताब के रूप में संपादित करते हुए एक घटना का जिक्र किया है जिसे गलत
को बर्दाश्त न कर पाने वाले उनके चरित्र की पुष्टि होती है - ‘दिल्ली के बसों में छेड़खानी आम बात है । 670 के किसी बस में कंडक्टर किसी
महिला के साथ बदतमीजी कर रहा था । चंदू हत्थे से उखड़ गये । बस वालों ने बस
मार्कंडेय सिंह (तत्कालीन गवर्नर, दिल्ली)
के अहाते में रोकी । वहाँ के सुरक्षाकर्मियों के साथ मिलकर कंडक्टर-ड्राइवर
ने चंदू को पीटा । कई घंटों की कोशिश के बाद एक पुलिस जिप्सी में शिकायत दर्ज हो
सकी लेकिन हुआ कुछ नहीं ।”
साभार- http://idubba.com |
जेएनयू [JNU] को क्रांतिकारी
वाम राजनीति [Revolutionary Left Politics] का पाठशाला माना
जाता है । जेएनयू के किले में क्रांति की बात करना अनुकूल है और अक्सर लोगों को
अपना दोहरा चरित्र आनंद देता है । लेकिन चंदू ने यह साबित किया कि वे दोहरेपन के
खिलाफ थे । वे भविष्य में पूछे जाने वाले सवालों की कल्पना कर पा रहे थे, और
भविष्य में इन सवालों के आगे शर्मिंदा नहीं होना चाहते थे । वे कहते थे कि आने
वाली पीढ़ियाँ हमसे सवाल करेंगी कि तब आप कहाँ थे, जब रोज के
रोज लोग मारे जा रहे थे ? तब आप कहाँ थे, जब कमजोरों की आवाजों को कुचला जा रहा था ? जेएनयू
में अपनी महात्वाकांक्षा को स्पष्ट करते हुए चंदू ने कहा था- ‘हम अगर कहीं जाएँगे तो हमारे कंधे पर उन दबी हुई आवाज की शक्ति होगी जिसे
डिफेंड करने की बात हम सड़कों पर करते हैं । इसलिए अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा
होगी तो भगत सिंह की तरह शहीद होने की महत्वाकांक्षा होगी न कि जेनयू से इलेक्शन
में काट-जोड़ कर जीतने या हारने की महत्वाकांक्षा होगी।” तब
यह बात कई लोगों को अविश्वसनीय लगी होगी ।
कई लोगों के लिए सिवान एक दुःस्वप्न है । चंदू सिवान के लिए सुंदर सपने देखा
करते थे । उनके लिए सिवान, सिवान नहीं था- सिवान एक जिम्मेदारी थी जिससे वे मुँह
नहीं मोड़ सकते थे । धीरेन्द्र झा ने अपने आलेख नई पीढ़ी के प्रकाश स्तंभ थे
कॉ. चंदू में तात्कालीन माले [CPI-ML] महासचिव विनोद मिश्र के उस सवाल की चर्चा की है जो उन्होंने पटना के
पार्टी कार्यालय में धीरेन्द्र से चंदू की उपस्थिति में पूछा था । सवाल था- चंदू
को युवा संगठन की बागडोर देना कैसा रहेगा ? धीरेन्द्र ने
लिखा है कि उन के कुछ बोलने से पहले ही चंदू बोल पड़े- ‘मुझे
अब सीवान में ही रहने दीजिए । किसान संघर्षों और ग्रामीण गरीबों की राजनीतिक
दावेदारी के स्थापित हो रहे नए-नए इतिहास से अभी तो मेरा तादम्य स्थापित होना शुरू
ही हुआ है । मैंने सीपीआइ के जमाने में भी ऐसा सपना पाला था, लेकिन सीपीआइ के
सत्ता में समाहित होने की प्रक्रिया के चलते किसान संघर्षों से उनके विलगाव को
हमने करीब से देखा है । इसलिए मुझे इतिहास ने जो यह अवसर प्रदान किया है उसमें ही
रमने दीजिए ।” ऐसी
थी चंदू की प्रतिवद्धता जबकि दिल्ली तब भी सुविधाजनक शहर हुआ करता था । जेएनयू का
कैंपस तब भी खूबसूरत था । बिहार तक रेल तब भी तय घंटे से कई घंटे देरी से पहुँचती
थी । बिजली तब भी वहाँ घंटों गायब रहती थी । एक सिरफिरा शासक तब भी वहाँ राज करता
था । वे कहते थे - गाँव के लोग खुश होंगे कि अपना लड़का पढ़-लिख कर वापस आया है ।
चंदू का सपना शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति का सपना था । सड़ी हुई व्यवस्था को
उखाड़ पेंकने का सपना था । शोषकों, अत्याचारियों को जनता की चेतना के बल पर परास्त
करने का सपना था । कुल मिला कर एक सुंदर दुनिया का सपना था । ऐसे सपने हम सबने
देखे हैं । इस तरह इन सपनों में कुछ खास नहीं है । खास है इसे पूरा करने का तरीका
। खास है उस रास्ते का चुना जाना जिस रास्ते पर पता नहीं होता कि कब सीना छलनी हो
जाए । खास है वह साहस जो चंदू में था । चंद्रशेखर इस तरह युगों तक प्रासंगिक बने
रहेंगे । क्रांति के सपने बेचने वाले दोहरे चरित्र के लोगों पर हँसते रहेंगे ।
हँसेगें नहीं बस थोड़ा सा मुस्करा देंगे । चंद्रशेखर की मुस्कान बहुत आकर्षक थी,
बहुत अर्थपूर्ण । पोस्टरों से निकल कर चंदू लेकिन यह पूछने नहीं आएँगे कि तुम सब
जो यह नारा देते हो कि मेरे सपने को मंजिल तक पहुँचाओगे, वह पता है कैसे पहुँचा
सकोगे ? लेकिन जब कभी चंद्रशेखर के सपने पूरा करने
के संकल्प पर ईमानदारी से विचार किया जाएगा तो वह रास्ता भी दिख जाएगा । चंदू ने
सिर्फ सपने नहीं देखे थे, उसे पूरा करने
के रास्ते भी तैयार किये थे । छेनी-हथोड़ों से पथरीली मिट्टियों को तराश कर तैयार
किये गये उन रास्तों पर लंबे चुभने वाले घास जरूर उग आए हैं ।
सिवान में स्थापित चंदू की आदमकद प्रतिमा साभार- http://idubba.files.wordpress.com |
संदर्भ
स्रोत-
1. अजय भारद्वाज
के द्वारा बनायी गयी चंदू पर केन्द्रित डाक्युमेंट्री- एक मिनट का मौन । चंदू पर
किया गया यह एक महत्वपूर्ण काम है । चंदू के जीवन, विचारों, उनके संघर्ष, उनकी
शहादत और उसके बाद के अभूतपूर्व छात्र-युवा-जन आंदोलनों को इस डाक्युमेंट्री में
बेहतरीन ढंग से संजोया गया है । यू-ट्यूब पर इस डाक्युमेंट्री
को देखने के लिए यहाँ क्लिक करें- एक मिनट का मौन
2. आइसा का केन्द्रीय मुखपत्र- ‘नई पीढ़ी’ का मार्च 2008 का अंक । यह अंक चंद्रशेखर
पर केन्द्रित है । इसे चंदू की शहादत के एक दशक पूरा होने के अवसर पर प्रकाशित
किया गया था । इस आलेख में जिन अन्य आलेखों की चर्चा है वे इसी पत्रिका में
प्रकाशित हैं ।
संपादन - रवि राय, परवेज़, दीपक, क्रांतिबोध, अवधेश / विशेष संपादन सहयोग- मृत्युंजय / आवरण व सज्जा-अशोक सिद्धार्थ.
प्रकाशक – इंद्रेश मैखुरी, यू-90, शकरपुर, नई दिल्ली.
संपादन - रवि राय, परवेज़, दीपक, क्रांतिबोध, अवधेश / विशेष संपादन सहयोग- मृत्युंजय / आवरण व सज्जा-अशोक सिद्धार्थ.
प्रकाशक – इंद्रेश मैखुरी, यू-90, शकरपुर, नई दिल्ली.
3. चंदू के द्वारा जेएनयू के राजनीति
विज्ञान विभाग में जमा कराए गए एम.फिल. लघु शोध प्रबंध – ‘लोकप्रिय
संस्कृति का द्वंदात्मक समाजशास्त्र – संदर्भ :
बिदेसिया’, इसे
किताब के रूप मे गोपाल प्रधान ने संपादित किया है । गोपाल प्रधान ने इसकी भूमिका
में चंदू से जुड़े कुछ प्रसंगों का जिक्र किया है । इस भूमिका के कुछेक प्रसंग इस
आलेख में आए हैं ।
प्रकाशक - सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, टी-10, पंचपुष्प अपार्टमेन्ट, अशोक नगर, इलाहाबाद-211001 (उत्तर प्रदेश)
प्रकाशक - सांस्कृतिक संकुल, जन संस्कृति मंच, टी-10, पंचपुष्प अपार्टमेन्ट, अशोक नगर, इलाहाबाद-211001 (उत्तर प्रदेश)
चंद्रशेखर की प्रतिबध्दता हमें प्रेरणा देती है, उनके बारे में जानना खुद को जागरूक करने जैसा था.
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