Saturday, August 24, 2013

दीपांकर भट्टाचार्य के नाम खुला पत्र

साभार-नवभारत टाइम्स
कामरेड, 23 अगस्त 2013 के दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय संस्करण (पृष्ठ सं-10) में प्रकाशित एक ख़बर से व्यथित होकर यह पत्र लिख रहा हूँ । ख़बर में आपके हवाले से कहा गया  है कि आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाकपा (माले) बिहार में अंतिम क्षण तक वाम एकता का प्रयास करती रहेगी । वाम एकता माने- भाकपा, माकपा और भाकपा (माले ) की एकता । सामान्यतः वाम एकता के इस प्रयास को सकारात्मक माना जाएगा लेकिन मेरी समझ इसे सकारात्मक मानने के लिए तैयार नहीं है । पिछले दिनों फेसबुक पर मित्र आकाश ने एक कमेंट कर पूछा- भाकपा (माले) के बारे में आपका क्या खयाल है, जो भाकपा और माकपा की नीतियों का विरोध भी करती है और चुनावी फायदे के लिए गठबंधन भी ? यह कमेंट एक पोस्ट पर किया गया था जिसमें गलत नीतियों की वजह से भाकपा और माकपा को मैंने अप्रासंगिक कहा था । मैं इसे एक वाजिब सवाल मानता हूँ । मैं आइसा का एक बहुत सक्रिय तो नहीं लेकिन समय-समय पर सहयोगी भूमिका निभाने वाला एक सदस्य रहा हूँ । आइसा देश में राजनीतिक विकल्प के तौर पर भाकपा (माले) पर विश्वास जताती है । संभवतः असहज कर देने वाला यह सवाल मेरी तरफ इसी लिए उछाला गया था । मैंने प्रतिउत्तर में लिखा कि भाकपा (माले) को इसका जवाब देना होगा । आज इस खबर को पढ़ते हुए मुझे लगा कि सवाल पूछने का यह सही वक्त है ।

ओम थानवी - आशा है आप इस नाम से परिचित होंगे । फेसबुक के माध्यम से अक्सर ही उनकी एक चिंता मुझ तक पहुँचती है । आशय होता है कि कोई उन्हें बताए कि इस देश में इतनी वामपंथी पार्टियाँ क्यों हैं ? भाकपा है तो फिर माकपा या भाकपा (माले) की क्या जरूरत है ? इसी तर्ज पर वे कहते हैं प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के रहते अन्य वामपंथी लेखक संगठनों  जनवादी लेखक संघ (जलेस) और जन संस्कृति मंच (जसम) की क्या जरूरत आन पड़ी ? उनकी यह जिज्ञासा मुझे बालसुलभ लगती रही है । वामपंथी दलों का विभाजन किन कारणों से हुआ और इस तरह के विभाजन का होना कितना जरूरी था- यह कोई ठीक से समझना न चाहे तो समझा पाना श्रमसाध्य तो हो ही जाता है । ठीक इसी तरह यह मान लेना कि लेखक किसी राजनीतिक विकल्प में आस्था रख सकता है, कई लोगों के लिए बहुत कठीन है ।  वामपंथी राजनीति के प्रति आस्थावान लेखक विभिन्न वामपंथी पार्टियों के समर्थक और उनके लेखक संघों  के सदस्य हो सकते हैं, यह बात भी कुछ लोगों को नहीं पचती । लेकिन ठीक इस समय जब मैं आपको यह खुला पत्र लिख रहा हूँ, मुझे लग रहा है कि जिसे मैं बालसुलभ या अपरिपक्व जिज्ञासा, सवाल या सोच मानता रहा हूँ, उसमें दम है । मेरी नजर में, यह दम आया है वाम एकता की बात करने के बाद ।

कामरेड, हम अपने आंदोलनों में एक नारा देते हैं जिसका आशय होता है- एकीकृत जनता हमेशा विजयी होती है । एकता, एकीकरण जैसे शब्दों के प्रति हमारा सौंदर्यबोध बेहद मजबूत है । वाम एकता सुनते हुए भी सहसा ऐसा ही सौंदर्यबोध जगता है लेकिन यह जल्दी ही विकृत हो जाता है । इतिहास में भाकपा और माकपा ने जो गलतियाँ की है उसका जिक्र भाकपा (माले) के दस्तावेजों में बखूबी हुआ है । इसलिए इतिहास कुरेदने की जरूरत मुझे महसूस नहीं हो रही है । सोचने समझने की उम्र होने पर जो मैंने देखा और समझा है उसी में से कुछ का जिक़्र कर देना काफी है । आशा है आप सिंगुर और नंदीग्राम नहीं भूले होंगे । सिंगुर में सेज (SEZ) कानून के अन्तर्गत टाटा मोटर्स के लिए कारखाना और नंदीग्राम में केमिकल कारखाना लगवाने के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण करने का प्रयास और आंदोलन को कुचलने के लिए हुए जनसंहार और सौकड़ों किसानों पर दर्ज फर्जी मुक्कदमें यह सावित करने के लिए काफी हैं कि खुद को मार्क्सवादी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने वाली पार्टियाँ वास्तव में मार्क्सवादी हो भी, जरूरी नहीं है । हाल में, क्या वह वामपंथ पर हावी बंगाली अस्मिता नहीं थी, जिसने माकपा को खाँटी कांग्रेसी प्रणव मुखर्जी  को राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन की प्रेरणा दी ? आज भी यह बेहद शर्मनाक लगता है कि इन वामपंथी पार्टियों ने उस कांग्रेस सरकार को सहारा दिया जिसके मुखिया नव उदारवाद मॉडल के मास्टर माइंड मनमोहन सिंह थे।
   
कामरेड, राजनीति में कुछ तर्क पूर्वानुमानित होते हैं । मसलन भाकपा (माले) की ओर से यह तर्क आ सकता है कि साम्प्रदायिक व पूँजीवादी ताकतों को शिकस्त देने के लिए वाम ताकतों का एक होना जरूरी है । इसी तर्क के आधार पर सपा, बसपा, राजद, जद(यू) और लोजपा जैसी अवसरवादी ताक़तों से भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ हाथ मिलाती रही हैं या मिला सकती हैं । मुझे ऐसे तर्क एक साथ कातर और खतरनाक लगते हैं । साम्प्रदायिक ताकतें यदि जोर-तोड़ से सत्ता में आ जाती हैं तो देश बर्वाद हो जाएगा-इस आशंका को हवा देना बंद कर देना चाहिए, विशेष कर जुझारू वामपंथी पार्टियों को । साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए कम्युनिस्ट विचारों को ताक पर रख देना कहीं से उचित नहीं है । संसदीय राजनीति में विरोध की भूमिका कभी खत्म नहीं होती है । कायदे से यह होगा कि सत्तासीन साम्प्रादायिक ताकतें जब कभी देश की पंथनिरपेक्ष चरित्र को नुकसान पहुँचाने की कोशिश करेगी, ईमानदार वाम ताकतें संसद से सड़क तक विरोध का ऐसा वातावरण तैयार कर देंगी कि साम्प्रदायिक ताकतों को अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का भलि-भाँति एहसास हो जाएगा । साम्प्रादायिक या पूँजीवादी ताक़तों का सत्ता में आना दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन किसी भी खतरनाक मंशा को हम नाकाम कर देंगे - किसी ईमानदार वामपंथी पार्टी का यही स्टेंड हो सकता है । भाकपा और माकपा का ऐसा स्टेन्ड कभी नहीं रहा है । इन पार्टियों ने अपने कम्युनिस्ट चरित्र का अनेक अवसरों पर गला घोंटा है । भाकपा और माकपा जैसी पार्टियों से चुनावी तालमेल भाकपा (माले) को भी इसी कतार में खड़ा कर देगा ।

कामरेड, अपनी गलतियों को मान कर सुधार का संकल्प शुद्धिकरण का प्रयास कहलाता है । माकपा, भाकपा का ऐसे प्रयासों से बैर रहा है । ये पार्टियाँ ऐसा प्रयास भी करती तो उनसे गठबंधन को जायज ठहराया जा सकता था । बड़े जन आंदोलनों में जो दल एक साथ नहीं आ सकते, कम्युनिस्ट मूल्यों के लिए जो साथ लड़ते नहीं, उनमें चुनावी तालमेल ,माफ करिएगा ,घाघ राजनीति का नमूना है ।

अब कुछ बेहद अप्रिय बातें । बिहार इस समय भारी विकल्पहीनता से जूझ रहा है । ऐसे में भाकपा (माले) जिस जनविकल्प की बात करता है, उसकी मजबूत दाबेदारी पेश कर पाने में वह असफल रहा है । बिहार के सड़कों पर सबसे अधिक सक्रिय  दिखने वाली इस पार्टी में संभवतः राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हो गया है । बिहार के अनेक युवाओं से मेरा बहुत निकट का परिचय है जो दिल्ली में रह रहे हैं और माले की राजनीति के लिए खुद को समर्पित कर चुके हैं । दिल्ली में हुए कई जनआंदोलनों में वे खुद को एक सक्षम नेता के तौर पर स्थापित कर चुके हैं । माले बिहार में इस उर्जा का उपयोग कर पाने में असफल रहा है । बहुत संभव है कि इन युवाओं को चंद्रशेखर के रास्ते चलने की अपेक्षा दिल्ली की सड़कें ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा प्रतिष्ठा दिलाने वाली लगती हों । ऐसे माहौल में भाकपा माकपा का दामन थामने का विचार आ सकता है, ऐसा मुझे लगता है । मैं आपसे कहता हूँ और बहुत जोर देकर कहता हूँ कि उन वामपंथी ताकतों का वहिष्कार बेहद जरूरी है जिनकी नीतियों ने वामपंथ के प्रति जनता में मोहभंग पैदा किया है । उग्र राजनीति अक्सर एकाकी होती है । एक बेहतर वाम विकल्प यदि देश के सामने आएगा तो वह वामपंथी राजनीति की बुराइयों का निषेध करते हुए ही आएगा । मुझे आशा है कि भाकपा (माले) भाकपा और माकपा से चुनावी गठबंधन करने का ईरादा छोड़ देगी । इसी क्रम में ध्यान आया कि हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विश्वास प्रस्ताव में उनका समर्थन करने वाली भाकपा की नीतीश सरकार से नजदीकियों की जानकारी होने से आपने इंकार किया है । मुझे हैरानी हुई । भाकपा (माले) ने नीतीश सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरने का साहस लगातार दिखाया है । लेकिन वाम एकता की महत्वाकांक्षा की वजह से भाकपा और जद(यू) की नजदिकियों की सूचना से आपका इंकार करना, बेहतर राजनीति का संकेत नहीं है । मुझे अपनी राजनीतिक समझदारी का गुमान नहीं है । आप चाहें तो मेरी बातों को तार्किक ढंग से नकार कर मुझे समझा सकते हैं । ईमानदार और गैरईमानदार राजनीति का फर्क तो जनता को तय करना है । शुभकामनाओं सहित-

कुमार सौरभ


भास्कर में छपी खबर की पृष्ठ का लिंक - Bhaskar E-paper

9 comments:

  1. वाम एकता का एकमात्र मतलब न तो एकीकरण है , न समर्पण- समझौता .यह एक आलोचनात्मक रणनीतिक साझेदारी भी हो सकती है . पार्टियां केवल नेताओं और नीतियों से नहीं बनतीं . उनका एक वर्गीय जनाधार होता है . वाम एकता का एक मतलब समस्त वाम जनाधार की एकता भी हो सकता है .

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    1. सर मैंने आपके कमेंट पर बहुत सोचा। सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। समाज का शोषित वंचित तबका सिर्फ वाम दलों का जनाधार नहीं रहा है। यह तबका लुभावने वादे से या भ्रमवश ही सही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का समर्थन करता रहा है। बिहार की राजनीति का ही उदाहरण लें तो राजद और जद (यू) का भी बड़ा जनाधार इस तबके से आता है। ऐसे में एक ईमानदार वामपंथी पार्टी की क्या रणनीति हो सकती है ? निश्चित रूप से यह रणनीति भ्रम के शिकार शोषित वंचित लोगों को सच्चाई से परिचित करा कर उनकी वर्ग चेतना को सही दिशा देने की होगी। सर क्या यही रणनीति ग़ैरईमानदार वाम ताकतों के जनाधार के संदर्भ में नहीं हो सकती है ?

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  2. अति क्रांतिकारिता का शिकार होकर हिंदुस्तान के कम्युनिस्ट आन्दोलन का विघटन करने वाले अगर अपनी गलती का एहसास कर सतही एकता की बात करते है, तब भी पेट में दर्द होता है. आज के हालात में जब न तो क्रांति के लिए परिस्थितियां तैयार है और न ही संगठन तो कम लोकतान्त्रिक संविधान के तहत ही करना होगा. जब चुनाव लड़ना है तो बिना वामपंथ को नुकसान पहुचाये अधिक से अधिक विधायक और सांसद चुनवाने की रणनीति बनानी ही होगी.

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    1. आपकी बातों का संदर्भ मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ। थोड़ा स्पष्ट करेंगे ?

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  3. शुद्धतावाद अराजनीि‍तक बनाता है। इसकी अपेक्षा कमोि‍डटी में करे तो ठीक है। समाज और राज प ि‍रवर्तन के संघर्ष में यह बेमतलब पद है।

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    1. आप की बात ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ। थोड़ा और स्पष्ट कर सकेंगे ?

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  4. आशुतोष सर का कहा एक बार फिर दोहराता हूँ बांकी मिलने पर..
    वाम एकता का एकमात्र मतलब न तो एकीकरण है , न समर्पण- समझौता .यह एक आलोचनात्मक रणनीतिक साझेदारी भी हो सकती है . पार्टियां केवल नेताओं और नीतियों से नहीं बनतीं . उनका एक वर्गीय जनाधार होता है . वाम एकता का एक मतलब समस्त वाम जनाधार की एकता भी हो सकता है .

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    1. दिनेश, मैंने सर को उत्तर लिखा है। मैंने वाम जनाधार की एकता से भी एक कदम आगे सर्वहारा वर्ग की एकता की बात की है। मेरी समझ से वाम जनाधार की एकता का मतलब यह नहीं है कि छद्म कम्युनिस्ट पार्टियों से चुनावी समझौते किये जाए। जरूरी है कि उन दलों के छद्म का लगातार पर्दाफास किया जाए और एक सही विकल्प के तौर पर ईमानदार कम्पायुनिस्ट पार्टी स्वयं को प्रस्तुत करे।

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  5. Comrade, CPI(M) is treading a revisionist path rapidly in multiple ways no doubt but can anyone objectively say that it has ceased to be M-L formation completely. If yes, how would one explain why that party finally (that too very late when the deal as already went out of the hand precisely because of the very path it is following but still finally ) withdrawn the support to UPA-I on the issue of nuclear deal which may not necessarily pay in electoral terms.

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