सृजनात्मक संघर्ष क्या
है
? यह सवाल सुनकर, मुझे सबसे पहले मुक्तिबोध का ध्यान आएगा ।
मुक्तिबोध की एक ‘साहित्यिक की डायरी’
और लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ दो ऐसे
स्रोत रहे हैं, जिनसे मुझे सृजनात्मक संघर्ष अथवा लेखक के आत्मसंघर्ष को समझने में
पर्याप्त मदद मिलती है । अपने विवेक से मैं जितना समझ पाया हूँ, उसी आधार पर
सृजनात्मक संघर्ष पर कुछ लिखने की छूट ले रहा हूँ ।
लगभग
एक सप्ताह पहले अल्पना मिश्र के पिछले जन्मदिन (18 मई 2014) पर ‘स्त्रीकाल’ वेब पोर्टल पर प्रकाशित उनकी पाँच
कविताओं को उनके अगले जन्म दिन पर फिर से फेसबुक पर शेयर किया गया था । शेयर किये
गये एक लिंक पर आशुतोष कुमार ने अल्पना मिश्र को टैग करते हुए अपनी प्रतिक्रिया इस
तरह दी – “अल्पना मिश्र का सृजनात्मक संघर्ष एक मिसाल है । उन्हें बधाई ।” इस
प्रतिक्रिया को पढ़कर मैं देर तक सोचता रहा कि आशुतोष कुमार ने किस आधार पर अल्पना
मिश्र के सृजनात्मक संघर्ष को मिसाल कहा होगा ! मुझे लगता
है, आशुतोष जी के पास इसका आधार ज़रूर रहा होगा, इस पर फुर्सत से वे लिख भी सकते
हैं । तत्काल मन में कोई आधार नहीं भी रहा हो, तो भी मुझे विश्वास है कि भविष्य
के लिए, वे अपने विवेक से इसे तैयार कर लेंगे । बहरहाल मुझे स्वीकारना चाहिए कि
आशुतोष कुमार की प्रतिक्रिया के कारण ही इस विषय पर विचार करने की मुझे आवश्यकता
महसूस हुई है ।
फिर
से उसी सवाल पर लौटते हैं कि सृजनात्मक संघर्ष क्या है ! मेरी समझ से सामान्यतः इसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए किये जाने वाले
आत्म और बाह्य संघर्ष के रूप में परिभाषित करने में कोई बुराई नहीं है । ऐसा
संघर्ष प्रत्येक सृजनधर्मी कमोबेश करता ही है । अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इस आत्म
और बाह्य संघर्ष को सूक्ष्मता से समझा जाए । मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन
वागर्थ के किसी अंक में कलकत्ता की एक लेखिका के नागार्जुन से हुई भेंट पर लिखे
संस्मरणात्मक लेख को पढ़ा था । लेखिका ने बहुत उत्साह से अपनी कुछ रचनाएँ बाबा
नागार्जुन को सुनाई । लेखिका ने लिखा है कि अचानक से बाबा बहुत क्षुब्ध हो गये, और कहने लगे कि इन रचनाओं को लिखते हुए तुम कभी रोई हो ? लिखते हुए कई बार रात-रात भर रोना पड़ता है..वगैरह..वगैरह..। बाबा के लगातार
बोलते जाने का सार यह था कि सच्ची अभिव्यक्ति, अभिव्यक्त पात्रों की पीड़ा अथवा
विषय की संवेदना को महसूस किये बिना संभव नहीं हो सकती है । शायद नागार्जुन इतने
क्षुब्ध हो गये थे कि वे उठ कर चले गये थे । नागार्जुन ने अपनी एक कविता में सृजन
की इसी पीड़ा को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है- ‘इंदुमति के
मृत्यु शोक से अज रोया या तुम रोए थे ? / कालिदास, सच-सच
बतलाना !’ मेरा मानना है कि सृजन के क्रम में ऐसी पीड़ा को
अपने भीतर महसूस करना दरअसल सृजनात्मक संघर्ष का पहला अहम हिस्सा है । सृजनात्मक
संघर्ष के इस हिस्से को ईमानदारी से निभाने वाले सृजनधर्मी व्यक्तिगत जीवन में भी
अत्यंत संवेदनशील नहीं होंगे, इस संदेह का कोई कारण नहीं दिखता । सृजनात्मक संघर्ष
का यह हिस्सा अहम है, लेकिन सृजनात्मक संघर्ष का सब कुछ यही नहीं है ।
‘अंधेरे में’ कविता में कवि जिस परम अभिव्यक्ति की
खोज में छटपटाता हुआ दिखाई देता है, मेरी समझ से सृजनात्मक संघर्ष का वह दूसरा अहम
हिस्सा है । अभिव्यक्ति की छटपटाहट क्या सभी सजग सृजनधर्मियों में नहीं होती? इसका घनत्व कम या अधिक हो सकता है, लेकिन प्रत्येक सजग सृजनकर्मी में इसकी
उपस्थिति होती ही है । इसके कारण अलग अलग हो सकते हैं । संस्कृत काव्यशास्त्रों
में यश और धन के लिए काव्यकर्म का उल्लेख मिलता है, यह आज भी अप्रासंगिक नहीं हुआ
है । ‘धन’ से पारिश्रमिक का अर्थ लगाना
गलत होगा । इसे आज के दौर में बड़े पुरस्कारों और आर्थिक फायदे वाले पदों से जोड़
कर देखा जा सकता है । ऐसे सृजन कर्म में भी उम्दा कार्य करने का दबाव होता है ।
ऐसे सृजन कर्म भी पर्याप्त प्रतिष्ठा हासिल कर लेते हैं । अभिव्यक्ति की आकुलता को
इस प्रकार के सृजन कर्म के माध्यम समझने का प्रयास किया जाए तो हम ‘अभिव्यक्ति की छटपटाहट’ के मर्म को नहीं समझ सकते । ‘अंधेरे
में’ की पंक्तियाँ- “अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही
होंगे / तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब”-
यहाँ हमारी मदद कर सकती हैं । अभिव्यक्ति अथवा सृजन का संघर्ष अभिव्यक्ति के ज़रूरी
ख़तरे उठाए बिना बहुत अधूरा है । यह ज़रूरी ख़तरे हमारे समय के मुताबिक तय होते
हैं । हम जिस लोकतंत्र में रहते हैं वहाँ, परिवेशगत जमीनी जटिल समस्यायों से जूझने
के बजाए उच्चस्थ सत्ता, व्यवस्था और पूँजी प्रतिष्ठानों की आलोचना अधिक सुविधाजनक
है । इस तरह की अभिव्यक्ति बहुत हद तक खतरे के दायरे से बाहर है, हालाँकि
इस तरह की आलोचना का पर्याप्त महत्व है, और आज भी यह खतरे से एकदम परे नहीं है । अभिव्यक्ति
के ख़तरे को समझदारी से परिभाषित किये जाने की जरूरत है । पंजाबी कवि अवतार सिंह
पाश का सृजन कर्म इसका एक उदाहरण हो सकता है, जिन्होंने विसंगतियों के विरूद्ध
अपनी निष्ठा के साथ संघर्ष किया और मारे गये । कबीर ने उस दौर में धर्म और जाति
व्यवस्था को चुनौती दी थी जिसके सैकड़ों साल बाद और तथाकथित लोकतांत्रिक अधिकारों
के रहते भी साम्प्रादायिक और जातीय दबंगई का पार नहीं पाया जा सका है । अभिव्यक्ति
की छटपटाहट का मूल्यांकन उसके प्रयोजन के
आधार पर ही किया जाना चाहिए ।
सृजनात्मक
संघर्ष का एक और पक्ष उल्लेखनीय है । सृजनधर्मियों की व्यक्तिगत परिस्थिति पर
विचार किया जाना भी आवश्यक है । अभावों, व्यक्तिगत सीमा, असुविधा, शारिरिक अथवा
मानसिक पीड़ा जैसी कई चुनौतियों के रहते भी सोद्देश्य सृजन के प्रति निष्ठावान रह
सकना , निस्संदेह बहुत बड़ा सृजनात्मक संघर्ष है । ऐसे में सृजन बहुत प्रभावशाली
नहीं भी हो, तब भी वह सृजनात्मक संघर्ष की महत्वपूर्ण निधि है और इस नाते सम्माननीय
भी ।
उपर
के तीन पैरा में सृजनात्क संघर्ष के सभी आयाम समेट लेने का दावा नहीं किया जा सकता
है । फिर भी सृजनात्मक संघर्ष को समझने की जो कोशिश की गयी है, उसमें किसी एक परिस्थिति
या बिन्दु को निर्णायक नहीं समझ लिया गया है । मसलन जरूरी नहीं कि सृजनधर्मी आर्थिक
अभाव में रहता हो, लेकिन तब भी यह आवश्यक है कि वह अभिव्यक्ति के जरूरी ख़तरे उठाने
के लिए आत्मसंघर्ष करता हो और उस पक्ष में खड़ा हो जो न्यासंगत हो । यदि यह
आत्मसंघर्ष वास्तविक होगा तो सवाल ही नहीं उठता कि रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन उसके
सृजन की भावना के विपरीत होगा ।
चूँकि
एक विश्वविद्यालयी शिक्षक के सृजन कर्म पर एक विश्वविद्यालयी शिक्षक की टिप्पणी को
प्रस्थान बिंदु के रूप में चुना गया था, एक और बिन्दु पर विचार करना आवश्यक है । विश्वविद्यालयी शिक्षकों के सृजनात्मक संघर्ष का मूल्यांकन क्या अन्य लोगों के सृजनात्मक संघर्ष
से अलग तरीके से करना चाहिए चाहिए? मेरा उत्तर है-
हाँ । यह उत्तर सृजनात्मक संघर्ष पर तीन पैरा में की गयी चर्चा के आधार पर ही दिया
जा रहा है । विश्वविद्यालयी शिक्षकों को मिलने वाला अपेक्षाकृत भारी वेतन, विभिन्न सुविधाएँ
और पर्याप्त अवकाश जनता के पैसों की बदौलत है । इसलिए उनके ऊपर प्राथमिक
जिम्मेदारी विद्यार्थियों के बिना भेद-भाव बेहतर निर्माण की है, उपलब्ध ज्ञान के दोषरहित हस्तांतरण और विस्तार की है । इस प्रसंग की
तमाम विसंगतियों और कुव्यवस्था से जूझना उनका अनिवार्य दायित्व है । इस तरह उनका
प्राथमिक सृजनात्मक संघर्ष विद्यार्थियों के निर्माण का संघर्ष है । यदि वे यहाँ
ईमानदार नहीं होंगे तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि वे किसी किस्म के सृजनात्मक
संघर्ष के योग्य नहीं हो सकते । एक विद्यार्थी के नाते अपने किसी शिक्षक के
रचनात्मक सृजन से मुझे खुशी होती है, लेकिन मेरे लिए उनके सृजनात्मक संघर्ष को
समझने के लिए एक शिक्षक और एक मनुष्य के बतौर उनका आचरण काफी होता है। दुर्भाग्य
से विश्वविद्यालयी शिक्षकों ने जिनके ऊपर सृजन की अपेक्षाकृत बड़ी जिम्मेदारी है,
आपसी साँठ-गाँठ से ऐसा माहौल तैयार कर लिया
है, जहाँ सृजनात्मक संघर्ष से रहित सृजन की जय जयकार हो रही है । विद्यार्थियों के
सृजन में लगे शिक्षक और उनका ईमानदार लेखन भी घोर उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, और
विशेष प्रयोजन से कविता संकलन, कथा संकलन, उपन्यास और राग-द्वेष के आधार पर लिखी
गयी या संपादित आलोचना की किताब अथवा अभिनंदन ग्रंथ छपवाने वाले प्रोफेसरों को
पुरस्कार और सम्मान मिल रहा है, उनकी जयजयकार हो रही है ।
यह
समझ में आता है कि किसी कृति मात्र पर चर्चा करते हुए समीक्षक उसे अच्छा, बेहतर, या
इच्छा हो तो बहुत उम्दा कह दे, लेकिन यह समझ से परे है कि किसी भी सृजन कर्म को
बड़ा सृजनात्मक संघर्ष कहने से पहले गंभीरतापूर्वक सोचा विचारा न जाए । इस तरह की
टिप्पणी बहुत सतर्क हो कर ही करनी चाहिए । जाने-अनजाने सृजनात्मक संघर्ष के संदर्भ
में चलताऊ टिप्पणी कर के हम अपने उन पूर्वजों और समकालीनों का सिर्फ अपमान ही नहीं
करते हैं बल्कि उनके प्रति घोर कृतघ्नता प्रदर्शित करते हैं, जिन्होंने अपना पूरा
जीवन सृजनात्मक संघर्ष के निमित्त समर्पित कर दिया या इस तरह के समर्पण का संकल्प
लेकर उसे निभाने में यत्न पूर्वक जुटे हुए हैं। यह हमारी अगली पीढ़ी के प्रति भी
अपराध है, जिन तक सृजनात्मक संघर्ष ही नहीं अब तक उपलब्ध सम्पूर्ण ज्ञान की सही समझ प्रेषित करना हमारा अपरिहार्य कर्तव्य
है ।
No comments:
Post a Comment