Monday, December 31, 2018

* मैथिली भाषा अस्मिता के संदर्भ में लिपि का प्रश्न *

         मैथिली के स्वतंत्र भाषा होने के दावे को खारिज करने की चेष्टा में जितने भी तर्क दिये जाते हैं, उनमें प्रायः एक तर्क यह भी होता है कि इसकी अपनी कोई पृथक लिपि नहीं है। वास्तव में यह एक आधारहीन आरोप है।
[कल्याणी कोश (संपादक-पं. गोविन्द झा) से साभार]
मैथिली की अपनी एक परंपरागत लिपि रही है। मैथिली लेखन के लिए देवनागरी लिपि के प्रचलन में आने से पूर्व तक, यह भाषा सामान्यतः अपनी इसी परंपरागत लिपि में लिखी जाती थी। मिथिला के पंडित और विद्वान संस्कृत लेखन के लिए भी प्रायः इसी लिपि का उपयोग किया करते थे। भाषाविद ग्रियर्सन ने इस लिपि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह बांग्ला भाषा के लिए व्यवहृत लिपि से मिलती जुलती लिपि है।[1] इस लिपि को सामान्यतः तिरहुता अथवा मिथिलाक्षर लिपि के नाम से जाना जाता है।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इस लिपि के व्यापक उपयोग को हतोत्साहित करने वाली पस्थितियाँ निर्मित होने लगी थीं। शैलैन्द्र मोहन झा ने अपने एक लेख 'आधुनिक मैथिली साहित्यक पृष्ठभूमि' मे इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए लिखा है दरभंगा राज, जहाँ प्रारंभ से ही मैथिली को प्रश्रय मिलता आ रहा था, जब 1860 ई. मे यह कोर्ट ऑफ वार्ड्सके अधीन कर दिया गया, तो उससे मैथिली भाषा और लिपि को हटाकर उर्दू भाषा और फारसी लिपि को स्थान मिला। इसके बाद लक्ष्मीश्वर सिंह ने यह स्थान खड़ी बोली और देवनागरी लिपि को दिया। देवनागरी लिपि में प्रेस की सुविधा हो जाने से मैथिली के विद्वान भी अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए इसी लिपि का प्रयोग करने लगे और यह एक तरह से मैथिली की वैकल्पिक लिपि बन गयी।[2] 
औपनिवेशिक भारत के यूरोपीय भाषाविज्ञों ने भाषाओं और उनकी बोलियों की पहचान पर चर्चा करते हुए, भाषा के लिए पृथक लिपि की अनिवार्यता पर ज़ोर नहीं दिया है। उदाहरण के लिए, 1866 में प्रकाशित जॉन बीम्स की किताब द आउटलाइंस ऑफ इंडियन फिलोलॉजी के एक अध्याय ऑन डाइलेक्ट्स का संदर्भ ग्रहण किया जा सकता है। इस अध्याय में जॉन बीम्स ने पहले यह स्वीकार किया है कि भाषा और बोली की पहचान से सम्बंधित प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर दे सकने लायक कोई युक्ति विकसित नहीं की जा सकी है। उनके अनुसार इस संदर्भ में कोई एक सामान्य नियम लागू कर पाना कठिन है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अध्ययन और भाषा सीखने में सुविधा के दृष्टिकोण से उन्हें बोलियों का वर्गीकरण आवश्यक लगता है। इसी उद्देश्य से उन्होंने भाषाओं और उनकी बोलियों की पहचान कर पाने के लिए पारस्परिक बोधगम्यता, व्याकरणिक संरचना की समानता और शब्दों की समानता सहित कई अन्य आधारों पर एक-एक कर बहुत सतर्कता के साथ विचार करने का सुझाव दिया है। उन्होंने उन परिस्थितियों, घटनाओं और विशेषताओं का भी उल्लेख किया है, जिनके कारण, कोई बोलीस्वतंत्र भाषा के रूप में पहचाने जाने के योग्य हो जाती है। इस अध्याय में जॉन बीम्स ने लगभग सभी प्रासंगिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की है, लेकिन उन्होंने इसमें कहीं स्वतंत्र भाषा के निर्धारण के लिए लिपि को एक कारक के रूप में प्रस्तावित नहीं किया है। पंजाबी भाषा के स्वतंत्र अस्तित्व को सुनिश्चित करने में सिख धर्म की भूमिका पर चर्चा करते हुए, उन्होंने प्रसंगवश इस धर्म के पवित्र ग्रंथकी रचना के लिए उपयोग की गयी गुरूमुखी लिपि का उल्लेख अवश्य किया है, लेकिन यह उल्लेख स्वतंत्र भाषा के लिए पृथक लिपि की अनिवार्यता या महत्व को स्थापित नहीं करता है।[3]
ग्रियर्सन ने भी लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के पहले खंड में भाषा सर्वेक्षण से जुड़े अपने अनुभवों के आधार पर भाषाओं और बोलियों के वर्गीकरण को बहुत ही जटिल कार्य माना है। उन्होंने भी यह स्वीकार किया है, कि इस संदर्भ में कोई सर्वमान्य नियम नहीं है। इसके बाद उन्होंने इस संदर्भ में अपनी मान्यता को उदाहरणों के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस क्रम में उन्होंने जिन कुछ कारकों को स्वतंत्र भाषा के निर्धारण के लिए महत्वपूर्ण माना है, उनमें भी लिपि का उल्लेख नहीं है।[4]
भाषाविज्ञों के द्वारा भाषाओं की पृथकता को निर्धारित करने के लिए लिपि को एक कारगर कारक नहीं मानने का महत्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि लिपि का भाषा के मौखिक रूप के बजाय लिखित रूप से सम्बंध होता है, जबकि भाषाओं के बीच अंतर करने की वैज्ञानिक पद्धति मुख्यतः इसके मौखिक रूप का ही परीक्षण करती है।
         भाषावैज्ञानिक महत्व नहीं होने के बाद भी कई कारणों से भारत के उत्तर-औपनिवेशिक भाषा विमर्शों में स्वतंत्र भाषा के अस्तित्व के लिए लिपि महत्वपूर्ण कारक के रूप में चिह्नित की जाने लगी। संभव है कि हिन्दी-उर्दू के बंटवारे में पृथक लिपियों की महत्वपूर्ण भूमिका के अलावा कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं की अपनी अलग लिपि के होने के कारण इस धारणा को अधिक बल मिला हो। हिन्दी की बोलियों की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए भी पक्षधर विद्वानों ने भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता के लिए लिपि की अनिवार्यता पर ज़ोर देना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि भाषायी अस्मिता के लिए लिपि का प्रश्न बहुत संवेदनशील होता गया।
स्वतंत्र भाषा के लिए लिपि की अनिवार्यता को स्थापित करने के प्रयासों के एक उदाहरण के लिए प्रतिष्ठित विद्वान डॉ. हरदेव बाहरी की 1965 में प्रकाशित किताब हिन्दी : उद्भव, विकास और रूप’ में व्यक्त उनके इस मत का उल्लेख करना उपयुक्त होगा  “..मगही-मैथिली बोलियाँ तो हैं, किन्तु भाषाओं में उनका स्थान नहीं है- भाषा हिन्दी ही है। राजस्थानी या (विशेष रूप से) बिहारी भाषा जैसी कोई चीज नहीं इनकी कोई अपनी लिपि नहीं, साहित्य की अपनी कोई परम्परा नहीं, शासन द्वारा कोई मान्यता प्राप्त नहीं, कोई एक स्वरूप नहीं, कोई आदर्श नहीं।[5]
यह ध्यान देने योग्य है कि डॉ. बाहरी ने मगही, मैथिली को बोली कहने के बाद, भाषाओं के लिए जिन तत्वों को आवश्यक माना है, ‘लिपि उनमें से पहला तत्व है।
इस प्रसंग में प्रख्यात हिन्दी आलोचक व भाषाचिंतक रामविलास शर्मा के दृष्टिकोण का उल्लेख करना भी उचित होगा। वे इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित थे कि मैथिली की अपनी अलग लिपि रही है। वे तिरहुता लिपि के देवनागरी लिपि के द्वारा हुए विस्थापन से भी परिचित थे और इसे हिन्दी के लिए बहुत सकारात्मक मानने वाले विद्वानों में शामिल थे। 1954 में प्रकाशित अपने लेख हिन्दी और मैथिलीमें मैथिली को हिन्दी की एक बोली सिद्ध करने के अपने प्रयासों के बीच उन्होंने द हिस्ट्री ऑफ मैथिली लिट्रेचरके लेखक जयकांत मिश्र के द्वारा मैथिली लिपि के लोप और उसके बदले देवनागरी लिपि के प्रचलन पर व्यक्त किये गये खेद का उल्लेख करने के बाद लिखा है : लेकिन यह काम भी मैथिली-हिन्दी जनता के जातीय विकास में सहायक सिद्ध हुआ।[6] उनके इस लेख को पढ़ कर यह आसानी से समझा जा सकता है कि मैथिली-हिन्दी जनता के जातीय विकासकी उनकी धारणा का आशय हिन्दी की विशाल जातीयता में मैथिल जनता का विलय है। अपने इस लेख में विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करने के बाद उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है कि मैथिली हिन्दी की एक बोली मात्र है, और उसका बोली होना समय के साथ और भी स्पष्ट होता चला जाएगा।
इस तरह की धारणाएँ भाषा अस्मिता के संदर्भ मे लिपि के प्रश्न पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं ।
परिस्थितिवश या किन्हीं अन्य कारणों से तिरहुता अथवा मिथिलाक्षर लिपि का त्याग मैथिली के विद्वानों और मैथिली अस्मिता से सम्बद्ध लोगों के लिए प्रायः समान रूप से दुख और चिन्ता का विषय रहा है। अधिकांश मैथिल विद्वानों का यह मानना रहा है कि लिपि त्याग के कारण मैथिली का स्वतंत्र भाषा के रूप में दावा सर्वाधिक कमजोर हुआ। रमानाथ झा ने इस संदर्भ में अपनी किताब मैथिलीक वर्तमान समस्या’ मे लिखा है- आज मैथिली के प्रसंग में जो बाधा है, उसका एकमात्र कारण है कि हम लोगों ने अपनी लिपि को त्याग दिया। भारतीय राष्ट्रीयता के हित की भावना से प्रेरित होकर हम लोगों ने यह त्याग किया, इसे सब भूल गये। आज यदि मैथिली लिपि प्रचलित होती तो भारत में एकता के सूत्र में वह भी एक गाँठ होती। हिन्दी साम्राज्यवाद के पुजारियों ने हमारी उदारता को हमारी दुर्बलता समझ लिया, हमारे त्याग को मूर्खता मान लिया, और क्रमशः हमारी भाषा का समूल नाश करने में लग गये, हमारी जातीय सत्ता पर आघात करने लगे।[7]
रमानाथ झा ने लिपि त्याग के कारण के रूप में जिस राष्ट्रीयता की भावना का उल्लेख किया है, उस पर विचार करना आवश्यक है। गाँधी जी हिन्दी या हिन्दुस्तानी के प्रचार-प्रसार को भी राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का अनिवार्य हिस्सा समझते थे। वे इस उद्देश्य के लिए भी गंभीरतापूर्वक काम कर रहे थे। उनका मानना था कि इस देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है। वे यह भी मानते थे कि हिन्दी, प्रांतीय भाषाओं के विकास मे बाधक नहीं होगी, बल्कि उनके विकास मे सहायक ही सिद्ध होगी। हिन्दी के प्रचार और प्रसार के क्रम मे लिपि का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हरिजन’ के 04.05.1935 अंक मे प्रकाशित अपने एक लेख मे गाँधी जी ने अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा स्वीकृत उस प्रस्ताव की चर्चा की है, जिसका आशय यह था कि उन समस्त भाषाओं को देवनागरी लिपि मे लिखा जाना चाहिए जो या तो संस्कृत से निकली हैं, अथवा जिन पर संस्कृत का अत्यधिक प्रभाव रहा है।[8] गाँधी जी मन और मस्तिष्क दोनों से इस प्रस्ताव के पक्ष में थे। इस लेख में उन्होंने लिखा है कि एक लिपि हो जाने से भगिनी भाषाओं को सीखने में सुविधा होगी। इसी तरह हरिजन के 15.08.1936 अंक मे प्रकाशित एक लेख मे गाँधी जी ने लिखा - अलग अलग लिपियाँ, एक प्रान्तके लोगोंके लिए दूसरे प्रान्त की भाषा सीखने में अनावश्यक बाधा स्वरूप है।  यूरोप तो कोई एक राष्ट्र नहीं है फिर भी उसने एक सामान्य लिपि स्वीकार ली है।[9] इस लेख के अंत में उन्होंने लिखा है- “लिपियों का बोझ लादना, और वह भी खाली झूठे मोह और दिमागी आलस्यके कारण, अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा।[10] 
बहुत संभव है कि मिथिलाक्षर को त्याग कर देवनागरी लिपि को अपनाए जाने में इस तरह की भावनात्मक अपीलों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही हो । रमानाथ झा इस आशय की अभिव्यक्ति में सफल हुए हैं कि गाँधी जी की अपील में निहित सद्भावना, हिन्दी के ही तथाकथित हितैषियों के द्वारा क्रूरतापूर्वक नष्ट कर दी गयी। आजादी के बाद के परिदृश्य में भी अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन का नेतृत्व करने वाले समाजवादी चिंतक और नेता राममनोहर लोहिया सहित कई अन्य लोग ‘एक लिपि के सवाल पर गंभीरता पूर्वक चिंतनशील, मुखर और प्रयत्नशील रहे। ऐसे में अपनी लिपि का त्याग कर देवनागरी लिपि अपना लेने वाली एक भाषा की स्वतंत्र अस्मिता पर हिन्दी के तथाकथित हितैषियों का लगातार हमला, वास्तव में एक लिपि’ के विचार और भावना को संदेहास्पद, महत्वहीन और अस्वीकार्य बना देने के लिए पर्याप्त है, इस विडंबना की ओर चिंतकों का ध्यान प्रायः नहीं गया, या इसे अनदेखा किया गया।
यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि मैथिली की स्वतंत्र अस्मिता पर होने वाले आघातों ने ही अब तक मिथिलाक्षर लिपि के पुनर्प्रचलन की वैचारिकी को सर्वाधिक उत्तेजित करने का कार्य किया है ।
मार्च1942 में दरभंगा में आयोजित मैथिली साहित्य परिषद के आठवें अधिवेशन के दौरान मैथिली लेखक सम्मेलन के मंच से दिये गये अध्यक्षीय वक्तव्य में उमेश मिश्र ने कहा था – अंत में यह स्मरण करना आवश्यक है कि जब तक आप लोग मैथिली लिपि का प्रचार नहीं बढ़ायेंगे, तब तक मैथिली भाषा की जड़ सुदृढ़ नहीं ही होगी। एकमात्र मिथिलाक्षर का प्रचार बढ़ाने से अनायास मैथिली की रक्षा होती रहेगी, अन्यथा हमेशा कोई अन्य मैथिली के क्षेत्र को संकुचित करने की ही चेष्टा में लगा रहेगा।[11]
इस अधिवेशन के अध्यक्षीय संबोधन में अमरनाथ झा ने मिथिलाक्षर लिपि को फिर से अपनाए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था- किसी भाषा का साहित्य तभी सर्वांगपूर्ण हो सकता है, जब उस भाषा की एक अपनी स्वतंत्र लिपि हो।[12] अमरनाथ झा ने अपने इस संबोधन में मिथिलाक्षर के पुनर्प्रचलन को सीधे भाषा अस्मिता से जोड़ने के बजाय इसकी व्यावहारिक उपयोगिता और विशिष्टताओं से जोड़ा है। अपने संबोधन के लगभग अंत में उन्होंने मैथिली भाषा की उन्नति के लिए मैथिली की अपनी लिपि को परमावश्यक कहा है। इससे यह संकेत मिलता है कि लिपि त्याग के कारण मैथिली भाषा अस्मिता पर आए संकट के प्रति भी वे पर्याप्त सचेष्ट थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि अमरनाथ झा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी सभापति रह चुके थे, और हिन्दी प्रचार में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भागीदारी निभायी थी। यह उनकी बहुत स्पष्ट और घोषित वैचारिकी थी कि उनकी मातृभाषा मैथिली, हिन्दी से पृथक अस्तित्व रखने वाली भाषा है, और यह भी कि मैथिली का हिन्दी से कोई विरोध नहीं है।[13]
राजेश्वर झा ने अपनी किताब  ‘मिथिलाक्षरक उद्भव ओ विकास’ में मिथिलाक्षर या तिरहुता लिपि के विकास की वैज्ञानिक विवेचना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार वर्तमान मिथिलाक्षर लिपि अशोक के उत्तरी पूर्वी आदेश लेख का परिवर्तित रूप है, जिसका पूर्ण विकास चौथी या पाँचवीं सदी में हुआ था।[14] मैथिली लिपि का इतिहास कितना पुराना है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह असंदिग्ध है कि मैथिली के प्राचीन ग्रंथ इसी लिपि मे लिखे गये हैं। इन ग्रंथों के अध्ययन और अन्वेषण की समस्या एक बड़ी समस्या है। इस व्यावहारिक समस्या की ओर ध्यान दिलाते हुए 1950 मे दिये गये अपने एक वक्तव्य में कुमार गंगानंद सिंह ने कहा था- हम लोगों के प्राचीन ग्रंथ जितने भी हैं, प्रायः मिथिलाक्षर में लिखे हुए हैं, और अभी हजारों ग्रंथ ऐसे होंगे जिनका पता नहीं लगाया जा सका है, और जिन ग्रंथों का पता लगा भी है उनका अध्ययन अनुशीलन और प्रकाशन बाकी ही  है। मिथिलाक्षर भुला देने से हम लोगों का वही हाल होगा जो चश्मा खो जाने से चश्मा पहनने वालों का होता है।[15]
मैथिली साहित्य की लिखित परंपरा तिरहुता लिपि में बद्ध हो कर ही विकसित हुई है । यदि ऐतिहासिक अथवा तकनीकी अथवा किन्हीं अन्य कारणों से इस लिपि को त्यागने के लिए मैथिली लेखकों को विवश होना पड़ा, तो इस कारण से मैथिली को लिपिविहीन भाषा कहना अनुचित और नकारात्मक है ।
यदि भविष्य में कभी मिथिलाक्षर लिपि को पुनर्प्रचलित करने के उद्देश्य से मिथिला में कोई प्रभावी जन आंदोलन हो और मिथिलाक्षर फिर से व्यवहार मे आने लगे तब मात्र देवनागरी लिपि का ज्ञान रखने वालों के लिए लिखित मैथिली कितनी अबूझ हो जाएगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यदि कभी ऐसी स्थिति बनती है, तो उसका कारण निश्चित रूप से मैथिली भाषा अस्मिता की लगातार हो रही उपेक्षा होगी अथवा अस्मितामूलक असुरक्षा बोध होगा और इसके जिम्मेवार इस देश में भाषाई वर्चस्ववाद का झंडा बुलंद करने वाले लोग ही होंगे।
हाँलाकि मिथिलाक्षर के पुनर्प्रचलित होने की राह पर्याप्त जटिल है, फिर भी जिस तरह की स्थिति बन रही है, उसके प्रतिक्रियावश भविष्य में अस्मिता केन्द्रित ऐसे किसी बड़े जन आंदोलन की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है, जिसमें कई अन्य राजनीतिक-अराजनैतिक अधिकारों के अलावा फिर से अपनी लिपि की और लौटने के मुद्दे को भी पर्याप्त महत्व के साथ संबोधित किया जाए। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा है कि किसी भाषा के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो जाने मात्र से, उसके प्रति सम्मानपूर्ण और गरिमामय व्यवहार का भी सुनिश्चय नहीं हो जाता। मैथिली स्वयं इस संदर्भ में एक उदाहरण है । हिन्दी का आलोचना और अकादमिक जगत अब भी मैथिली की पहचान हिन्दी की एक आश्रित बोली के रूप में करता है। यह अपमानजनक तो है ही, सौहार्द की भावना के विपरीत भी है ।
अंत मे एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है, जो यह है कि क्या स्वतंत्र भाषा के लिए यह अनिवार्य है कि उसकी अपनी पृथक लिपि होइसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं । वर्तमान में नेपाली और मराठीकुछ मौलिक विशेषताओं के साथ देवनागरी अथवा किंचित परिवर्तित देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती हैं। लेकिन इन भाषाओं के हिन्दी से पृथक, एक स्वतंत्र भाषा होने पर, कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जाता। यही बात बांग्ला और असमिया के संदर्भ में भी लागू होती है, जिनकी लिपियों में बहुत मामूली अंतर है । इस तरह यह बात पर्याप्त बल देते हुए कही जा सकती है कि तथाकथित हिन्दी क्षेत्र की अन्य भाषाओं जैसे कि ब्रज, अवधी, मगही,भोजपुरी, मेवाती आदि के स्वतंत्र भाषाएँ होने के दावे को इस तर्क के आधार पर बिल्कुल भी खारिज नहीं किया जा सकता कि इनकी अपनी पृथक लिपियाँ नहीं है। इन भाषाओं की कभी अपनी पृथक लिपियाँ रही थीं या नहीं, यह अध्ययन और अनुसंधान का विषय अवश्य हो सकता है।
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संदर्भ
[1] देखिए - जी.ए. ग्रियर्सनलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड-5भाग-2 : मोतीलाल बनारसी दासदिल्ली-7 : पुनर्मुद्रित सं.-1968 (प्र.मु.-1903) पृष्ठ सं.- 21
[2] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए संपादक- शरदचन्द्र मिश्र और कीर्तिनारायण मिश्रआधुनिक मैथिली साहित्य : मिथिला सांस्कृतिक परिषदकलकत्ता : सं.-1963पृष्ठ सं.- 17-18
[3] देखिए - जॉन बीम्सऑटलाइन्स ऑफ इंडियन फिलोलोजी : टर्बनर एंड कंपनीलंदन : द्वितीय सं.-1868, पृष्ठ सं.- 54
[4] देखिए - ग्रियर्सनलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड-1भाग-1 : मोतीलाल बनारसी दासदिल्ली-7 : पुनर्मुद्रित सं.-1967 (प्र.मु.-1927)पृष्ठ सं.- 22-24
[5] देखिए - हरदेव बाहरीहिन्दी उद्भव विकास और रूप : किताब महल प्रा. लिइलाहाबाद :  प्र.सं.-1965पृष्ठ सं.- 59
[6] रामविलास शर्मापरंपरा का मूल्यांकन : राजकमल प्रकाशनदिल्ली : सं.-1961पृष्ठ सं.- 214
[7] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - रमानाथ झामैथिलीक वर्तमान समस्या : नवभारत प्रेसलहेरिया सराय : सं.-1966पृष्ठ सं.- 42
[8] देखिए - राष्ट्रभाषा हिन्दी पर महात्मा गाँधी के विचार : गाँधी स्मृति एवं दर्शन समितिदिल्ली : सं.-2003पृष्ठ सं.-4
[9] वही , पृष्ठ सं.-13
[10] वही
[11] [मैथिली से अनूदित उद्धरणदेखिए - संकलनकर्त्ता- देवेन्द्र झाभाषणत्रयी : मैथिली अकादमीपटना : सं.-1983 , पृष्ठ सं.-3
[12] वहीपृष्ठ सं.-17
[13] वहीपृष्ठ सं.- 5
[14] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - राजेश्वर झामिथिलाक्षरक उद्भव ओ विकास : श्री शम्भुनाथ झारसुआर : सं-1971पृष्ठ सं.-67
[15] [मैथिली से अनूदित उद्धरण] देखिए - भाषणत्रयीपृष्ठ सं.-58
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[*गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की पत्रिका 'अंतिम जन' के भाषा अंक (अगस्त-दिसम्बर-2017) (पृष्ठ सं. : 86-90) में  प्रकाशित। पत्रिका में प्रकाशन के क्रम में असावधानीवश संदर्भ विवरण के क्रम की गरबड़ियों सहित कुछ अन्य त्रुटियां रह गयी हैं। वे त्रुटियां यहाँ सुधार दी गयी हैं।]

Wednesday, December 13, 2017

**********मुक्तिप्रसंग का लोकतंत्र**********

राजकमल चौधरी [साभार : मैथिलीजिन्दाबाद.कॉम]
  मुक्तिप्रसंग का लोकतंत्र* 
(राजकमल चौधरी की कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ का एक पाठ)

        मुक्तिप्रसंग’ के पाठकों के पास एक सुविधा यह है कि इसकी रचना अवधि के दौरान कवि राजकमल चौधरी की बाह्य परिस्थितियों और मनोजगत को समझने में मदद करने वाली सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं । यह कविता फरवरी 1966 से जुलाई 1966 तक की अवधि में लिखी गयी थी । उन दिनों राजकमल चौधरी पटना अस्पताल के राजेन्द्र सर्जिकल वार्ड में भर्ती थे । फरवरी के अंतिम दिनों में असह्यनीय पेट दर्द और तीव्र मुत्रावरोध की शिकायत के बाद उन्हें यहाँ लाया गया था । शुरू में कैंसर की आशंका व्यक्त की गयी थी । बाद के मेडिकल जाँच रिपोर्टों के आधार पर कैंसर की तो नहीं, लेकिन, मैलिग्नेट लिम्फो सर्कोमो नामक जिस बीमारी की आशंका व्यक्त की गयी थी, वह भी जानलेवा थी । सर्जिकल ऑपरेशन ही एक मात्र निदान था ।[1] राजकमल का घोर असुरक्षाबोध से भर जाना स्वाभाविक था । मृत्यु की आशंका ने मन को बहुत अशांत कर दिया था । तब उनकी उम्र तकरीबन साढ़े छत्तीस वर्ष थी । मार्गदर्शन की उम्मीद में उन्होंने अस्पताल से ही वात्स्यायन जी को एक पत्र लिखा था । अस्पताल में ही उन्हें अपने पत्र का उत्तर भी मिला । 25 मार्च 1966 को लिखे गये वात्स्यायन जी के आत्मीय पत्र का एक अंश इस तरह था- स्वीकार के बाद मृत्यु को हटाकर एक ओर रख दिया जा सकता है, और यही मैं आपसे कहना चाहता हूँ । यह स्वीकार हराता नहीं जीने का बल भी देता है । [2] पत्र में लिखी बातों को पढ़कर राजकमल का मन दृढ़ अवश्य हुआ था, लेकिन जीने की उत्कट इच्छा, मृत्यु की आशंका, भयावह पीड़ा और मृत्यु को स्वीकार कर उसे अलग रख देने के प्रयास का आपसी तनाव उन्हें बहुत बेचैन किये रहता था । 11.04.66 को मैथिली के साहित्यकार जीवकान्त को सम्बोधित एक पत्र में उन्होंने लिखा- रोग बहुत कठिन बहुत कष्टकर है । लेकिन जीना है । [3] कभी असह्य पीड़ा के क्षणों में वे अपनी डायरी में लिखते- ‘Please stop the world. I want to get off from this earth” [4]
इन कुछ प्रसंगों से गुजरकर यह समझा जा सकता है कि मुक्तिप्रसंग बेहद असामान्य मनःस्थिति में लिखी गयी कविता है । इसकी भूमिका में राजकमल ने लिखा है – मुक्तिप्रसंग मेरा वर्तमान है ।” और यह भी लिखा है कि - जिजीविषा और मुमुक्षा-इस कविता के मूलगत कारण हैं । [5]
इस कविता की शुरूआत आत्मालाप से होती है, जिसमें जिजीविषा और मृत्यु की प्रबल आशंका के द्वन्द्व से निर्मित बिम्बों की प्रचूरता है – ‘दोनों आँखों की ज्वालामुखी पिघल जाने के उपरांत / मैं उसकी बाँहों में / यूनिसेफ-एंबुलेंस की दुर्गति / मेरे नशे में डूबी हुई / मैं ही प्राप्त करूँगा / इस नगरवधू को महाश्मशान बनाने का श्रेय / मेरे ही रक्त के शंख चक्र सामुद्रिक स्वाद में / जलते हुए नाम मेरे होठ दुहराते हैं / वही एक शब्द बार-बार / बीजमंत्र  वही एक कामतंत्र / छत से पलंग तक झूलती हुई रस्सी का फंदा और सर्जिकल अस्पताल तक की स्वप्न यात्रा में कहता है उपाध्याय / कुछ नहीं होगा तुम्हें / वैसा जो नहीं हुआ है अब तक मर्मांतक / किंतु मेरा चेहरा मेरी गर्दन मेरे कंधे काले पत्थर की अपनी बाँहों में समेट कर वह मुस्कुराती है / वही होगा वही होगा / रोक लिया गया था अब तक जिसे विपरीत ऋतुओं और मांगलिक नक्षत्रों के कारण..[6]
इस कविता की भूमिका में राजकमल ने वात्स्यायन जी के पत्र का संदर्भ लेते हुए लिखा है – “मृत्यु की सहज स्वीकृति से देह की सीमाओं, संगतियों और अनिवार्यताओं से मुक्त हुआ जा सकता है । इस वर्ष फरवरी से जुलाई तक प्रत्येक शनिवार को ऑपरेशन थियेटर के सफेद टेबुल पर संज्ञाहीन होते हुए, मैंने ऐसा अनुभव किया है । मैंने अनुभव किया है कि स्वयं को अपने अहं से मुक्त किया जा सकता है ।”[7] स्वयं को अहं से मुक्त किये जा सकने का अनुभव संभवतः इस कविता में भी उनके आत्म की परिधि से बाहर आने में सहायक रहा होगा । आत्ममुक्ति की चिंता के साथ शुरू हुई कविता मुक्तिप्रसंग धीरे-धीरे दुनियाभर की मुक्तिकामी आकांक्षाओं से अपना सम्बंध स्थापित कर लेती है । कविता अपने समय के कई अनुत्तरित प्रश्नों से जूझने लगती है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से एक जिम्मेदार दुनिया की उम्मीद जगी थी । धीरे धीरे यह छलावा साबित होने लगी । संयुक्त राष्ट्र संघ कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों की कठपुतली बन कर रह गया । दुनिया भर में जनता ने लोकतंत्र के भरोसे जो सपने देखे थे, वे टूटने लगे । भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा और अस्वास्थ्य से जूझ रही जनता के लिए हथियारों और बारूद के ढेर जमा किये जा रहे थे । ‘मुक्तिप्रसंग’ में यह सब दर्ज हुआ है दैनिक समाचार पत्रों में वियतनाम हिंदेशिया कांगो रोडेशिया / अपने देश में एटम बम बनेगा नहीं बनेगा ।
सम्पन्न और शक्तिशाली राष्ट्र, अन्य राष्ट्रों के शोषण के नये-नये तरीके इजाद कर उन्हें लगातार आजमा रहे  थे । राष्ट्रों की प्रभुता और अखंडता के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन का दौर भी जारी था । साठ के दशक तक हमारे देश के सोचने समझने वाले युवाओं के सामने भी यह स्पष्ट होने लगा था, कि लोकतांत्रिक युग के नाम पर दुनिया भर में फरेब चल रहा है । स्वाभाविक रूप से इन युवाओं की भी लोकतंत्र से बहुत उम्मीदें रही होंगी । लोकतंत्र के प्रति मोह और मोहभंग के संक्रमण काल में वे भी कई अनसुलझे सवालों में उलझे रहे होंगे । राजकमल भी ऐसे कई सवालों से जूझ रहे थे - आदमी क्यों पार करता है युद्ध?/ क्यों वर्लिन की दीवार?/ क्यों देश प्रेम?/ क्यों ताशकंद?/ क्यों दास कैपिटल?/ क्यों सेगाँव की बौद्ध भिक्षुणियाँ जल मरती हैं?/ क्यों कश्मीर के लिए सेनाएँ?/ क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों और कभी-कभी वियतनाम में होता है?
          कथित लोकतांत्रिक दुनिया के ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न, ‘लोकतंत्र” के प्रति बेहद नकारात्मक धारणाओं को निर्मित करने वाले होते हैं । नवंबर, 1965 में ज्योत्सना में छपे राजकमल के एक लेख  एक कवि का निजी वक्तव्य का यह अंश ऐसी ही एक धारणा को प्रकट करता है – जनतंत्र के युग में सारी बातें और सारी हालतें सोई रहेंगी । यों, कभी-कभी दिल बहलाव के लिए कोई नाच-गान पेश होगा, कोई कविता लिखी जाएगी, पुरस्कार दिए जाएँगे, नकली प्रतियोगिताएँ होंगी, शीशे के रंगीन टुकड़े हीरों से ज्यादा कीमती जचेंगे, कोई अफसर नौकरी छोड़कर योगाश्रम खोलेगा और अखबार निकलते रहेंगे । यह सारा कुछ सिर्फ मनोरंजन और सिर्फ जनताशाही के नाम पर होगा ।[8]
जब मुक्तिप्रसंग की रचना की जा रही थी, तब देश को आजाद हुए अठारह वर्ष से अधिक बीत चुके थे । देश की बड़ी आबादी आजादी और लोकतंत्र को हाँसिल करने की खुशफहमी में जी रही थी । इस स्थिति का फायदा उठाकर सामंती व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की राजनीतिक साजिश अपनी कामयाबी के नित नये कीर्तिमान गढ़ रही थी । राजाओं के वंशज, जमींदार, बड़े व्यापारी और ऊँची जातियों के लोग सांसद, विधायक, मंत्री बनकर लोकतंत्र का अपने चरित्र और अपनी सुविधा के अनुसार दोहन कर रहे थे । अफसरों ने अंगरेजी नौकरशाही की परंपरा और प्रवृत्ति से अपने आप को मुक्त नहीं होने दिया था । देश की जनता के हित में नीतियों और योजनाओं को तैयार करने के दावे खोखले साबित हो रहे थे । भ्रष्टाचार ने देश को तबाह करना शुरू कर दिया था । संविधान में प्रस्तावित संकल्प दम तोड़ने लगा था । देश का बड़ा हिस्सा बदहाल था । ऑपरेशन टेबल पर लेटे हुए कवि की देह और मन की पीड़ा देश की असह्य पीड़ा से जुड़कर इस तरह व्यक्त हुई है -  लेकिन मेरा देश मेरा पेट मेरा ब्लाडर / मेरी अंतड़ियाँ खुलने से पहले / सर्जनों को यह जान लेना होगा / हर जगह नहीं है जल अथवा रक्त / अथवा मांस अथवा मिट्टी / केवल हवा कीड़े जख्म और गन्दे पनाले हैं / अधिक स्थानों पर इस देश में/ जहाँ सड़कर फट गयी हैं नसें / वहाँ हवा तक नहीं/ ऊपर की त्वचा चीरने पर आग नहीं निकलेगी न ही धुआँ / जठराग्नि..दावानल.. / सब बुझ गए अचानक पहले पन्द्रह अगस्त की पहली रात के बाद / अब राख ही राख बच गया है पीला मावाद
          जब जनता में यह भ्रम हो कि देश में उनका अपना शासन है, तब उनका प्रतिरोधी स्वभाव बहुत कमजोर हो जाता है, शायद इसीलिए राजकमल अपने समय के लोकतंत्र की पहचान एक सम्मोहिनी राजनीतिक व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में नहीं कर पा रहे थे । लोकतंत्र के प्रति उनकी निराशा बृहत्तर थी । लोकतंत्र के प्रति उनकी अनास्था ‘मुक्तिप्रसंग’ में बहुत मुखर होकर दर्ज हुई हैं – आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियाँ / केवल पेट के बल उसे झुका देती हैं / धीरे-धीरे अपाहिज / धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए / उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक बना लेती है ।
लहर के मार्च 1961 अंक में राजकमल चौधरी का एक लेख छपा था – कबिरा खड़ा बजार में । इस लेख में उन्होंने अपनी पसंदीदा उपन्यासकार आइन रैण्ड के 1957 में प्रकाशित उपन्यास ‘एटलस श्रग्ड’ (Atlas Shrugged) के कुछ पात्रों की चर्चा की है । आन्द्रे और रोआर्क की प्रकृति का उल्लेख करने के बाद, इन दोनें पात्रों से एक अन्य पात्र जॉन गाल्ट की प्रकृति की तुलना करते हुए उन्होंने लिखा है – जॉन गाल्ट आत्महत्या नहीं करता, डिनामाइट नहीं लगाता, वह सिर्फ़ अलग हो जाता है, वह नासमझ लोगों की नासमझ दुनिया से अलग हो जाता है ।[9]
‘मुक्तिप्रसंग’ में भी कवि ने लोकतंत्री संसार से अलग हो जाने की प्रस्तावना रखी है -आदमी को इस लोकतंत्री संसार से अलग हो जाना चाहिए / चले जाना चाहिए कस्साबों गांजाखोर साधुओं / भीखमंगों अफीमची रंडियों की काली दुनिया में / मसानों में / अधजली लाशें नोचकर खाना श्रेयस्कर है / जीवित पड़ोसियों को खा जाने से” उन्हें लोकतंत्र के नाम पर चल रहे मानवता के विध्वंश की बहुत खतरनाक साजिश से अलग हो जाना अनिवार्य लगता है - “हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है / इस धरती से आदमी को / हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की साजिश में ।”
लोकतंत्र का आवरण ओढ़कर पसर रही विकृतियां भयावह थीं । इतनी भयावह कि मुक्तिप्रसंग’ का कवि इस लोकतंत्री संसार से उलग होकर अराजक गाँजाखोरों, साधुओं, भीखमंगों, अफीमचियों आदि की दुनिया को चुन लेना बेहतर समझता है । यह निर्विवाद है कि देश में पनप रहे असंतोष, उग्रवाद और अलगाववाद आदि के लिए लोकतांत्रिक विकृतियाँ बड़ी जिम्मेदार रही हैं । इसे स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि लोकतंत्र की विकृतियों से जन्मी अनास्था ही कालांतर में ‘नक्सलबाड़ी’ जैसे आंदोलनों के अस्तित्व में आने का बड़ा कारण बनी ।
यह विचारणीय है कि ‘मुक्तिप्रसंग’ और राजकमल के अन्यत्र लेखन में लोकतंत्र के प्रति जो अनास्था,आक्रोश और रोष व्यक्त हुआ है, क्या वह लोकतंत्र के प्रति उनकी अनंतिम धारणा को प्रकट करता है? क्या राजकमल लोकतंत्र की व्यवस्था को खारिज करते हैं, अथवा ऐसा प्रकट करने वाली उनकी अभिव्यक्तियाँ गहन अंतःपाठ की मांग करती हैं?
‘लहर’ के जुलाई, 1962 अंक में छपे उनके एक लेख – ‘बर्फ और सफ़ेद कब्र पर एक फूल’ में वे बेहतर राजनीतिक व्यवस्था की संभानाओं को खोजने की चेष्टा करते हुए दिखाई देते हैं– “सोचता रहता हूँ कि क्या उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद या कम्युनिज्म के अलावा कोई तीसरा रास्ता नहीं है?”[10] राजकमल का जुड़ाव अमेरिका की बीट पीढ़ी से भी था, जिसकी मान्यता थी कि व्यक्तिगत स्वाधीनता सर्वोपरि है । संभव है कि अपनी मनोरचना के कारण वे साम्यवाद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रतिकूल समझते हों । उस दौर में राममनोहर लोहिया जैसे प्रखर राजनितिक चिन्तक भी कांग्रेस विरोध के साथ ही साम्यवाद की खामियों को भी देश के सामने लाने का प्रयास कर रहे थे । लेकिन राजकमल देश के भीतर विकसित हो रहे ‘समाजवादी धाराके सच को भी पहचान रहे थे । वे जनसंघी चरित्र और उसके खतरे से भी भली-भांति परिचित थे । अप्रैल-जून-1967 के ‘आलोचना’ में छपे अपने एक लेख- ‘अप्रत्याशित कुछ भी नहीं’ में उन्होंने लिखा है- कांग्रेस शासन के देशव्यापी विरोध, जनमत के अर्ध विक्षिप्त अनिर्णय और नयी विकल्प प्रियता के कारण देश के कई राज्यों में कांग्रेस विरोधी (और परस्पर विरोधी) दलों की संयुक्त सरकारें बनी हैं । इन सरकारों में अधिक बुद्धिमान, अधिक स्वार्थहीन, अधिक ईमानदार व्यक्ति अवश्य शामिल हुए हैं, लेकिन इन सरकारों में जनसंघ, स्वतंत्र, प्रसोपा, मुस्लिम लीग, जनक्रांति दल जैसी प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी पार्टियां भी शामिल हैं । इसलिए कुल मिलाकर ये पीढियां भी कांग्रेस के अपने दक्षिणपंथ और वामपंथ की मिली-जुली भाव भगत की सरकार से अधिक पराक्रमी, और अधिक क्रांतिकारी और अधिक समाजवादी सरकारें नहीं बन पाएंगे ।”[11]
‘मुक्तिप्रसंग’ का कवि विकल्पहीनता और अनास्था को अपना स्थाई भाव बना लेने के पक्ष में नहीं   है । इसलिए अपने पलायन की इच्छा को वह स्थगित करता है और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की अपनी रचनात्मक आस्था की ओर लौटता है – “वह पागल मरी हुई आतंकित अनगढ़ स्त्री चिपकाऊंगा / अपने ओंठों पर उसके ओंठों में / अपने शब्द / वाक्य / भाषाएँ / अपने मुहावरों से उसकी बंजर धरती नहलाऊंगा ।” कवि यह सब उस स्त्री के लिए कहता है जो – “ग्यारह बजकर उनसठ मिनट पर / हर रात शहीद-स्मारक के नीचे नंगी होती है / पागल काली मरी हुई एक स्त्री / उजाड़ आसमान में बाहें फैलाकर रोने के लिए / रोते हुए सो जाने के लिए पानी और अनाज के देवताओं से भीख मांगती है / तिरंगा फहराने के अपराध में मार डाले गए / 1942 के छात्रों के नाम पर” । ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्त्री भारत की जनता की जनतांत्रिक आकांक्षाओं का प्रतीक है, जिन्हें कवि स्वर देने का संकल्प लेता है ।
राजकमल चौधरी ने विधिवत रूप से 1960 में लिखना शुरू किया था और 1967 में साढ़े सैंतीस वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हो गया था । यह कहना उचित होगा कि उनके लेखन की अल्पावधि उनके सृजन ही नहीं, उनके निर्माण के भी वर्ष थे । संभवत: इसलिए परस्पर विरोधाभासी बातों से उनका साहित्य भरा हुआ है । व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व के द्वंद्व ने भी उन्हें पर्याप्त मथा  है ।
फरवरी 1967 के आम चुनावों के बाद ‘आलोचना’ में प्रकाशित अपने लेख – ‘अप्रत्याशित कुछ नहीं’ में उन्होंने यह भी लिखा है- “मैं राजकमल चौधरी अपनी तरफ से जनता के पास चले जाने का वादा करता हूँ, मेरी सही यात्रा यहीं से शुरू होगी ।”[12] ऐसा प्रतीत होता है कि राजकमल अपने लिए उचित प्रस्थान बिंदु और दिशा तय कर चुके थे ।  इसी दौर में राजकमल राजनितिक रूप से भी अपने चिंतन में स्पष्ट होने लगे थे । इसी लेख में उन्होंने लिखा है - “जब तक देश की अर्थव्यवस्था और शासन व्यवस्था में आमूल, सम्पूर्ण और क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं होगा – हमारा देश और हमारे देश का मनुष्य लोक सेवाओं और लोक सभाओं में अपना सही प्रतिनिधि भेजने के लिए स्वाधीन नहीं है ।”[13] राजकमल का जनता के पास लौटने का संकल्प 19 जून 1967 को हुई उनकी मृत्यु के साथ ही अधूरा रह  गया ।
‘मुक्तिप्रसंग’ का पुनर्पाठ करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह कविता लोकतंत्र के प्रति जिस अनास्था को अभिव्यक्त करती है, वह किन परिस्थितियों में निर्मित हुई थी । ‘लोकतंत्री’ संसार से अलग हो जाने की बात कितनी अधिक पीड़ा के साथ कही गयी होगी । इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत आवश्यक है, कि कवि जिस लोकतंत्री संसार से अलग होने की बात करता है, वह लोकतंत्री संसार, वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों से संचालित ही नहीं है ! यह समझना भी आवश्यक है कि राजकमल की जो अनास्था प्रकट हुई है, वह लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था के छले जाने से निर्मित हुई है ।
दरअसल ‘मुक्तिप्रसंग’ का स्वर लोकतंत्र के जरुरी मूल्यों के प्रति आग्रही है । यह कविता लोकतंत्र की वास्तविक भावना को परे रख कर चलने वाले लोकतंत्र को स्वीकार करने से साफ इंकार करती है । अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब मांगती है । लोकतंत्र के नाम पर चल रही साज़िशों के प्रति सावधान करती है । यह कविता लोकतंत्र को नहीं लोकतंत्र के नाम पर परोसे जाने वाले अलोकतंत्र को खारिज करती है । यह कविता अपने निहित आशय में यही व्यंजित करती है कि अनास्था के लोकतंत्र का एकमात्र विकल्प है- सही लोकतंत्र ।
‘मुक्तिप्रसंग’ को लिखे हुए पांच दशक बीत चुके हैं । राजकमल के उठाये गए सवाल अब भी ज्यों के त्यों हैं, बल्कि अधिक तीखे हो गये हैं । कुछ सन्दर्भों में स्थान काल पात्र ज़रूर बदल गए हैं । लोकतंत्री संसार आज भी वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों के बिना ही चलती है । देश दुनिया की परिस्थितियाँ कमोवेश वैसी ही है । कश्मीर में मानवाधिकारों का क्रूरतापूर्वक हनन आज भी हो रहा है । इस ‘लोकतांत्रिक देश के कुछ हिस्सों में भारी विरोध के बावजूद आफसफा जैसे नागरिक अधिकारों के क्रूर दमन में सहायक कानून लागू हैं । आदिवासियों को जंगल से बेदखल किया जा रहा है, और किसानों से उनकी ज़मीने छीनी जा रही हैं । मानव विकास की अपेक्षा युद्धोन्माद अधिक महत्वपूर्ण बना हुआ है । दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध छिड़े हुए हैं । अमेरिका जैसे कई शक्तिशाली राष्ट्र कमजोर राष्ट्रों का बल और छलबलपूर्वक शोषण कर रहे हैं । कई मजबूत देश, कमजोर देशों को अपने निशाने पर लेकर इन्हें तबाह करने पर तुले हुए हैं । जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राजाओं की तरह पेश आते हैं । इत्यादि ।
ऐसे मुद्दों की एक असमाप्त श्रृंखला है । यह और भी दुखद है कि परिस्थितियाँ पहले से अधिक भयावह हुई हैं, और इसके और भी अधिक भयावह होते जाने की आशंका है । जरूरी है कि पुनर्पाठ के क्रम में हम राजकमल की अनास्था से गुज़रते हुए वास्तविक लोकतंत्र को हाँसिल करने की चुनौतियों से निपटने की युक्तियों पर विचार करें, और उसे व्यवहार में लाने का प्रयास करें । ‘मुक्तिप्रसंग’ में निहित ‘लोकतंत्र की आकांक्षा’ की दिशा में यही हमारा प्रस्थान बिंदु हो सकता है ।


[1] इन सूचनाओं के स्रोत के लिए देखिए : राजकमल चौधरी का सफर (पहल पुस्तिका), पृष्ठ : 34-35
[2] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-7
[3] देखिए : राजकमल चौधरी का सफर (पहल पुस्तिका), पृष्ठ : 35
[4] राजकमल चौधरी रचनावली, खंड-8, पृष्ठ : 285
[5] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-8
[6] इस लेख में उद्धृत कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ के सभी पद वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तिका- ‘मुक्तिप्रसंग (द्वितीय सं.-2006) से लिये गये हैं ।
[7] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-8
[8] देखिए : देखिए : राजकमल चौधरी रचनावली, खंड-7, पृष्ठ : 133
[9] देखिए : वही, पृष्ठ : 335
[10] देखिए : वही, पृष्ठ : 349
[11] देखिए : वही, पृष्ठ : 389
[12] देखिए : वही, पृष्ठ : 390
[13] देखिए : वही, पृष्ठ : 389
 सन्दर्भ विवरण
1. राजकमल चौधरी : मुक्तिप्रसंग : द्वितीय संकलन-2006 : वाणी प्रकाशन, दिल्ली-2
2. सुभाष चन्द्र यादव : राजकमल चौधरी का सफ़र (पहल पुस्तिका) : अक्टूबर, 1998 : जबलपुर-4
3. संपादक- देवीशंकर नवीन : राजकमल चौधरी रचनावली खंड-7 व खंड-8 : प्रथम संस्करण-2015 : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-2
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[*‘बया’ (संपादक : गौरीनाथ) के जुलाई-दिसंबर,2017 अंक (पृ.14-16) में प्रकाशित]