साभार : dishtracking.com |
अमेरिका का राष्ट्रपति
चुनाव सम्पन्न हो चुका है। रोमनी की हार हुई है और ओबामा फिर से राष्ट्रपति चुने
गए हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया भारत में भी एक ख़ास तरह का माहौल
तैयार करती है। मीडिया में तरह-तरह से इसका विश्लेषण होता है। विश्लेषण जिस
वैचारिकी के आधार पर की जाती है, उसका असर जनमानस पर भी पड़ता है। यह चर्चा का विषय बना रहता
है कि किसके राष्ट्रपति बनने से भारत को ज़्यादा फ़ायदा होगा। इससे इंकार नहीं
किया जा सकता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति की नीतियाँ दुनिया भर के देशों को
प्रभावित करती हैं। विचारणीय यह है कि यह प्रभाव कितना सही है। कम से कम हमारे
विश्लेषण का वर्तमान तरीका इसे सही ही
ठहराता है। अर्थ और सामरिक शक्ति के केन्द्र के रूप किसी एक देश का या कुछ देशों
का स्थापित होना, दुनिया भर केलिए ख़तरनाक है। किसी प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र के द्वारा इसकी
संस्तुति और भी ख़तरनाक है। देश की जनता सबसे अधिक देश की मीडिया से प्रभावित होती
है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की विदेशनीति के मामले में हमारे यहाँ मीडिया
प्रायः आलोचनात्मक रुख़ अख़्तियार नहीं कर पाती है। ऐसे में अमेरिका को लेकर देश
की सत्ता की सोच ही मीडिया में प्रतिबिम्बित होती है। अमेरिकामुखी होना हमारे यहाँ
सत्ता की सोच का बुनियादी हिस्सा बन चुका है। इस सोच ने औपनिवेशिकता का नया
मुहाबरा रचा है। इसकी जड़ की तलाश देश की आर्थिक नीतियों पर जा कर ख़त्म होती है।
हमारी अर्थव्यवस्था पर पूँजी का दबाव जिस रफ़्तार से बढ़ना शुरू हुआ, हमारी रीड़ की हड्डी उसी रफ़्तार से झुकती चली गयी जबकि नब्बै के दशक में मनमोहन के आर्थिक
उदारवादी मॉडल ने तो हमारी रीड़ की हड्डी तोड़ कर रख दी। सार्वजनिक उपक्रमों को
तबाह करने की साज़िश के बीच निजीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश की
सुविधाओं का जो झुनझुना देश की जनता को पकड़ाया गया, वह हमें अमेरिका जैसे देश का आर्थिक उपनिवेश बना देने केलिए
काफ़ी था। आज अमेरिका का उसकी अर्थनीति को लेकर किया गया मामूली फैसला भी हमारे
हितों को प्रभावित करता है।
ऐसे में यह सोचना ज़रूरी
है कि जो हो रहा है वह हमारे लिए कितना ख़तरनाक है। देश की मीडिया का भी यह
दायित्व है कि जनता को देश की विदेश नीतियों व आर्थिक नीतियों के
प्रभावों-कुप्रभावों को लेकर जागरूक बनाए। वैसे बड़े पूँजी घरानों से पोषित या
उसके दबाव में काम करने वाली मीडिया से तो इसकी उम्मीद नहीं ही की जा सकती है।
समानांतर मीडिया ही यह काम भी कर सकती है। देश की जनता जब देश की आर्थिक, सामरिक व विदेश नीतियों का सच समझकर मतदान करेगी तभी देश
सही अर्थों में समप्रभु हो सकेगा। हमारी समप्रभुता आर्थिक और सामरिक साम्राज्यवादी
नीतियों के पुरजोर विरोध से पुष्ट होगी। यह बहुत ज़रूरी है कि अमेरिका के
राष्ट्रपति चुनाव को एक राष्ट्र का उसके राष्ट्राध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया से
अधिक कुछ भी न समझा जाए। जबतक इसे इससे अधिक समझा जाता रहेगा तब तक यह हमारे
औपनिवेशिक मानसिकता को प्रकट करता रहेगा। इस मानसिकता से मुक्ति तभी मिल सकेगी जब
हम सत्ता के रूप में सही सोच को चुनेंगे और उस पर यह दबाव बनाए रखेंगे कि आर्थिक,सामरिक और विदेश नीतियों पर भी उसे जनता की अपेक्षा पर खरा
उतरना है।