Friday, May 29, 2015

सुलझने की ज़द्दोज़हद में

यह 23.02.2013 को लिखा गया एक डायरीनुमा लेख है । इसमें पर्याप्त विषयांतर हैलेकिन चिंता के केन्द्र में हिन्दी विभागों की शिक्षा प्रणाली ही है । उन दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से एम.फिल. कर रहा था । तब कोर्स-वर्क की कई कक्षाएँ प्रो. अपूर्वानंद के साथ निर्धारित थी । वे बहुत नाप-तोल कर बोलते थे और ऐसी ही अपेक्षा शोध छात्रों से करते थे । इसलिए उन्हें कक्षा में सुनना और उनकी कक्षा में बोलना दोनों पर्याप्त मानसिक श्रम का विषय हुआ करता था । लेकिन यह श्रम इस रूप में सार्थक था कि कुछ विचारोत्तेजक बातें होती थीकुछ सीखने को मिल जाता था । बेहतर अभिव्यक्ति के लिए तथ्यों को छोड़कर मूल डायरीनुमा लेख में थोड़े-बहुत ज़ोड़-घटाव की छूट ली गयी है ।

[फोटो:वाया-holtandsons.wordpress.com]


18,19 और 20 फरवरी 2013 (संभवतः) की तीन लगातार कक्षाओं में प्रो. अपूर्वानंद ने कुछ ऐसी बातों पर बल दिया जो उलझन पैदा करने वाली हैं । कक्षा में किसी सेमिनार पत्र का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आप लोगों के द्वारा की जाने वाली साहित्य की आलोचना से ‘साहित्यिक आलोचना’ ग़ायब रहती है । उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य के विद्यार्थीजब कोई पर्चा प्रस्तुत करें तो यह ध्यान रखें कि उनकी आलोचना साहित्यिक हो । इसी क्रम में शोधकार्यों के सम्बंध में भी उन्होंने टिप्पणियाँ की की ।  उन्होंने कहा कि हिन्दी के शोध छात्र अपने विषय का चयन कुछ इस तरह से करते हैं - कृति का समाजशास्त्रीय अध्ययनमनोवैज्ञानिक अध्ययनदार्शनिक विवेचनऐतिहासिक विवेचनइत्यादि - दरअसल ऐसे चयन ही अनुपयुक्त हैं । उन्होंने आगे कहा कि दरअसल समाजशास्त्रइतिहासमनोविज्ञान अथवा दर्शनशास्त्र जैसे विषयों में आप लोगों का प्रशिक्षण नहीं है । ऐसे में इन अनुशासनों के टूल्स के आधार पर आप सही आलोचना कर सकने की स्थिति में नहीं होते हैं । शोध कार्यों को लेकर उनकी टिप्पणी से असहमत होना कठिन है । असल उलझन 'साहित्यिक आलोचना' को लेकर है । अपूर्वानंद जी ने अपने गंभीर स्वर में यह एकाधिक बार बता रखा है कि सवालों का वे स्वागत करते हैं - फिर भी कई बार किसी विषय से सम्बंधित मन की सारी उलझने उन तक प्रेषित करना कठिन हो जाता है । यह उनके व्यक्तित्व की और हम विद्यार्थियों के व्यक्तित्व की सम्मिलित समस्या है । इन कक्षाओं में जो ‘साहित्यिक आलोचना’ है उसको लेकर हमारी समझ ठीक से नहीं बन सकी । यदि साहित्यिक आलोचना नाम की कोई चीज होती है तो अपूर्वानंद जी की जानकारी में शायद यह बात नहीं है कि इस मामले में भी हमारा प्रशिक्षण सिफर है । बात औपचारिक जानकारी की की जाए तो समाजशास्त्रदर्शनशास्त्रइतिहास और मनोविज्ञान जैसे विषय भी किसी न किसी रूप में हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा रहे हैं । हमें स्वीकार करना चाहिए कि अपनी आलोचना अपने पर्चे और अपना शोधप्रबंध तैयार करते हुए दरअसल हम पहले से उपलब्ध आलोचनापर्चे और शोधप्रबंध की शैली का अनुसरण करते हैं । मेरी समझ है कि उपलब्ध पूर्ववर्ती आलोचनाओं में, यदि वे सिर्फ रचना की भाषा, गठन और अभिव्यक्ति की खूबसूरती पर केन्द्रित न हो तो विभिन्न अनुशासनों के ज्ञान की थोड़ी बहुत मिलावट होती ही है । सैद्धांतिक टूल्स, इस्तेमाल न भी किये जाते हों तो भी इनमें इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन और राजनीतिशास्त्र जैसे विषयों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंध रखने वाली कुछ शब्दावलियाँ और व्याख्यायों होती ही हैं। अपूर्वानंद जी ने किसका निषेध करना है यह तो बता दिया लेकिन क्या करना है उसको लेकर उलझन में डाल दिया । मुझे आशंका है कि आगे से ‘साहित्यिक आलोचना’ करने के चक्कर में कक्षा के विद्यार्थियों का अब तक का अर्जित ज्ञान दोनों हाथ न खड़े कर दे । कम से कम मेरा ज्ञान तो आत्मसमर्पण कर चुका है । यह सवाल मुझे उलझाता जा रहा है कि साहित्यिक आलोचना माने क्या ? इस विषय में अपूर्वानंद कहीं कोई लेख लिखें, तो शायद कुछ सुलझे ।
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मैं इस उलझन में पड़ा सुलझने का प्रयास कर रहा हूँ । जो साहित्यिक आलोचना हैवह अब तक हमारी पहुँच से बाहर क्यों हैहम ने एम.ए. के दिनों में जिन आलोचकों को बक़ायदा अपने कोर्स में पढ़ा हैक्या उनमें से किसी की आलोचना साहित्यिक नहीं हैयदि है तो यकीन मानिए हम सब उन्हीं पूर्वजों से प्रेरणा लेकर लिख रहे हैं । बेहतर होगा कि साहित्यिक आलोचना को लेकर एक कार्यशाला का आयोजन किया जाए । यह समझना बहुत ज़रूरी हो गया है कि हम क्या करें कि आलोचनापर्चे और शोध में साहित्य के दायरे से बाहर नहीं जा पाएँ । लेकिन ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन क्यों होने लगा । हिन्दी विभागों में ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन नहीं होता । हिन्दी विभागों ने बदलते समय में साहित्य के शिक्षणप्रशिक्षणशोध के स्वरूपशोध प्रश्ननयी चुनौतियाँ और आलोचना के उत्तर दायित्व जैसे विषयों पर विचार-विमर्श को तिलांजली दे दी है । साहित्य के विद्यार्थियों को साहित्य की उपादेयता तक पर विचार करने का अवसर हिन्दी विभाग उपलब्ध नहीं कराता । ऐसे में हमारा उपहास करना या हमारी वैज्ञानिक समझ पर सवाल उठाना किसी के लिए आसान हैउनके लिए भी जो हमारे शिक्षक हैं और जिनके ऊपर हमारे निर्माण का दायित्व है । वे चाहें तो कुछ अपरिचित और उलझाने वाले जुमले हमारी तरफ फेंक देंऔर अपने दूसरे कामों में लग जाएँ । जिन कक्षाओं में अगंभीरता के उपहास के डर से विद्यार्थी मन की एक-एक गाँठे खोल देने से कतराने लगेंउन कक्षाओं के शिक्षक के लिए ठहर कर सोचने की ज़रूरत नहीं है क्याउन्हें यह ख़ुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए कि ऐसा उनके बौद्धिक व्यक्तित्व के वज़न की वज़ह से होता हैयह जिस वज़ह से होता है उसे बौद्धिक आतंक कहना अधिक उचित होगा । मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसे शिक्षक मिले हों जो कक्षा के विद्यार्थियों से फीडबैक लेने में यकीन करते हों ।
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विश्वविद्यालयों में अनवरत शोधकार्य हो रहे हैं । इन शोधकार्यों की ख़राब गुणवत्ता का रोना भी हमारे शिक्षक रोते रहते हैं । ऐसे में अपना सिर धुन लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता । जो लोग शोध प्रस्ताव को स्वीकृत करते हैंजिनके निर्देशन में शोध कार्य हो रहे हैंजो लोग शोधकार्यों के अंतिम रूप को स्वीकृति देते हैंउनकी लाचारी की कोई ठोस वज़ह हो सकती है क्यासिवाय इसके कि विभाग के शिक्षक अगंभीर हों और विद्यार्थी कामचोरइन दोनों ही स्थितियों में जबतक याराना बना रहेगाकिसी बेहतर शोध की उम्मीद बेमानी है । विद्यार्थी के मानसिक स्तर का बहाना करना हास्यास्पद है । विद्यार्थी इन्हीं विभागों के पाठ्यक्रमों को सफलता पूर्वक पूरा करकेकठिन प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अपने कई साथियों को पीछे छोड़कर यहाँ तक पहुँचते हैं । प्रवेश परीक्षा और अन्य परीक्षाओं में कोई धांधली नहीं होती हो तो जाहिर है कि प्रवेश परीक्षाओं के स्वरूप और पाठ्यक्रमों पर सवाल उठेंगे । इन दोनों ही स्थितियों में विद्यार्थियों को कोसते रहने वाले हिन्दी विभागों के शिक्षकों को अपने आत्मालोचन के लिए भी वक्त निकालना चाहिए ।
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हिन्दी विभागों को अब मान लेना चाहिए कि वह ज्ञान के सृजन के केन्द्र नहीं रह गए हैं । अन्य विषयों के विभागों के विषय में मैं बहुत प्रामाणिक तरीके से नहीं लिख सकतालेकिन जितनी जो पुष्ट-अपुष्ट जानकारी है , उस आधार पर यह भी मान लेना चाहिए कि विश्वविद्यालय औपचारिक किताबी ज्ञान और डिग्री देने के ‘प्रतिष्ठान’ मात्र बनकर रह गये हैं । हिन्दी विभागों के विषय में तो दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि वे अपने चुनिंदा अनुगामी विद्यार्थियों के लिए तदर्थ प्राध्यापक का रोजगार भर सृजित कर सकते हैं । इन्हीं नियुक्तियों के गणित में सारा हिन्दी विभाग उलझा हुआ रहता है । मेरे एम.फिल. साक्षात्कार का अनुभव रहा है कि शोध कक्षाओं में प्रवेश के लिए लिये जाने वाले साक्षात्कारों में शिक्षकों के पसंदीदा सवाल- तुलसीसूरकबीरबिहारीघनानंदसे लेकर भारतेन्दु-निराला-नागार्जुन और छायावाद प्रगतिवाद जैसे बिन्दुओं के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं । यह पूछना अक्सर आवश्यक नहीं समझा जाता कि शोध कार्य में तुम्हारी अभिरूचि क्यों हैअपने शोध से तुम क्या योगदान दे सकोगेया अब तक उपलब्ध शोध कार्यों से तुम्हारा शोध कार्य अलग कैसे होगाइत्यादि । इसी तरह तदर्थ नियुक्तियों में यह सवाल पूछे जाने वाले सवाल- रस निष्पत्तिकाव्य हेतुअज्ञेय और महादेवी की कृतियों के नाम और राजभाषा सम्बंधी प्रश्नों तक सिमट कर रह जाते हैं । इस तरह के सवाल पूछने की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती कि हिन्दी में बेहतर शिक्षण और नए तरह के शैक्षणिक प्रयोगों के विषय में आपकी राय क्या है?
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लोकतंत्र ज्यों-ज्यों उम्र में बड़ा होता जा रहा हैजनता के पैसों से चलने वाली जनता के प्रति जिम्मेदार संस्थाओं में लोकतंत्र का आयतन उतना ही सिकुड़ता चला जा रहा है । अपने ही विभाग के जिम्मेदार व्यक्तियों तक अपनी प्रतिक्रिया पहुँचानाख़तरे से खाली नहीं रह गया है । कुछ ही शिक्षक अपवाद हैंजिनसे बची उम्मीद भी धुँधली होती जा रही है । 25 नवंबर 2012 को हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित रामविलास शर्मा पर केन्दित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर गोपेशवर सिंह ने किसी प्रसंग में सकारात्मक रूप से प्रसन्न मुद्रा में कहा था कि विद्यार्थी उनसे रोजगार में मदद चाहते हैं ! मैं इसे अपने संदर्भ में खारिज करता हूँ । मुझे इस तरह की किसी कृपा की ज़रूरत नहीं है । मुझे अवसर मिले तो उन्हें कहूँगा कि महोदय मदद ही करनी है तो इस तरह करिए कि व्यवस्था को पारदर्शी बनाइए । लोकतांत्रिकता लाइए । हिन्दी विभाग को ज्ञान के सृजन के मुक्त केन्द्र के रूप में विकसित होने दीजिए । चापलूस और ग़ैरइमानदार विद्यार्थियों के बजाय सही विज़न वाले मेहनतीसंभावनाशीलईमानदार और सवाभिमानी विद्यार्थियों के पक्ष में खड़े होइए । मुझमें यदि अपेक्षित गुणों का अभाव रहा तो मैं अपने लिए रोजगार के कोई अन्य विकल्प तलाश लूँगा ।
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मैं विभाग का एक शोधार्थी हूँ । अवसर मिले तो अध्यापन कार्य को अपना पेशा बनाना चाहता हूं । अपने विभाग और अपने अध्यापकों के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने का भी यही कारण है । मेरी जानकारी और विश्वास मेंसिर्फ हंगामा खड़ा करने का शौकमुझे बचपन से ही नहीं रहा है । दरअसल शिक्षकों तक सीधे पहुँचने वाले किसी फीडबैक चैनल की व्यवस्था नहीं है और न ही इसे निर्मित करने में किन्हीं की रूचि हैइसलिए कभी सहपाठियों से चर्चा करता हूँ, कभी अन्य माध्यमों का उपयोग करता हूँतो कभी आलोक धन्वा की कविता की बिनभागी लड़कियों की तरह डायरियों में भागता हूँ । एक विद्यार्थी होने के नाते जब मैं अपने समय की अकादमिक विसंगतियों पर सवाल उठा रहा होता हूँतब ख़ुद को भविष्य में एक अच्छे शिक्षक के बतौर निर्मित करने की इच्छा और इसका संकल्प एक बड़े कारक की भूमिका निभा रहा होता है ।

Wednesday, May 27, 2015

भीतर के खलपात्र

छिटपुट छात्र आंदोलनों से बावस्ता होने के कारण, मुझे अच्छी तरह याद है कि हम ‘छात्र एकता ज़िंदाबाद’ के नारे बहुत उत्साह से लगाया करते थे । यह कुछ और हो या नहीं हो एक किस्म की शुभेच्छा तो है ही । विडंबना यह है कि छात्र आंदोलनों की ही नहीं प्रायः विभिन्न आंदोलनों की यह नियति रही है कि उन्हें एक बड़ी चुनौती अपने बीच से ही मिलती है । ऐसा अक्सर किसी वैचारिक मतभेद की वज़ह से नहीं होता है । इस चुनौती का बड़ा कारण व्यक्तिगत बुनावट है । सामूहिक हित के बरअक्स निजी हित को बहुत अधिक महत्व देना तो एक कारण है ही, दूसरा बड़ा कारण यह है कि अक्सर बड़े से बड़े अहंकारी महत्वाकांक्षियों का स्वाभिमान दो कौड़ी का भी नहीं होता है । वह तमाम समझौते कर सकता है । आप ख़ुद को उनके परम मित्र समझते हों, तब भी समय आने पर आपका हक़ मारकर आपके ऊपर खड़ा हो जाने में भी उन्हें कोई दुविधा नहीं होगी । ऐसे कई पात्रों से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा है । कई बार भेद खुलने तक बहुत आत्मीय रिश्ता भी रहा है । ऐसे लोग कई शक्लों में आपके इर्द-गिर्द मौजूद होते हैं । मसलन कोई बहुत विनम्र, मोहकछवि और मीठा बोलने वाला होगा, कोई इतना संवेदनशील दिखेगा कि आप को ख़ुद पर शर्म आएगी, कोई स्वनाम धन्य युवा कवि होगा तो कोई ताजातरीन 'तीखा' आलोचक कोई संपादकीय में हाथ आजमा रहा होगा, कोई पत्रकारिता में तो कोई ज़ोरदार भाषण करने वाला तेजतर्रार छात्र नेता होगा वगैरह..वगैरह.. । सबसे महत्वपूर्ण बात है कि ये सभी आप तक प्रगतिशीलता के आवरण में लिपटे हुए आएँगे ।
विश्वविद्यालयों में मैंने देखा है कि अक्सर कक्षा के दस सर्वाधिक मेधावी विद्यार्थी, कक्षा के दस सबसे बड़े दब्बू होते हैं । आप चाहें तो दस तक की गिनती को आगे भी ले जा सकते हैं । नैतिक रूप से पतित होना यदि कुछ होता है तो वह भी आपको इनमें दिख जाएगा । मैं सोचता हूँ कि यदि ऐसा नहीं होता तो विश्वविद्यालयों का हाल कुछ और ही होता, लेकिन दुर्भाग्य से सच यही है । मेरा अनुभव रहा है कि संघर्ष करने का माद्दा रखने वाले विद्यार्थियों में प्रायः मेधा का अभाव रहने पर भी मनुष्य होने की ईमानदार समझ होती है । इस नाते शिक्षा के असल उद्देश्य को वही पूरा कर रहे होते हैं । अकादमिक जगत इतना क्रूर होता है कि मेधा के अभाव को निशाना बना कर एक बेहतर मनुष्य के निर्माण की सारी संभावनाओं को अपने तई पूरी तरह कुचल देने में तनिक भी संकोच नहीं करता है । असल में यह सब जो विसंगतियाँ हैं, अन्याय है, उसकी असल जिम्मेदारी उनकी है जो मेधावी माने जाते हैं ।
यही कारण है कि कई बार मुझे इनकी ‘मेधा’ से घृणा होती है । इस मेधा का दुर्निवार विकास मैं देख पाता हूँ । कइयों को अपने शिक्षकों के रूप में भोग रहा हूँ । कइयों को पूरा देश प्रशासकों के रूप में झेल रहा है, इत्यादि..इत्यादि । मुक्तिबोध ने बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास होने की चर्चा की है । यह दासता कितनी बड़ी त्रासदी है, उसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है । कक्षा के 'मेधावी' छात्रों की इस परंपरा का विकास दरअसल एक जड़ परंपरा के फलते-फूलते रहने की गारंटी भी है, कि अकादमिक जगत में जो चलता रहा है, वह चलता रहेगा । इसे अनवरत करने के लिए ही मेधाहीन विद्यार्थियों के लिए भी व्यवस्था के अनुगामी होने पर सफलताएँ सुनिश्चित की जाती हैं । यह स्पष्ट संकेत होता है, कि इस व्यवस्था में प्रवेश की अर्हता योग्यता के बजाय रीढ़ की हड्डी के आभासी झुकाव से तय होती है ।
जब हम एक खल व्यवस्था से जूझ रहे होते हैं, तब भीतर के खल पात्रों को नज़रअंदाज करना एक बड़ी भूल होती है । दरअसल हमें दोनों स्तरों पर संघर्ष करना होता है । हमें हमारे भीतर के खल पात्रों की सार्वजनिक रूप से भर्त्सना करनी होगी । उनकी सफलताओं पर मुखर होकर बार-बार प्रश्नचिह्न लगाना होगा । उनकी सराहना करने के बजाय, उनका बहिष्कार करना होगा । हमें उन्हें भी चैन से बैठने नहीं देना है, उनकी निष्कंटक सफलता सुनिश्चित नहीं होने देनी है, जिन्होंने अपनी सफलता के लिए बेइमान रास्ते का चुनाव किया है । मात्र खल-व्यवस्था के साथ अकेले का संघर्ष हमें दूरगामी सफलता नहीं दिला पाएगा । हमें व्यवस्था से भविष्य के लिए भी खल पात्रों की बेदख़ली सुनिश्चित करनी होगी ।
मुझे पता है कि कोई एक लेख तो छोड़िए दुनिया का बड़े से बड़ा डॉक्टर भी रीढ़ की हड्डी के आभासी झुकाव का इलाज नहीं कर सकता । यह लेख किसी के हृदय परिवर्तन की आशा से लिखा भी नहीं गया है । हाँ उन तक यह प्रेषित ज़रूर करना है कि तुम्हारे सुख को हम अपनी कीमत पर कभी सुनिश्चित नहीं होने देंगे । तुम जो भी हो हमारे मित्र बंधु नहीं हो सकते । हम तुम्हारी शत्रुता की चुनौती को स्वीकार करते हैं, जिस तरह व्यवस्था की ऐसी ही चुनौती को हमने दृढ़ता पूर्वक स्वीकारा है ।

Monday, May 25, 2015

सृजनात्मक संघर्ष


साभारगूगल बुक्स
सृजनात्मक संघर्ष क्या है ? यह सवाल सुनकर, मुझे सबसे पहले मुक्तिबोध का ध्यान आएगा । मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी और लम्बी कविता अंधेरे में दो ऐसे स्रोत रहे हैं, जिनसे मुझे सृजनात्मक संघर्ष अथवा लेखक के आत्मसंघर्ष को समझने में पर्याप्त मदद मिलती है । अपने विवेक से मैं जितना समझ पाया हूँ, उसी आधार पर सृजनात्मक संघर्ष पर कुछ लिखने की छूट ले रहा हूँ ।
लगभग एक सप्ताह पहले अल्पना मिश्र के पिछले जन्मदिन (18 मई 2014) पर स्त्रीकालवेब पोर्टल पर प्रकाशित उनकी पाँच कविताओं को उनके अगले जन्म दिन पर फिर से फेसबुक पर शेयर किया गया था । शेयर किये गये एक लिंक पर आशुतोष कुमार ने अल्पना मिश्र को टैग करते हुए अपनी प्रतिक्रिया इस तरह दी – अल्पना मिश्र का सृजनात्मक संघर्ष एक मिसाल है  । उन्हें बधाई । इस प्रतिक्रिया को पढ़कर मैं देर तक सोचता रहा कि आशुतोष कुमार ने किस आधार पर अल्पना मिश्र के सृजनात्मक संघर्ष को मिसाल कहा होगा ! मुझे लगता है, आशुतोष जी के पास इसका आधार ज़रूर रहा होगा, इस पर फुर्सत से वे लिख भी सकते हैं । तत्काल मन में कोई आधार नहीं भी रहा हो, तो भी मुझे विश्वास है कि भविष्य के लिए, वे अपने विवेक से इसे तैयार कर लेंगे । बहरहाल मुझे स्वीकारना चाहिए कि आशुतोष कुमार की प्रतिक्रिया के कारण ही इस विषय पर विचार करने की मुझे आवश्यकता महसूस हुई है ।
फिर से उसी सवाल पर लौटते हैं कि सृजनात्मक संघर्ष क्या है ! मेरी समझ से सामान्यतः इसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए किये जाने वाले आत्म और बाह्य संघर्ष के रूप में परिभाषित करने में कोई बुराई नहीं है । ऐसा संघर्ष प्रत्येक सृजनधर्मी कमोबेश करता ही है । अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इस आत्म और बाह्य संघर्ष को सूक्ष्मता से समझा जाए । मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन वागर्थ के किसी अंक में कलकत्ता की एक लेखिका के नागार्जुन से हुई भेंट पर लिखे संस्मरणात्मक लेख को पढ़ा था । लेखिका ने बहुत उत्साह से अपनी कुछ रचनाएँ बाबा नागार्जुन को सुनाई । लेखिका ने लिखा है कि अचानक से बाबा बहुत क्षुब्ध हो गये, और कहने लगे कि इन रचनाओं को लिखते हुए तुम कभी रोई हो ? लिखते हुए कई बार रात-रात भर रोना पड़ता है..वगैरह..वगैरह..। बाबा के लगातार बोलते जाने का सार यह था कि सच्ची अभिव्यक्ति, अभिव्यक्त पात्रों की पीड़ा अथवा विषय की संवेदना को महसूस किये बिना संभव नहीं हो सकती है । शायद नागार्जुन इतने क्षुब्ध हो गये थे कि वे उठ कर चले गये थे । नागार्जुन ने अपनी एक कविता में सृजन की इसी पीड़ा को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है- इंदुमति के मृत्यु शोक से अज रोया या तुम रोए थे ? / कालिदास, सच-सच बतलाना !’ मेरा मानना है कि सृजन के क्रम में ऐसी पीड़ा को अपने भीतर महसूस करना दरअसल सृजनात्मक संघर्ष का पहला अहम हिस्सा है । सृजनात्मक संघर्ष के इस हिस्से को ईमानदारी से निभाने वाले सृजनधर्मी व्यक्तिगत जीवन में भी अत्यंत संवेदनशील नहीं होंगे, इस संदेह का कोई कारण नहीं दिखता । सृजनात्मक संघर्ष का यह हिस्सा अहम है, लेकिन सृजनात्मक संघर्ष का सब कुछ यही नहीं है ।
अंधेरे में कविता में कवि जिस परम अभिव्यक्ति की खोज में छटपटाता हुआ दिखाई देता है, मेरी समझ से सृजनात्मक संघर्ष का वह दूसरा अहम हिस्सा है । अभिव्यक्ति की छटपटाहट क्या सभी सजग सृजनधर्मियों में नहीं होती? इसका घनत्व कम या अधिक हो सकता है, लेकिन प्रत्येक सजग सृजनकर्मी में इसकी उपस्थिति होती ही है । इसके कारण अलग अलग हो सकते हैं । संस्कृत काव्यशास्त्रों में यश और धन के लिए काव्यकर्म का उल्लेख मिलता है, यह आज भी अप्रासंगिक नहीं हुआ है । धन से पारिश्रमिक का अर्थ लगाना गलत होगा । इसे आज के दौर में बड़े पुरस्कारों और आर्थिक फायदे वाले पदों से जोड़ कर देखा जा सकता है । ऐसे सृजन कर्म में भी उम्दा कार्य करने का दबाव होता है । ऐसे सृजन कर्म भी पर्याप्त प्रतिष्ठा हासिल कर लेते हैं । अभिव्यक्ति की आकुलता को इस प्रकार के सृजन कर्म के माध्यम समझने का प्रयास किया जाए तो हम अभिव्यक्ति की छटपटाहट के मर्म को नहीं समझ सकते । ‘अंधेरे में’ की पंक्तियाँ- अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे / तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब- यहाँ हमारी मदद कर सकती हैं । अभिव्यक्ति अथवा सृजन का संघर्ष अभिव्यक्ति के ज़रूरी ख़तरे उठाए बिना बहुत अधूरा है । यह ज़रूरी ख़तरे हमारे समय के मुताबिक तय होते हैं । हम जिस लोकतंत्र में रहते हैं वहाँ, परिवेशगत जमीनी जटिल समस्यायों से जूझने के बजाए उच्चस्थ सत्ता, व्यवस्था और पूँजी प्रतिष्ठानों की आलोचना अधिक सुविधाजनक है । इस तरह की अभिव्यक्ति बहुत हद तक खतरे के दायरे से बाहर है, हालाँकि इस तरह की आलोचना का पर्याप्त महत्व है, और आज भी यह खतरे से एकदम परे नहीं है । अभिव्यक्ति के ख़तरे को समझदारी से परिभाषित किये जाने की जरूरत है । पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश का सृजन कर्म इसका एक उदाहरण हो सकता है, जिन्होंने विसंगतियों के विरूद्ध अपनी निष्ठा के साथ संघर्ष किया और मारे गये । कबीर ने उस दौर में धर्म और जाति व्यवस्था को चुनौती दी थी जिसके सैकड़ों साल बाद और तथाकथित लोकतांत्रिक अधिकारों के रहते भी साम्प्रादायिक और जातीय दबंगई का पार नहीं पाया जा सका है । अभिव्यक्ति की छटपटाहट का मूल्यांकन उसके  प्रयोजन के आधार पर ही किया जाना चाहिए ।
सृजनात्मक संघर्ष का एक और पक्ष उल्लेखनीय है । सृजनधर्मियों की व्यक्तिगत परिस्थिति पर विचार किया जाना भी आवश्यक है । अभावों, व्यक्तिगत सीमा, असुविधा, शारिरिक अथवा मानसिक पीड़ा जैसी कई चुनौतियों के रहते भी सोद्देश्य सृजन के प्रति निष्ठावान रह सकना , निस्संदेह बहुत बड़ा सृजनात्मक संघर्ष है । ऐसे में सृजन बहुत प्रभावशाली नहीं भी हो, तब भी वह सृजनात्मक संघर्ष की महत्वपूर्ण निधि है और इस नाते सम्माननीय भी ।
उपर के तीन पैरा में सृजनात्क संघर्ष के सभी आयाम समेट लेने का दावा नहीं किया जा सकता है । फिर भी सृजनात्मक संघर्ष को समझने की जो कोशिश की गयी है, उसमें किसी एक परिस्थिति या बिन्दु को निर्णायक नहीं समझ लिया गया है । मसलन जरूरी नहीं कि सृजनधर्मी आर्थिक अभाव में रहता हो, लेकिन तब भी यह आवश्यक है कि वह अभिव्यक्ति के जरूरी ख़तरे उठाने के लिए आत्मसंघर्ष करता हो और उस पक्ष में खड़ा हो जो न्यासंगत हो । यदि यह आत्मसंघर्ष वास्तविक होगा तो सवाल ही नहीं उठता कि रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन उसके सृजन की भावना के विपरीत होगा ।
चूँकि एक विश्वविद्यालयी शिक्षक के सृजन कर्म पर एक विश्वविद्यालयी शिक्षक की टिप्पणी को प्रस्थान बिंदु के रूप में चुना गया था, एक और बिन्दु पर विचार करना आवश्यक है । विश्वविद्यालयी शिक्षकों के सृजनात्मक संघर्ष का मूल्यांकन क्या अन्य लोगों के सृजनात्मक संघर्ष से अलग तरीके से करना चाहिए चाहिए? मेरा उत्तर है- हाँ । यह उत्तर सृजनात्मक संघर्ष पर तीन पैरा में की गयी चर्चा के आधार पर ही दिया जा रहा है । विश्वविद्यालयी शिक्षकों को मिलने वाला अपेक्षाकृत भारी वेतन, विभिन्न सुविधाएँ और पर्याप्त अवकाश जनता के पैसों की बदौलत है । इसलिए उनके ऊपर प्राथमिक जिम्मेदारी विद्यार्थियों के बिना भेद-भाव बेहतर निर्माण की है, उपलब्ध ज्ञान के दोषरहित हस्तांतरण और विस्तार की है । इस प्रसंग की तमाम विसंगतियों और कुव्यवस्था से जूझना उनका अनिवार्य दायित्व है । इस तरह उनका प्राथमिक सृजनात्मक संघर्ष विद्यार्थियों के निर्माण का संघर्ष है । यदि वे यहाँ ईमानदार नहीं होंगे तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि वे किसी किस्म के सृजनात्मक संघर्ष के योग्य नहीं हो सकते । एक विद्यार्थी के नाते अपने किसी शिक्षक के रचनात्मक सृजन से मुझे खुशी होती है, लेकिन मेरे लिए उनके सृजनात्मक संघर्ष को समझने के लिए एक शिक्षक और एक मनुष्य के बतौर उनका आचरण काफी होता है। दुर्भाग्य से विश्वविद्यालयी शिक्षकों ने जिनके ऊपर सृजन की अपेक्षाकृत बड़ी जिम्मेदारी है, आपसी साँठ-गाँठ से ऐसा माहौल तैयार कर लिया है, जहाँ सृजनात्मक संघर्ष से रहित सृजन की जय जयकार हो रही है । विद्यार्थियों के सृजन में लगे शिक्षक और उनका ईमानदार लेखन भी घोर उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, और विशेष प्रयोजन से कविता संकलन, कथा संकलन, उपन्यास और राग-द्वेष के आधार पर लिखी गयी या संपादित आलोचना की किताब अथवा अभिनंदन ग्रंथ छपवाने वाले प्रोफेसरों को पुरस्कार और सम्मान मिल रहा है, उनकी जयजयकार हो रही है ।
यह समझ में आता है कि किसी कृति मात्र पर चर्चा करते हुए समीक्षक उसे अच्छा, बेहतर, या इच्छा हो तो बहुत उम्दा कह दे, लेकिन यह समझ से परे है कि किसी भी सृजन कर्म को बड़ा सृजनात्मक संघर्ष कहने से पहले गंभीरतापूर्वक सोचा विचारा न जाए । इस तरह की टिप्पणी बहुत सतर्क हो कर ही करनी चाहिए । जाने-अनजाने सृजनात्मक संघर्ष के संदर्भ में चलताऊ टिप्पणी कर के हम अपने उन पूर्वजों और समकालीनों का सिर्फ अपमान ही नहीं करते हैं बल्कि उनके प्रति घोर कृतघ्नता प्रदर्शित करते हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सृजनात्मक संघर्ष के निमित्त समर्पित कर दिया या इस तरह के समर्पण का संकल्प लेकर उसे निभाने में यत्न पूर्वक जुटे हुए हैं। यह हमारी अगली पीढ़ी के प्रति भी अपराध है, जिन तक सृजनात्मक संघर्ष ही नहीं अब तक उपलब्ध सम्पूर्ण ज्ञान की सही समझ प्रेषित करना हमारा अपरिहार्य कर्तव्य है ।