Thursday, September 25, 2014

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्रसंघ चुनाव : 2014-2015

मैं पिछले साल अक्टूबर के अंत में पहली बार हैदराबाद विश्वविद्यालय आया था । तब यहाँ छात्र संघ चुनाव होने वाले थे । इस तरह संयोग से यहाँ के छात्रसंघ चुनाव प्रक्रिया का प्रत्यक्षदर्शी बन पाने का अवसर मिला था । मैं यहाँ के छात्र संगठनों, उनके आपसी सम्बंधों और समीकरणों की कामचलाऊ समझ के साथ वापस लौटा था । इस बार (25 सितम्बर 2014) के चुनाव में मैं एक मतदाता की हैसियत से भाग लेने जा रहा हूँ । दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थियों को छात्रसंघ चुनाव में हिस्सा नहीं लेने दिया जाता है । इसलिए एम.फिल. के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के 2012 और 2013 के छात्रसंघ चुनाव में मैं वोट नहीं कर सका था । आज के चुनाव में वोट डालकर एक तरह से मुझे मुझसे छीन लिए गये मताधिकार की वापसी का आभास होगा।

सोच समझ कर वोट डालने की जिम्मेदारी ने कुछ समस्यायें खड़ी कर दी हैं । मैं अब तक बहुत स्पष्ट नहीं हूँ कि अपना वोट किसे दूँ । दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र संगठन आइसा (AISA) से जुड़ाव के बाद, वहाँ किसी तरह की दुविधा नहीं रह गयी थी । यहाँ आइसा एक संगठन के बतौर अनुपस्थित है । अब इस संगठन में नहीं होने के बाद भी इसके साथ जुड़ा भावनात्मक रिश्ता खत्म नहीं हुआ है । इस संगठन में रहते हुए बाकी संगठनों के विषय में बनी राय आज भी कायम है । एस.एफ.आई (Students’ Federation of india) को एक ग़ैर जिम्मेदार संगठन के रूप में मुखर होकर पहचानने की शुरूआत आइसा से जुड़ने के बाद के दिनों में ही हुई थी । जेएनयू में आइसा और एसएफआई की प्रतिद्वंद्विता जाहिर है । हमें जेएनयू कैंपस में एसएफआई की अप्रिय गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती थी । मुझे अधिक दिक्कतें एसएफआई के मातृसंगठन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPIM) से रही है । इसे छद्म कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में पहचानने के कई कारण हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख मैंने माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य को लिखे खुले पत्र में किया था, इसी पत्र के कारण आइसा के कई वरिष्ठ साथियों को मुझसे नाराजगी रही है । वह खुला पत्र इसी ब्लॉग पर लगाया गया था । बहरहाल बताना यह है कि यहाँ एसएफआई एक प्रभावी संगठन है । अनेक मतभेदों के बावज़ूद वामपंथी संगठन होने और कई मुद्दों पर एकमत होने के कारण देश भर में कई जगह आइसा और एसएफआई ने साथ में काम किया है । मुझे याद है अप्रैल' 2013 में पश्चिम बंगाल में एसएफआई के से जुड़े सुदीप्तो की पुलिस हिरासत में मौत के बाद ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ जो आक्रोश सड़कों पर दिखा था, उसमें आइसा की भी सक्रिय भूमिका रही थी । जाहिर है ऐसा सहयोग परस्पर दोनों संगठनों में होता रहा होगा । इसे दोनों संगठनों की परिपक्वता कहा जा सकता है जो बुनियादी तौर पर किसी वामपंथी छात्र संगठन में दिखाई देती है । इसके बावज़ूद यह बड़ा सच है कि दोनों छात्र संगठनों की एक दूसरे को लेकर भारी आलोचना रही है ।

यहाँ एड्मीशन के दौरान विभिन्न छात्रसंगठन अपना हेल्प-डेस्क लगाते हैं । मेरे लिए यह अलग अनुभव था कि मुझे एड्मीशन से जुड़े कुछ फार्म एबीवीपी के डेस्क पर उपलब्ध कराए गये । यह वही संगठन है जिसे वामपंथी संगठन अपना चिर प्रतिद्वंद्वी मानते रहे हैं । इस संगठन का चरित्र लाख ढकने के बावज़ूद कहीं भी कभी भी प्रकट हो जाता है । मेरे एड्मीशन में सबसे अधिक सहयोग एसएफआई के साथियों ने किया था । समय कम था इसलिए मेरे कुछ फार्म तक एसएफआई के कार्यकर्ताओं ने भरे थे । एड्मीशन के समय किये गये सहयोग का संगठनों को चुनाव में बहुत फायदा मिलता है । यह फायदा स्वाभाविक रूप से उनको अधिक मिलेगा जो उस दौरान अधिक सक्रिय रहे होंगे । एक वामपंथी छात्र संगठन, जिसके प्रति मेरी आलोचना रही है, के साथियों ने एड्मीशन के दौरान मेरी जो मदद की इसलिए  उनके प्रति जो मेरी कृतज्ञता है, वह मेरा वोट निर्धारित नहीं कर सकती है । 

एसएफआई यहाँ के यूनियन में रही है । पिछले साल अध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव का पद इसी संगठन के पास था । छात्र राजनीति के लिए बेहतर जगह रखने वाले इस कैंपस में एसएफआई के नेतृत्व वाले छात्रसंघ ने आशा के अनुरूप काम नहीं किया है, ऐसा यहाँ के विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं और अपने अनुभव से भी लगता है । 
यहाँ आम्बेडकर स्टूडेंट्स एशोसिएशन (ASA) को मैंने अधिक सक्रिय देखा है । दलित-आदिवासियों के पक्ष में मुखर इस संगठन ने आम छात्रों की समस्याओं को भी सम्बोधित करने में एक हद तक सफलता पाई है । बहुजन स्टूडेंट्स फ्रंट (BSF ), ट्राइवल स्टूडेन्ट्स फॉरम (TSF) आदि संगठनों के साथ आसा ने यूनाइटेड डेमोक्रेटिक संगठन (UDA) नामक एक साझा फॉरम बनाया है । मैं इस फॉरम के सभी उम्मीदवारों को इस बार वोट करता, यदि कांग्रेस पार्टी का छात्र संगठन नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन (NSUI) भी इस फॉरम का एक घटक नहीं होता । जहाँ तक मेरी जानकारी है, पिछले साल के चुनाव में एनएसयूआई यूनाइटेड डेमोक्रेटिक संगठन का हिस्सा नहीं था ।

तेलंगाना राज्य बनने के बाद के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति के सत्ता में आने के बाद की ठसक इस दल के छात्र संगठन तेलंगाना राष्ट्र समिति विद्यार्थीविभागम (TRSV) के चुनावी अभियान में महसूस की जा सकती है । ऐसे संगठनों का तेलुगू भाषी विद्यार्थियों, जिनमें आंध्रप्रदेश के विद्यार्थी भी शामिल हैं, और देश के विभिन्न हिस्सों से आए विद्यार्थियों से बने इस कैंपस में कितना जनाधार है, यह चुनाव परिणाम आने के बाद ही ठीक-ठीक पता चल सकेगा ।

एबीवीपी का इस कैंपस में ठीक-ठाक जनाधार है । पिछले साल कल्चरल सेकेरेट्री और स्पोर्ट्स सेकेरेट्री का पद इस संगठन को मिला था । यह संगठन हर कैंपस में विद्यार्थियों को अपने रंग में रंग पाने में कमोबेश कामयाब हो जाता है । फिर भी जेएनयू या हैदराबाद विश्वविद्यालय जैसे कुछ विश्वविद्यालयों का माहौल एबीवीपी जैसे संगठनों के बहुत अनुकूल नहीं है । कुछ और संगठन भी चुनाव में हिस्सेदारी कर रहे होंगे, जिनकी पहुँच मुझतक या मेरी पहुँच उन तक नहीं हो सकी है ।

चुनाव प्रचार के दौरान लगभग सभी संगठनों के चुनाव अभियान में बेहतर राजनीतिक प्रशिक्षण के अभाव का असर साफ दिखाई दे रहा था । मुद्दों पर आधारित प्रभावशाली संबोधन कर पाने में लगभग सभी संगठन नाकाम रहे, जबकि यहाँ का माहौल और यहाँ की बनावट बेहतर राजनीतिक संवाद के अनुकूल हैं । संभवतः बेहतर राजनीतिक संवाद के अभाव के कारण ही इस कैंपस में चुनाव को लेकर वैसा ही माहौल नहीं बन पाता जैसा जेएनयू में देखने को मिलता है । मेरे सामने जो समस्या है उसको सुलझा पाना मुझे कठिन लग रहा है ।संभवतः मुझे अपने वोट यूडीए और एसएफआई के बीच उम्मीदवारों के आधार पर बाँटना पड़ेगा । उम्मीद है वोट डालने तक तय कर लूँगा । 

पिछले वर्ष उपाध्यक्ष का पद यूडीए के खाते में गया था । यूडीए; दलित आदिवासियों के पक्ष में बात करते हुए संभवतः खुद को गैर दलित-आदिवासी विद्यार्थियों के बीच सहज नहीं पाता है । इसकी बड़ी चुनौती ऐसे छात्रों के साथ भी संवाद कायम कर सामाजिक न्याय और आम छात्रों के अधिकारों पर आधारित व्यापक समझदारी बनाने की है, जिसकी इस कैंपस में पर्याप्त संभावना है । इस फॉरम को एनएसयूआई जैसे संगठनों से परहेज करना चाहिए, जिसकी कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है । 

एसएफआई के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उस कार्यशैली को हाँसिल करने की है, जिसकी अपेक्षा किसी भी वामपंथी छात्र संगठन से की जाती है । इस संगठन में बेहतर की छटपटाहट और आंदोलनधर्मिता का अभाव बहुत निराश करता है ।