छिटपुट छात्र आंदोलनों
से बावस्ता होने के कारण, मुझे अच्छी तरह याद है कि हम
‘छात्र एकता ज़िंदाबाद’ के नारे बहुत उत्साह से लगाया करते थे । यह कुछ और हो या
नहीं हो एक किस्म की शुभेच्छा तो है ही । विडंबना यह है कि छात्र आंदोलनों की ही
नहीं प्रायः विभिन्न आंदोलनों की यह नियति रही है कि उन्हें एक बड़ी चुनौती अपने बीच
से ही मिलती है । ऐसा अक्सर किसी वैचारिक मतभेद की वज़ह से नहीं होता है । इस
चुनौती का बड़ा कारण व्यक्तिगत बुनावट है । सामूहिक हित के बरअक्स निजी हित को
बहुत अधिक महत्व देना तो एक कारण है ही, दूसरा बड़ा कारण यह
है कि अक्सर बड़े से बड़े अहंकारी महत्वाकांक्षियों का स्वाभिमान दो कौड़ी का भी
नहीं होता है । वह तमाम समझौते कर सकता है । आप ख़ुद को उनके परम मित्र समझते हों,
तब भी समय आने पर आपका हक़ मारकर आपके ऊपर खड़ा हो जाने में भी
उन्हें कोई दुविधा नहीं होगी । ऐसे कई पात्रों से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा है ।
कई बार भेद खुलने तक बहुत आत्मीय रिश्ता भी रहा है । ऐसे लोग कई शक्लों में आपके
इर्द-गिर्द मौजूद होते हैं । मसलन कोई बहुत विनम्र, मोहकछवि
और मीठा बोलने वाला होगा, कोई इतना संवेदनशील दिखेगा कि आप
को ख़ुद पर शर्म आएगी, कोई स्वनाम धन्य युवा कवि होगा तो कोई
ताजातरीन 'तीखा' आलोचक कोई संपादकीय
में हाथ आजमा रहा होगा, कोई पत्रकारिता में तो कोई ज़ोरदार
भाषण करने वाला तेजतर्रार छात्र नेता होगा वगैरह..वगैरह.. । सबसे महत्वपूर्ण बात
है कि ये सभी आप तक प्रगतिशीलता के आवरण में लिपटे हुए आएँगे ।
विश्वविद्यालयों
में मैंने देखा है कि अक्सर कक्षा के दस सर्वाधिक मेधावी विद्यार्थी, कक्षा के दस सबसे बड़े दब्बू होते हैं । आप चाहें तो दस तक की गिनती को
आगे भी ले जा सकते हैं । नैतिक रूप से पतित होना यदि कुछ होता है तो वह भी आपको
इनमें दिख जाएगा । मैं सोचता हूँ कि यदि ऐसा नहीं होता तो विश्वविद्यालयों का हाल
कुछ और ही होता, लेकिन दुर्भाग्य से सच यही है । मेरा अनुभव
रहा है कि संघर्ष करने का माद्दा रखने वाले विद्यार्थियों में प्रायः मेधा का अभाव
रहने पर भी मनुष्य होने की ईमानदार समझ होती है । इस नाते शिक्षा के असल उद्देश्य
को वही पूरा कर रहे होते हैं । अकादमिक जगत इतना क्रूर होता है कि मेधा के अभाव को
निशाना बना कर एक बेहतर मनुष्य के निर्माण की सारी संभावनाओं को अपने तई पूरी तरह
कुचल देने में तनिक भी संकोच नहीं करता है । असल में यह सब जो विसंगतियाँ हैं,
अन्याय है, उसकी असल जिम्मेदारी उनकी है जो
मेधावी माने जाते हैं ।
यही
कारण है कि कई बार मुझे इनकी ‘मेधा’ से घृणा होती है । इस मेधा का दुर्निवार विकास
मैं देख पाता हूँ । कइयों को अपने शिक्षकों के रूप में भोग रहा हूँ । कइयों को
पूरा देश प्रशासकों के रूप में झेल रहा है, इत्यादि..इत्यादि
। मुक्तिबोध ने बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास होने की चर्चा की है । यह दासता कितनी
बड़ी त्रासदी है, उसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है । कक्षा
के 'मेधावी' छात्रों की इस परंपरा का
विकास दरअसल एक जड़ परंपरा के फलते-फूलते रहने की गारंटी भी है, कि अकादमिक जगत में जो चलता रहा है, वह चलता रहेगा ।
इसे अनवरत करने के लिए ही मेधाहीन विद्यार्थियों के लिए भी व्यवस्था के अनुगामी
होने पर सफलताएँ सुनिश्चित की जाती हैं । यह स्पष्ट संकेत होता है, कि इस व्यवस्था में प्रवेश की अर्हता योग्यता के बजाय रीढ़ की हड्डी के
आभासी झुकाव से तय होती है ।
जब हम
एक खल व्यवस्था से जूझ रहे होते हैं, तब भीतर के खल
पात्रों को नज़रअंदाज करना एक बड़ी भूल होती है । दरअसल हमें दोनों स्तरों पर
संघर्ष करना होता है । हमें हमारे भीतर के खल पात्रों की सार्वजनिक रूप से भर्त्सना
करनी होगी । उनकी सफलताओं पर मुखर होकर बार-बार प्रश्नचिह्न लगाना होगा । उनकी
सराहना करने के बजाय, उनका बहिष्कार करना होगा । हमें उन्हें
भी चैन से बैठने नहीं देना है, उनकी निष्कंटक सफलता
सुनिश्चित नहीं होने देनी है, जिन्होंने अपनी सफलता के लिए
बेइमान रास्ते का चुनाव किया है । मात्र खल-व्यवस्था के साथ अकेले का संघर्ष हमें
दूरगामी सफलता नहीं दिला पाएगा । हमें व्यवस्था से भविष्य के लिए भी खल पात्रों की
बेदख़ली सुनिश्चित करनी होगी ।
मुझे
पता है कि कोई एक लेख तो छोड़िए दुनिया का बड़े से बड़ा डॉक्टर भी रीढ़ की हड्डी के
आभासी झुकाव का इलाज नहीं कर सकता । यह लेख किसी के हृदय परिवर्तन की आशा से लिखा
भी नहीं गया है । हाँ उन तक यह प्रेषित ज़रूर करना है कि तुम्हारे सुख को हम अपनी
कीमत पर कभी सुनिश्चित नहीं होने देंगे । तुम जो भी हो हमारे मित्र बंधु नहीं हो
सकते । हम तुम्हारी शत्रुता की चुनौती को स्वीकार करते हैं, जिस तरह व्यवस्था की ऐसी ही चुनौती को हमने दृढ़ता पूर्वक स्वीकारा है ।
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