Wednesday, December 13, 2017

**********मुक्तिप्रसंग का लोकतंत्र**********

राजकमल चौधरी [साभार : मैथिलीजिन्दाबाद.कॉम]
  मुक्तिप्रसंग का लोकतंत्र* 
(राजकमल चौधरी की कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ का एक पाठ)

        मुक्तिप्रसंग’ के पाठकों के पास एक सुविधा यह है कि इसकी रचना अवधि के दौरान कवि राजकमल चौधरी की बाह्य परिस्थितियों और मनोजगत को समझने में मदद करने वाली सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं । यह कविता फरवरी 1966 से जुलाई 1966 तक की अवधि में लिखी गयी थी । उन दिनों राजकमल चौधरी पटना अस्पताल के राजेन्द्र सर्जिकल वार्ड में भर्ती थे । फरवरी के अंतिम दिनों में असह्यनीय पेट दर्द और तीव्र मुत्रावरोध की शिकायत के बाद उन्हें यहाँ लाया गया था । शुरू में कैंसर की आशंका व्यक्त की गयी थी । बाद के मेडिकल जाँच रिपोर्टों के आधार पर कैंसर की तो नहीं, लेकिन, मैलिग्नेट लिम्फो सर्कोमो नामक जिस बीमारी की आशंका व्यक्त की गयी थी, वह भी जानलेवा थी । सर्जिकल ऑपरेशन ही एक मात्र निदान था ।[1] राजकमल का घोर असुरक्षाबोध से भर जाना स्वाभाविक था । मृत्यु की आशंका ने मन को बहुत अशांत कर दिया था । तब उनकी उम्र तकरीबन साढ़े छत्तीस वर्ष थी । मार्गदर्शन की उम्मीद में उन्होंने अस्पताल से ही वात्स्यायन जी को एक पत्र लिखा था । अस्पताल में ही उन्हें अपने पत्र का उत्तर भी मिला । 25 मार्च 1966 को लिखे गये वात्स्यायन जी के आत्मीय पत्र का एक अंश इस तरह था- स्वीकार के बाद मृत्यु को हटाकर एक ओर रख दिया जा सकता है, और यही मैं आपसे कहना चाहता हूँ । यह स्वीकार हराता नहीं जीने का बल भी देता है । [2] पत्र में लिखी बातों को पढ़कर राजकमल का मन दृढ़ अवश्य हुआ था, लेकिन जीने की उत्कट इच्छा, मृत्यु की आशंका, भयावह पीड़ा और मृत्यु को स्वीकार कर उसे अलग रख देने के प्रयास का आपसी तनाव उन्हें बहुत बेचैन किये रहता था । 11.04.66 को मैथिली के साहित्यकार जीवकान्त को सम्बोधित एक पत्र में उन्होंने लिखा- रोग बहुत कठिन बहुत कष्टकर है । लेकिन जीना है । [3] कभी असह्य पीड़ा के क्षणों में वे अपनी डायरी में लिखते- ‘Please stop the world. I want to get off from this earth” [4]
इन कुछ प्रसंगों से गुजरकर यह समझा जा सकता है कि मुक्तिप्रसंग बेहद असामान्य मनःस्थिति में लिखी गयी कविता है । इसकी भूमिका में राजकमल ने लिखा है – मुक्तिप्रसंग मेरा वर्तमान है ।” और यह भी लिखा है कि - जिजीविषा और मुमुक्षा-इस कविता के मूलगत कारण हैं । [5]
इस कविता की शुरूआत आत्मालाप से होती है, जिसमें जिजीविषा और मृत्यु की प्रबल आशंका के द्वन्द्व से निर्मित बिम्बों की प्रचूरता है – ‘दोनों आँखों की ज्वालामुखी पिघल जाने के उपरांत / मैं उसकी बाँहों में / यूनिसेफ-एंबुलेंस की दुर्गति / मेरे नशे में डूबी हुई / मैं ही प्राप्त करूँगा / इस नगरवधू को महाश्मशान बनाने का श्रेय / मेरे ही रक्त के शंख चक्र सामुद्रिक स्वाद में / जलते हुए नाम मेरे होठ दुहराते हैं / वही एक शब्द बार-बार / बीजमंत्र  वही एक कामतंत्र / छत से पलंग तक झूलती हुई रस्सी का फंदा और सर्जिकल अस्पताल तक की स्वप्न यात्रा में कहता है उपाध्याय / कुछ नहीं होगा तुम्हें / वैसा जो नहीं हुआ है अब तक मर्मांतक / किंतु मेरा चेहरा मेरी गर्दन मेरे कंधे काले पत्थर की अपनी बाँहों में समेट कर वह मुस्कुराती है / वही होगा वही होगा / रोक लिया गया था अब तक जिसे विपरीत ऋतुओं और मांगलिक नक्षत्रों के कारण..[6]
इस कविता की भूमिका में राजकमल ने वात्स्यायन जी के पत्र का संदर्भ लेते हुए लिखा है – “मृत्यु की सहज स्वीकृति से देह की सीमाओं, संगतियों और अनिवार्यताओं से मुक्त हुआ जा सकता है । इस वर्ष फरवरी से जुलाई तक प्रत्येक शनिवार को ऑपरेशन थियेटर के सफेद टेबुल पर संज्ञाहीन होते हुए, मैंने ऐसा अनुभव किया है । मैंने अनुभव किया है कि स्वयं को अपने अहं से मुक्त किया जा सकता है ।”[7] स्वयं को अहं से मुक्त किये जा सकने का अनुभव संभवतः इस कविता में भी उनके आत्म की परिधि से बाहर आने में सहायक रहा होगा । आत्ममुक्ति की चिंता के साथ शुरू हुई कविता मुक्तिप्रसंग धीरे-धीरे दुनियाभर की मुक्तिकामी आकांक्षाओं से अपना सम्बंध स्थापित कर लेती है । कविता अपने समय के कई अनुत्तरित प्रश्नों से जूझने लगती है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से एक जिम्मेदार दुनिया की उम्मीद जगी थी । धीरे धीरे यह छलावा साबित होने लगी । संयुक्त राष्ट्र संघ कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों की कठपुतली बन कर रह गया । दुनिया भर में जनता ने लोकतंत्र के भरोसे जो सपने देखे थे, वे टूटने लगे । भूख, बेरोजगारी, अशिक्षा और अस्वास्थ्य से जूझ रही जनता के लिए हथियारों और बारूद के ढेर जमा किये जा रहे थे । ‘मुक्तिप्रसंग’ में यह सब दर्ज हुआ है दैनिक समाचार पत्रों में वियतनाम हिंदेशिया कांगो रोडेशिया / अपने देश में एटम बम बनेगा नहीं बनेगा ।
सम्पन्न और शक्तिशाली राष्ट्र, अन्य राष्ट्रों के शोषण के नये-नये तरीके इजाद कर उन्हें लगातार आजमा रहे  थे । राष्ट्रों की प्रभुता और अखंडता के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन का दौर भी जारी था । साठ के दशक तक हमारे देश के सोचने समझने वाले युवाओं के सामने भी यह स्पष्ट होने लगा था, कि लोकतांत्रिक युग के नाम पर दुनिया भर में फरेब चल रहा है । स्वाभाविक रूप से इन युवाओं की भी लोकतंत्र से बहुत उम्मीदें रही होंगी । लोकतंत्र के प्रति मोह और मोहभंग के संक्रमण काल में वे भी कई अनसुलझे सवालों में उलझे रहे होंगे । राजकमल भी ऐसे कई सवालों से जूझ रहे थे - आदमी क्यों पार करता है युद्ध?/ क्यों वर्लिन की दीवार?/ क्यों देश प्रेम?/ क्यों ताशकंद?/ क्यों दास कैपिटल?/ क्यों सेगाँव की बौद्ध भिक्षुणियाँ जल मरती हैं?/ क्यों कश्मीर के लिए सेनाएँ?/ क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों और कभी-कभी वियतनाम में होता है?
          कथित लोकतांत्रिक दुनिया के ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न, ‘लोकतंत्र” के प्रति बेहद नकारात्मक धारणाओं को निर्मित करने वाले होते हैं । नवंबर, 1965 में ज्योत्सना में छपे राजकमल के एक लेख  एक कवि का निजी वक्तव्य का यह अंश ऐसी ही एक धारणा को प्रकट करता है – जनतंत्र के युग में सारी बातें और सारी हालतें सोई रहेंगी । यों, कभी-कभी दिल बहलाव के लिए कोई नाच-गान पेश होगा, कोई कविता लिखी जाएगी, पुरस्कार दिए जाएँगे, नकली प्रतियोगिताएँ होंगी, शीशे के रंगीन टुकड़े हीरों से ज्यादा कीमती जचेंगे, कोई अफसर नौकरी छोड़कर योगाश्रम खोलेगा और अखबार निकलते रहेंगे । यह सारा कुछ सिर्फ मनोरंजन और सिर्फ जनताशाही के नाम पर होगा ।[8]
जब मुक्तिप्रसंग की रचना की जा रही थी, तब देश को आजाद हुए अठारह वर्ष से अधिक बीत चुके थे । देश की बड़ी आबादी आजादी और लोकतंत्र को हाँसिल करने की खुशफहमी में जी रही थी । इस स्थिति का फायदा उठाकर सामंती व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की राजनीतिक साजिश अपनी कामयाबी के नित नये कीर्तिमान गढ़ रही थी । राजाओं के वंशज, जमींदार, बड़े व्यापारी और ऊँची जातियों के लोग सांसद, विधायक, मंत्री बनकर लोकतंत्र का अपने चरित्र और अपनी सुविधा के अनुसार दोहन कर रहे थे । अफसरों ने अंगरेजी नौकरशाही की परंपरा और प्रवृत्ति से अपने आप को मुक्त नहीं होने दिया था । देश की जनता के हित में नीतियों और योजनाओं को तैयार करने के दावे खोखले साबित हो रहे थे । भ्रष्टाचार ने देश को तबाह करना शुरू कर दिया था । संविधान में प्रस्तावित संकल्प दम तोड़ने लगा था । देश का बड़ा हिस्सा बदहाल था । ऑपरेशन टेबल पर लेटे हुए कवि की देह और मन की पीड़ा देश की असह्य पीड़ा से जुड़कर इस तरह व्यक्त हुई है -  लेकिन मेरा देश मेरा पेट मेरा ब्लाडर / मेरी अंतड़ियाँ खुलने से पहले / सर्जनों को यह जान लेना होगा / हर जगह नहीं है जल अथवा रक्त / अथवा मांस अथवा मिट्टी / केवल हवा कीड़े जख्म और गन्दे पनाले हैं / अधिक स्थानों पर इस देश में/ जहाँ सड़कर फट गयी हैं नसें / वहाँ हवा तक नहीं/ ऊपर की त्वचा चीरने पर आग नहीं निकलेगी न ही धुआँ / जठराग्नि..दावानल.. / सब बुझ गए अचानक पहले पन्द्रह अगस्त की पहली रात के बाद / अब राख ही राख बच गया है पीला मावाद
          जब जनता में यह भ्रम हो कि देश में उनका अपना शासन है, तब उनका प्रतिरोधी स्वभाव बहुत कमजोर हो जाता है, शायद इसीलिए राजकमल अपने समय के लोकतंत्र की पहचान एक सम्मोहिनी राजनीतिक व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में नहीं कर पा रहे थे । लोकतंत्र के प्रति उनकी निराशा बृहत्तर थी । लोकतंत्र के प्रति उनकी अनास्था ‘मुक्तिप्रसंग’ में बहुत मुखर होकर दर्ज हुई हैं – आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियाँ / केवल पेट के बल उसे झुका देती हैं / धीरे-धीरे अपाहिज / धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए / उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक बना लेती है ।
लहर के मार्च 1961 अंक में राजकमल चौधरी का एक लेख छपा था – कबिरा खड़ा बजार में । इस लेख में उन्होंने अपनी पसंदीदा उपन्यासकार आइन रैण्ड के 1957 में प्रकाशित उपन्यास ‘एटलस श्रग्ड’ (Atlas Shrugged) के कुछ पात्रों की चर्चा की है । आन्द्रे और रोआर्क की प्रकृति का उल्लेख करने के बाद, इन दोनें पात्रों से एक अन्य पात्र जॉन गाल्ट की प्रकृति की तुलना करते हुए उन्होंने लिखा है – जॉन गाल्ट आत्महत्या नहीं करता, डिनामाइट नहीं लगाता, वह सिर्फ़ अलग हो जाता है, वह नासमझ लोगों की नासमझ दुनिया से अलग हो जाता है ।[9]
‘मुक्तिप्रसंग’ में भी कवि ने लोकतंत्री संसार से अलग हो जाने की प्रस्तावना रखी है -आदमी को इस लोकतंत्री संसार से अलग हो जाना चाहिए / चले जाना चाहिए कस्साबों गांजाखोर साधुओं / भीखमंगों अफीमची रंडियों की काली दुनिया में / मसानों में / अधजली लाशें नोचकर खाना श्रेयस्कर है / जीवित पड़ोसियों को खा जाने से” उन्हें लोकतंत्र के नाम पर चल रहे मानवता के विध्वंश की बहुत खतरनाक साजिश से अलग हो जाना अनिवार्य लगता है - “हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है / इस धरती से आदमी को / हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की साजिश में ।”
लोकतंत्र का आवरण ओढ़कर पसर रही विकृतियां भयावह थीं । इतनी भयावह कि मुक्तिप्रसंग’ का कवि इस लोकतंत्री संसार से उलग होकर अराजक गाँजाखोरों, साधुओं, भीखमंगों, अफीमचियों आदि की दुनिया को चुन लेना बेहतर समझता है । यह निर्विवाद है कि देश में पनप रहे असंतोष, उग्रवाद और अलगाववाद आदि के लिए लोकतांत्रिक विकृतियाँ बड़ी जिम्मेदार रही हैं । इसे स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि लोकतंत्र की विकृतियों से जन्मी अनास्था ही कालांतर में ‘नक्सलबाड़ी’ जैसे आंदोलनों के अस्तित्व में आने का बड़ा कारण बनी ।
यह विचारणीय है कि ‘मुक्तिप्रसंग’ और राजकमल के अन्यत्र लेखन में लोकतंत्र के प्रति जो अनास्था,आक्रोश और रोष व्यक्त हुआ है, क्या वह लोकतंत्र के प्रति उनकी अनंतिम धारणा को प्रकट करता है? क्या राजकमल लोकतंत्र की व्यवस्था को खारिज करते हैं, अथवा ऐसा प्रकट करने वाली उनकी अभिव्यक्तियाँ गहन अंतःपाठ की मांग करती हैं?
‘लहर’ के जुलाई, 1962 अंक में छपे उनके एक लेख – ‘बर्फ और सफ़ेद कब्र पर एक फूल’ में वे बेहतर राजनीतिक व्यवस्था की संभानाओं को खोजने की चेष्टा करते हुए दिखाई देते हैं– “सोचता रहता हूँ कि क्या उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद या कम्युनिज्म के अलावा कोई तीसरा रास्ता नहीं है?”[10] राजकमल का जुड़ाव अमेरिका की बीट पीढ़ी से भी था, जिसकी मान्यता थी कि व्यक्तिगत स्वाधीनता सर्वोपरि है । संभव है कि अपनी मनोरचना के कारण वे साम्यवाद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रतिकूल समझते हों । उस दौर में राममनोहर लोहिया जैसे प्रखर राजनितिक चिन्तक भी कांग्रेस विरोध के साथ ही साम्यवाद की खामियों को भी देश के सामने लाने का प्रयास कर रहे थे । लेकिन राजकमल देश के भीतर विकसित हो रहे ‘समाजवादी धाराके सच को भी पहचान रहे थे । वे जनसंघी चरित्र और उसके खतरे से भी भली-भांति परिचित थे । अप्रैल-जून-1967 के ‘आलोचना’ में छपे अपने एक लेख- ‘अप्रत्याशित कुछ भी नहीं’ में उन्होंने लिखा है- कांग्रेस शासन के देशव्यापी विरोध, जनमत के अर्ध विक्षिप्त अनिर्णय और नयी विकल्प प्रियता के कारण देश के कई राज्यों में कांग्रेस विरोधी (और परस्पर विरोधी) दलों की संयुक्त सरकारें बनी हैं । इन सरकारों में अधिक बुद्धिमान, अधिक स्वार्थहीन, अधिक ईमानदार व्यक्ति अवश्य शामिल हुए हैं, लेकिन इन सरकारों में जनसंघ, स्वतंत्र, प्रसोपा, मुस्लिम लीग, जनक्रांति दल जैसी प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी पार्टियां भी शामिल हैं । इसलिए कुल मिलाकर ये पीढियां भी कांग्रेस के अपने दक्षिणपंथ और वामपंथ की मिली-जुली भाव भगत की सरकार से अधिक पराक्रमी, और अधिक क्रांतिकारी और अधिक समाजवादी सरकारें नहीं बन पाएंगे ।”[11]
‘मुक्तिप्रसंग’ का कवि विकल्पहीनता और अनास्था को अपना स्थाई भाव बना लेने के पक्ष में नहीं   है । इसलिए अपने पलायन की इच्छा को वह स्थगित करता है और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की अपनी रचनात्मक आस्था की ओर लौटता है – “वह पागल मरी हुई आतंकित अनगढ़ स्त्री चिपकाऊंगा / अपने ओंठों पर उसके ओंठों में / अपने शब्द / वाक्य / भाषाएँ / अपने मुहावरों से उसकी बंजर धरती नहलाऊंगा ।” कवि यह सब उस स्त्री के लिए कहता है जो – “ग्यारह बजकर उनसठ मिनट पर / हर रात शहीद-स्मारक के नीचे नंगी होती है / पागल काली मरी हुई एक स्त्री / उजाड़ आसमान में बाहें फैलाकर रोने के लिए / रोते हुए सो जाने के लिए पानी और अनाज के देवताओं से भीख मांगती है / तिरंगा फहराने के अपराध में मार डाले गए / 1942 के छात्रों के नाम पर” । ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्त्री भारत की जनता की जनतांत्रिक आकांक्षाओं का प्रतीक है, जिन्हें कवि स्वर देने का संकल्प लेता है ।
राजकमल चौधरी ने विधिवत रूप से 1960 में लिखना शुरू किया था और 1967 में साढ़े सैंतीस वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हो गया था । यह कहना उचित होगा कि उनके लेखन की अल्पावधि उनके सृजन ही नहीं, उनके निर्माण के भी वर्ष थे । संभवत: इसलिए परस्पर विरोधाभासी बातों से उनका साहित्य भरा हुआ है । व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व के द्वंद्व ने भी उन्हें पर्याप्त मथा  है ।
फरवरी 1967 के आम चुनावों के बाद ‘आलोचना’ में प्रकाशित अपने लेख – ‘अप्रत्याशित कुछ नहीं’ में उन्होंने यह भी लिखा है- “मैं राजकमल चौधरी अपनी तरफ से जनता के पास चले जाने का वादा करता हूँ, मेरी सही यात्रा यहीं से शुरू होगी ।”[12] ऐसा प्रतीत होता है कि राजकमल अपने लिए उचित प्रस्थान बिंदु और दिशा तय कर चुके थे ।  इसी दौर में राजकमल राजनितिक रूप से भी अपने चिंतन में स्पष्ट होने लगे थे । इसी लेख में उन्होंने लिखा है - “जब तक देश की अर्थव्यवस्था और शासन व्यवस्था में आमूल, सम्पूर्ण और क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं होगा – हमारा देश और हमारे देश का मनुष्य लोक सेवाओं और लोक सभाओं में अपना सही प्रतिनिधि भेजने के लिए स्वाधीन नहीं है ।”[13] राजकमल का जनता के पास लौटने का संकल्प 19 जून 1967 को हुई उनकी मृत्यु के साथ ही अधूरा रह  गया ।
‘मुक्तिप्रसंग’ का पुनर्पाठ करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह कविता लोकतंत्र के प्रति जिस अनास्था को अभिव्यक्त करती है, वह किन परिस्थितियों में निर्मित हुई थी । ‘लोकतंत्री’ संसार से अलग हो जाने की बात कितनी अधिक पीड़ा के साथ कही गयी होगी । इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत आवश्यक है, कि कवि जिस लोकतंत्री संसार से अलग होने की बात करता है, वह लोकतंत्री संसार, वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों से संचालित ही नहीं है ! यह समझना भी आवश्यक है कि राजकमल की जो अनास्था प्रकट हुई है, वह लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था के छले जाने से निर्मित हुई है ।
दरअसल ‘मुक्तिप्रसंग’ का स्वर लोकतंत्र के जरुरी मूल्यों के प्रति आग्रही है । यह कविता लोकतंत्र की वास्तविक भावना को परे रख कर चलने वाले लोकतंत्र को स्वीकार करने से साफ इंकार करती है । अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब मांगती है । लोकतंत्र के नाम पर चल रही साज़िशों के प्रति सावधान करती है । यह कविता लोकतंत्र को नहीं लोकतंत्र के नाम पर परोसे जाने वाले अलोकतंत्र को खारिज करती है । यह कविता अपने निहित आशय में यही व्यंजित करती है कि अनास्था के लोकतंत्र का एकमात्र विकल्प है- सही लोकतंत्र ।
‘मुक्तिप्रसंग’ को लिखे हुए पांच दशक बीत चुके हैं । राजकमल के उठाये गए सवाल अब भी ज्यों के त्यों हैं, बल्कि अधिक तीखे हो गये हैं । कुछ सन्दर्भों में स्थान काल पात्र ज़रूर बदल गए हैं । लोकतंत्री संसार आज भी वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों के बिना ही चलती है । देश दुनिया की परिस्थितियाँ कमोवेश वैसी ही है । कश्मीर में मानवाधिकारों का क्रूरतापूर्वक हनन आज भी हो रहा है । इस ‘लोकतांत्रिक देश के कुछ हिस्सों में भारी विरोध के बावजूद आफसफा जैसे नागरिक अधिकारों के क्रूर दमन में सहायक कानून लागू हैं । आदिवासियों को जंगल से बेदखल किया जा रहा है, और किसानों से उनकी ज़मीने छीनी जा रही हैं । मानव विकास की अपेक्षा युद्धोन्माद अधिक महत्वपूर्ण बना हुआ है । दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध छिड़े हुए हैं । अमेरिका जैसे कई शक्तिशाली राष्ट्र कमजोर राष्ट्रों का बल और छलबलपूर्वक शोषण कर रहे हैं । कई मजबूत देश, कमजोर देशों को अपने निशाने पर लेकर इन्हें तबाह करने पर तुले हुए हैं । जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राजाओं की तरह पेश आते हैं । इत्यादि ।
ऐसे मुद्दों की एक असमाप्त श्रृंखला है । यह और भी दुखद है कि परिस्थितियाँ पहले से अधिक भयावह हुई हैं, और इसके और भी अधिक भयावह होते जाने की आशंका है । जरूरी है कि पुनर्पाठ के क्रम में हम राजकमल की अनास्था से गुज़रते हुए वास्तविक लोकतंत्र को हाँसिल करने की चुनौतियों से निपटने की युक्तियों पर विचार करें, और उसे व्यवहार में लाने का प्रयास करें । ‘मुक्तिप्रसंग’ में निहित ‘लोकतंत्र की आकांक्षा’ की दिशा में यही हमारा प्रस्थान बिंदु हो सकता है ।


[1] इन सूचनाओं के स्रोत के लिए देखिए : राजकमल चौधरी का सफर (पहल पुस्तिका), पृष्ठ : 34-35
[2] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-7
[3] देखिए : राजकमल चौधरी का सफर (पहल पुस्तिका), पृष्ठ : 35
[4] राजकमल चौधरी रचनावली, खंड-8, पृष्ठ : 285
[5] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-8
[6] इस लेख में उद्धृत कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ के सभी पद वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तिका- ‘मुक्तिप्रसंग (द्वितीय सं.-2006) से लिये गये हैं ।
[7] देखिए : मुक्तिप्रसंग,पृष्ठ-8
[8] देखिए : देखिए : राजकमल चौधरी रचनावली, खंड-7, पृष्ठ : 133
[9] देखिए : वही, पृष्ठ : 335
[10] देखिए : वही, पृष्ठ : 349
[11] देखिए : वही, पृष्ठ : 389
[12] देखिए : वही, पृष्ठ : 390
[13] देखिए : वही, पृष्ठ : 389
 सन्दर्भ विवरण
1. राजकमल चौधरी : मुक्तिप्रसंग : द्वितीय संकलन-2006 : वाणी प्रकाशन, दिल्ली-2
2. सुभाष चन्द्र यादव : राजकमल चौधरी का सफ़र (पहल पुस्तिका) : अक्टूबर, 1998 : जबलपुर-4
3. संपादक- देवीशंकर नवीन : राजकमल चौधरी रचनावली खंड-7 व खंड-8 : प्रथम संस्करण-2015 : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-2
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[*‘बया’ (संपादक : गौरीनाथ) के जुलाई-दिसंबर,2017 अंक (पृ.14-16) में प्रकाशित] 

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