Sunday, September 3, 2017

अनीता की त्रासदी न तो पहली है न आखिरी

     तमिलनाडु की रहने वाली सत्रह वर्ष की एक छात्रा अनीता एस. की आत्महत्या की घटना बहुत विचलित करने वाली है । अनीता आर्थिक रूप से कमजोर एक दलित परिवार की बेहद प्रतिभाशाली लड़की थी । इस वर्ष बारहवीं की परीक्षा में तमिलनाडु बोर्ड के अव्वल विद्यार्थियों में से एक अनीता को मेडिकल कॉलेजों में दाखिला नहीं मिल सका । यह दाखिला उसका सपना था, जिसे उससे छीन लिया गया ।

सुप्रीम कोर्ट के 28 अप्रैल 2016 के एक आदेश के बाद राज्यों के मेडिकल कॉलेजों में भी दाखिले के लिए सीबीएसई के द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षा नीट (NEET) को अनिवार्य कर दिया गया है । पिछले वर्ष (2016) के लिए केन्द्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर राज्य सरकारों के कॉलेजों को इससे छूट दे दी थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ ।

यदि नीट अनिवार्य नहीं होता तो बारहवीं में 1200 में 1176 अंक हासिल करने वाली अनीता को अपने इसी प्रदर्शन के आधार पर तमिलनाडु के मेडिकल कॉलेजों में दाखिला मिल सकता था । अनीता नीट क्वालिफाई नहीं कर पायी । उसने नीट की अनिवार्यता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी, लेकिन उसे वहाँ से भी निराश होना पड़ा ।

स्रोत: https://twitter.com/aanacanth95/
नीट अभी अंग्रेजी और हिन्दी के अतिरिक्त बंगाली, तमिल, तेलुगू, मराठी, असमिया, गुजराती, ओड़िया और कन्नड़ सहित कुल दस भाषा माध्यमों में आयोजित की जाती है । इस परीक्षा में शामिल होने वाले कई स्टेट बोर्ड्स के छात्रों की यह शिकायत रही कि परीक्षा के प्रश्न पूरी तरह सीबीएसई के पाठ्यक्रम पर आधारित थे, जिनमें से कई उनके पाठ्यक्रम से बाहर के थे । कई परीक्षार्थियों ने इस बात की भी शिकायत की थी कि विभिन्न भाषा माध्यमों से पूछे गये प्रश्नों के स्तर भी अलग-अलग थे । मसलन बंगाली और तमिल भाषा माध्यम के छात्रों ने यह आरोप लगाया कि उनसे पूछे गये प्रश्न अंग्रेजी माध्यम में पूछे गये प्रश्नों से अधिक कठिन थे । यह सोचने वाली बात है कि विभिन्न भाषा माध्यमों से ली गयी परीक्षा में अलग-अलग स्तर के प्रश्नों के पूछे जाने की क्या तुक हो सकती है? यह संदेह होता है कि क्या ऐसा अंग्रेजी माध्यम के और निजी विद्यालयों के छात्रों के हक़ में जान बूझ कर किया गया था? क्या यह ग्रामीण पिछड़े, दलित और वंचित तबके के छात्रों को प्रगति के अवसर से वंचित करने की साजिश है? क्या राज्यबोर्ड के स्कूलों के छात्रों के साथ दुर्भावनापूर्ण भेदभाव कर के, सीबीएसई और सीआईएससीई जैसे बोर्ड से सम्बद्ध अंग्रेजी माध्यम के बड़ी पूँजी वाले निजी स्कूलों के लिए मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की जा रही है? केन्द्र सरकार के द्वारा विभिन्न राज्यों में चलाए जा रहे विद्यालयों की संख्या तो वैसे भी बहुत कम है ।

 ग़ैर अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के लिए शैक्षणिक सामग्रियों की उपलब्धता और गुणवत्ता की जो चुनौतियाँ होती हैं, वे नीट की तैयारी के क्रम में तमिल माध्यम की छात्रा रही अनीता के लिए भी रही होंगी । अनीता ने बारहवीं की परीक्षा में अंग्रेजी विषय में भी अच्छे अंक हासिल किये हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि वह शिक्षा माध्यम के रूप में भी इस भाषा में सहज होगी । उसे मजबूरन अंग्रेजी माध्यम की किताबों से जूझना पड़ा होगा । आर्थिक पिछड़ेपन और ग्रामीण पृष्ठभूमि के होने के कारण भी उसके लिए उस तरह की शैक्षणिक सहायता भी उपलब्ध नहीं हो सकती थी, जो कोचिंग के रूप में अन्य छात्रों के लिए सहज उपलब्ध होती है । इन सभी पहलुओं पर विचार किये बिना और सम्बंधित विसंगतियों और समस्यायों के उचित समाधान के बिना नीट की अनिवार्यता को लागू कर देना न सिर्फ अन्याय है, बल्कि भारी क्रूरता  है । अनीता जैसी प्रतिभाशाली छात्रा को हमने इसी क्रूरता के कारण खो दिया है । यदि उसे दाखिला मिल सकता और वह जीवित रह सकती तो संभव है कि वह एक बहुत अच्छी डाक्टर बनती । लेकिन तब भी ऐसा हो पाता यह पूरे यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता है ।

भेदभाव और चुनौतियाँ स्कूली शिक्षा और प्रवेश परीक्षाओं तक ही सीमित नहीं  है । मेडिकल या इंजनीयरिंग कॉलेजों में दाखिलों के बाद पृष्ठभूमि और भाषा माध्यमों के आधार पर होने वाले भेद भाव से जो प्रताड़ना मिलती है, उसने भी कई प्रतिभाओं को कई बार अवसाद या आत्महत्या की स्थिति तक पहुँचाने का काम किया है ।

ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से सबक लेने की जरूरत होती है । क्या तमिलनाडु के नेता इस बात पर ईमानदारी से विचार कर पाएँगे कि अपनी अंग्रेजीपरस्ती के चलते तमिलनाडु के छात्रों के लिए उन्होंने कितनी घुटन भरी परिस्थिति तैयार कर दी है? क्या वे आर.के. लक्षमण के उस कार्टून की संवेदनशीलता को महसूस कर पाएँगे, जिसे आश्चर्यजनक रूप से तमिलनाडु के छात्रों के प्रति अपमानजनक बताते हुए, दबाव डालकर तमिल नेताओं ने ही 2012 में एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से बाहर करवा दिया था? इस प्रतीकात्मक कार्टून में एक तमिल भाषी छात्र को, ‘हिन्दी विरोधी आंदोलनकी अंग्रेजी परस्ती का विरोध करते हुए दिखाया गया है, जो हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी का भी जानकार नहीं है! इस तरह की समस्या पर संवेदनशील होने के बजाय इसे तमिलों के लिए मान सम्मान का मुद्दा बना देने वाली सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ क्या ग्रामीण, दलित और पिछड़े तमिल छात्रों की हितैषी हैं, या उनके ऑनर किलिंगकी दोषी? इस तरह की प्रवृत्ति को तमिलनाडु मात्र तक सीमित नहीं मानना चाहिए । ऐसा कमोबेश देश के सभी राज्यों में हो रहा है । 

लेकिन हम ऐसी त्रासद घटनाओं से अक्सर कोई सबक नहीं सीखते । कई लोग ये दलील देते हैं, और इस घटना के बाद भी दे रहे हैं कि यदि सभी बच्चों को एकदम शुरूआत से अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाए, तो इस तरह के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है । यह बहुत ही असंवेदनशील विचार है । इस विचार के ठीक-ठीक फलीभूत होने के लिए इस देश की लगभग पूरी आबादी को कम से कम एक आवश्यक न्यूनतम स्तर की अंग्रेजी का जानकारी रखनीन पड़ेगी, अन्यथा आप एक मजदूर माता पिता से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे अपने बच्चे को जन्म से स्कूल जाने की अवधि तक अंग्रेजी माहौल उपलब्ध करा पाएंगे । ऐसी स्थिति में यह होगा कि अधिकांश बच्चे एकदम शुरू में ही भाषा माध्यम की कठिनाई के कारण अपना स्वाभाविक विकास खो देंगे । जिस वक्त वे तीव्रता से विषय वस्तुओं को सीखने की स्थिति में होंगे, उनका वह कीमती वक्त एक भाषा माध्यम को समझने में बीत जाएगा । दुनिया भर के शिक्षाशास्त्री जब मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की ज़रूरत पर जोर दे रहे हैं, हमारे यहाँ ठीक उल्टी बहस चल रही है । आइंस्टीन के कथन के विपरीत हम अपनी समस्याओं का समाधान उन्हीं विचारों में खोज रहे हैं, जिनसे वे उपजे हैं ।

आखिर हम इस तरह क्यों नहीं सोच पाते कि ज्ञान किसी एक भाषा का मोहताज नहीं है । आखिर क्यों एक प्रतिभाशाली बच्चे को इंजीनियर या डाक्टर बनने से पहले अनिवार्यतः अंग्रेजी से जूझना चाहिए? मुझे विश्वास है, कि एक दिन हम इस सच्चाई को जरूर समझेंगे, लेकिन तब तक हम न जाने कितनी प्रतिभाओं की बली ले चुके होंगे । 



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