Wednesday, July 26, 2017

आर.के. लक्ष्मण का एक कार्टून और तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन

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यह टिप्पणी भी मूलतः द वायरपर भाषा समस्या से सम्बंधित लेखों की श्रृंखला में 26.07.2017 को प्रकाशित एक लेख की प्रतिक्रिया में इसी दिन लिखी गयी मेरी फेसबुक टिप्पणियों को जोड़कर तैयार की गयी है । थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए इसे यहाँ लगा रहा हूँ ।
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आर.के. लक्ष्मण का एक कार्टून और तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन

'द वायर' ने भाषा समस्या से सम्बंधित लेखों की श्रृंखला में आज (26.07.2017) मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज, चेन्नई के एस.आनंदी और एम.विजय भास्कर के लिखे एक लेख का हिन्दी अनुवाद लगाया है । इस लेख को पढ़ना चाहिए । तमिलानाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों के पक्ष को इसमें स्पष्ट करने की कोशिश की गयी है । मुझे तमिलनाडु में हुए हिन्दी विरोधी आंदोलन कई अर्थों में सकारात्मक लगते हैं । भाषा या भाषाएँ थोपने का विचार घोर अलोकतांत्रिक विचार है । लेकिन मैं तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों के कई अन्य पक्षों और परिणामों को भी समझने में रूचि रखता हूँ ।
'तमिलनाडु में विरोध हिंदी का नहीं एक देश, एक संस्कृतिथोपने का है' शीर्षक से लिखे गये, जिस लेख का ऊपर जिक्र हुआ है, उस लेख में भी तमिलनाडु हिन्दी विरोधी आंदोलनों के उस स्वर को पहचाना जा सकता है, जो एक स्तर पर तमिल अस्मिता का उच्चताबोध और दूसरे स्तर पर हीनताबोध का शिकार होने की बात को सामने लाता है । यह बोध क्रमशः हिन्दी और अंग्रेजी के मामले में है ।
तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों की कई परतें हैं । उनमें से एक यह भी है कि इस आंदोलन के कई नेता हिन्दी ही नहीं तमिल को भी अंग्रेजी के आगे न्यून और कम क्षमता वाला समझते थे । यह धारणा ग़लत थी, ग़लत है और रहेगी । यह इच्छा शक्ति का मसला है, दरअसल सभी मातृभाषाएँ क्षमतावान होती हैं । तमिलनाडु के हिन्दी विरोध ने उसे अंग्रेजी वर्चस्व की परिस्थिति तैयार करने का अगुवा बनाया । नेताओं के इस अंग्रेजी मोह के कारण ख़ुद वंचित और ग्रामीण तमिलों को बहुत अधिक प्रताड़ित होना पड़ा ।
आर.के.लक्ष्मण का एक कार्टून* यहाँ लगा रहा हूँ । इस कार्टून में तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों का एक बहुत संवेदनशील और महत्वपूर्ण पक्ष उभारा गया है । तमिलनाडु के नेताओं के दबाव में आकर इस कार्टून को एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की बारहवीं की किताब से 2012 में हटा दिया गया था । आश्चर्यजनक तौर पर इस कार्टून के विरोध के पीछे का विचार यह था कि इस कार्टून के माध्यम से तमिल भाषी छात्रों के अंग्रेजी ज्ञान पर सवाल उठाया गया है, जो तमिल भाषी छात्रों को अपमानित करने वाला और हीनतर साबित करने वाला कृत्य है!
जो तमिलानाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलनों की पृष्ठभूमि से परिचित नहीं हैं, उन्हें इस कार्टून के समझने में दिक्कत हो सकती है । इस कार्टून को लेकर मेरी जितनी समझ है, वह बताने की कोशिश कर रहा हूँ ।

संविधान में 15 वर्ष की अवधि तक अंग्रेजी को वैकल्पिक राजभाषा का स्थान दिया गया था । संविधान बनने से पहले तक राज-काज के जो भी काम अंग्रेजी में होते थे, उसे अगले पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी में ही चलाए जाने का प्रस्ताव था । यह 'सैद्धांतिक आशा' व्यक्त की गया थी कि इस अवधि तक दक्षिण भारत सहित हिन्दी के प्रति अन्य असहज प्रांतों तक हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो जाएगा । इस अवधि के पूरा होने तक, इस आशा के ठीक विपरीत यह हुआ कि हिन्दी को राजकाज की भाषा बनाए जाने के विरूद्ध तमिलनाडु में तीव्र विरोध आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन कहने को तमिल अस्मिता का पक्षधर आंदोलन था लेकिन इसकी तात्कालिक मांग यही थी कि अंग्रेजी को जो दर्जा पंद्रह वर्ष के लिए मिला था, उसे खत्म नहीं किया जाए, बल्कि अंग्रजी को हमेशा के लिए यह दर्जा दे दिया जाए । यह आंदोलन बहुत हद तक अपने उद्देश्यों में सफल रहा ।

आर.के. लक्ष्मण के इस कार्टून में हिन्दी का राजभाषा के रूप में नकार और अंग्रेजी को लगातार और हमेशा के लिए बनाए रखने के लिए 1965 में हो रहे आंदोलन के समानांतर और उसके विरोध में एक ऐसे आंदोलन की परिकल्पना की गयी है, जो उन छात्रों के द्वारा की जा रही है, जो हिन्दी ही नहीं अंग्रेजी को लेकर भी असहज हैं । इस कार्टून में एक ऐसे ही छात्र को हाथ में पत्थर लिए दिखाया गया है । यह कार्टून संवेदनशीलता के साथ उन तमिलों की पीड़ा को सामने लाती है, जो अंग्रेजी नहीं जानते थे । तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन, एक ओर हिन्दी थोपे जाने से तमिल जनता को बचा रहे थे वहीं दूसरी ओर जाने-अनजाने पिछड़े, वंचित और ग्रामीण तमिलों पर अंग्रेजी थोपे जाने का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे । क्या इसे हिन्दी थोपे जाने से कमतर प्रताड़ना देने वाला काम माना जा सकता है?

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[*चित्र साभार : द हिंदू.कॉम]
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